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पिछले दिनों फिलीपींस के सेबु शहर में चर्च का 51वां अंतरराष्ट्रीय युखारिस्ट सम्मेलन आयोजित हुआ। किसी इलाके के ईसाईकरण और उस संदर्भ में राजनीतिक कूटनीति के संदर्भ में युखारिस्ट सम्मेलन का बड़ा महत्व होता है। 52 वर्ष पूर्व यह सम्मेलन मुंबई में हुआ था। तब इसके विरोध में भारत में एक वर्ष तक तीव्र आंदोलन चला था। फिर भी तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने यह सम्मेलन आयोजित कराया था। अब एशिया में आयोजित किए जा रहे इस सम्मेलन का काफी महत्व है। चीन में ईसाईकरण के उभार और वहां की जनता में उसके प्रति विरोध, उत्तर कोरिया में हाइड्रोजन बम विस्फोट, भारत में सत्तांतरण और एशिया में बढ़ने वाली अल कायदा और आईएसआईएस की गतिविधियों को पोप ने पहली बार इतनी गंभीरता से लिया है। असल में यूखारिस्ट सम्मेलन ईसाइयों का पांथिक कार्यक्रम है। जिन देशों में यूरोपीय देशों का वर्चस्व कम है उन देशों में वर्चस्व को बढ़ाना इस जैसे सम्मेलनों का उद्देश्य होता है।
फिलीपींस में इस संगोष्ठी का विरोध हो रहा है कारण यह कि वहां पिछले 100 वर्ष का सबसे भयानक अकाल पड़ा है। हर चार वर्ष बाद होने वाला यह सम्मेलन आमतौर पर किसी महाद्वीप में 25-30 वर्ष बाद आयोजित किया जाता है। लेकिन इस बार अपवाद है, क्योंकि एशिया में स्थिति ईसाईकरण के लिए विस्फोटक बन चुकी है। आईएसआईएस का बढ़ता फैलाव व आतंकवाद एक कारण है लेकिन पिछले पांच वर्ष की तुलना में देखें तो एशिया में ईसाईकरण का अत्यधिक विरोध होने लगा है। पोप जॉन पाल द्वितीय ने 16 वर्ष पूर्व 1990 में भारत आकर बड़े पैमाने पर ईसाईकरण करने की अपनी योजना जाहिर कर दी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत के गांव-गांव में मिशनरी प्रचारक दिखने लगे थे। फिलहाल इस समय वे रक्षात्मक भूमिका में दिख रहे हैं।
चीन में तो ईसाई मिशनरियों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां भी शुरू हुई हंै। चीन में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वालों ने ही बड़े पैमाने पर ईसाईकरण में भाग लेना शुरू किया है। इसी कार्य से चीन में भूमिगत चर्च अत्यधिक संख्या में खड़े हो रहे हैं। साथ ही दक्षिण पूर्व एशिया के म्यांमार, लाओस, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम जैसे देशों में ईसाई चर्च का अस्तित्व तो है लेकिन उसकी सीमाएं भी हैं। मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देशों में चूंकि मुस्लिम वर्चस्व है इसलिए वहां उनके काम पर पाबंदियां हैं।
श्रीलंका एवं नेपाल में ईसाई मिशनरियां अभी किसी कारणवश पूरी तरह से काम नहीं कर पा रही हैं। पाकिस्तान से पश्चिम की ओर और उत्तर में एशियाई देशों में इस समय केवल आईएसआईएस और अल कायदा की दहशत का प्रभाव है। लेकिन दक्षिण एशियाई देशों का चर्च की दृष्टी से परिचय यह है कि इन देशों में 100 से 300 वषोंर् तक किसी न किसी कालखण्ड में यूरोपीय देशों की सत्ता रही है। इस हिस्से के देशों की जितनी जानकारी स्थानीय लोगों को है, उतनी ही चर्च संगठनों के पास भी है।
सो, एशिया में युखारिस्ट सम्मेलन के लिए फिलीपींस का चुनाव किया है। फिलीपींस में 80 से 85 प्रतिशत आबादी ईसाई है। यह विश्व में पांचवां सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि वहां रोमन कैथोलिक पंथ का प्रभाव अधिक है। वहां ईसाईकरण स्पैनिश मिशनरियों ने किया है। वहां जिस शहर में युखारिस्ट सम्मेलन हो रहा है उस सेबु शहर से ही इस देश में ईसाईकरण का आरंभ हुआ था। तीन महीने पूर्व फिलीपींस के आर्चबिशप जोस पाल्मा, इटली के आर्चबिशप पीईरो मारिनी और वेटिकन के पदाधिकारी फादर विटोरे बोकार्डी ने रोम से ही इसका प्रचार दौरा शुरू किया। रोम के बाद उन्होंने एशियाई देशों का दौरा किया। उनकी प्रचार मुहिम के दौरान जो मुद्दे उभरे वे भारत की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उनका कहना है कि पिछले कुछ वषोंर् में पूर्वी एवं दक्षिण एशियाई देशों में आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्र में बड़े बदलाव हो रहे हैं। यहां के कुछ देशों में आर्थिक क्षेत्र में बड़ा अंतर दिखाई दे रहा है। इन देशों में रोमन कैथोलिक पंथ का अस्तित्व कम है इसलिए यहां अपना प्रभाव बढ़ाना ही सम्मेलन का उद्देश्य है।
मोरेश्वर जोशी
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