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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 42
27 अप्रैल,1959
आज जब संस्कृति की भ्रामक परिभाषाएं हो रही हैं
कन्या गुरुकुल संस्कृति सम्मेलन के अध्यक्ष पद से श्री उपाध्याय का भाषण
हरिद्वार। भारतीय जनसंघ के महामंत्री श्री दनदयाल उपाध्याय ने स्थानीय कन्या गुरुकुल हरिद्वार के 25वें वार्षिक महोत्सव पर विराट संस्कृति सम्मेलन के अध्यक्षीय आसन से बोलते हुए कहा, 'संस्कृति क्या है?' यह प्रश्न विवादस्पद बना हुआ है और उसका स्वरूप निर्णय करने में प्राय: भूल और भ्रांतियां होती आ रही है किन्तु उसका स्पष्ट उत्तर महाभारत के सुप्रसिद्ध यक्ष के शब्दों में सही रूप से यही दिया जा सकता है कि भारतीय संस्कृति का मार्ग 'महाजनो येन गत: स पंथा' है।
इस दिशा बोधक संकेत के सहारे हम सहस्रों वर्षों से चले आने वाली उस संस्कृति का स्पष्ट स्वरूप समझ सकते हैं और समझा सकते हैं। इसी दीपक के सहारे संस्कृति की राह सरल साीधी और सर्वथा समुज्ज्वल है। यह संस्कृति की ही दी हुई विरासत है कि एक भावनात्मक स्वरूप का सुस्थिर निर्णय बन चुका है कि मार्ग बतलाने वाला महाजन कैसा होना चाहिए। देश के इतिहास में रावण जैसे प्रकांड पंडित, दुर्योधन जैसे सामर्थ्यशाली, कंस और जरासंध जैसे प्रबल प्रतापी नरेशों को हमारे देश के जनमानस ने महाजन कभी नहीं माना। सत्ययुग और त्रेतायुग के राक्षसों के पश्चात आक्रामक शकों, हूणों, मुगल, पठानों और आततायी अंग्रेजों के अत्याचारों को सहन करते हुए भी हमारे देश की जनता ने जिन आदर्शों के कारण दाशरथि राम को मार्यादा पुरुषोत्त्म भगवान राम के रूप में समादृत माना है, उसी प्रकार की कसौटियां हमारे सांस्कृतिक क्षेत्र के महाजनों की परिभाषा बताती है। किंतु आज युगधर्म के भ्रांत नारे से सती सीता, दमयंती का पतिव्रत, हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता, राजा रन्तिदेव की आतिथ्य भावना, कर्ण तथा भामाशाह की दानशीलता आज प्रश्नवाचक चिन्ह के रूप में प्रस्तुत है। देश में देश की परंपराओं के प्रति अश्रद्धा और बाह्य पर श्रद्धा का एक समस्या बनती जा रही है। किंतु जन जीवन के अन्य अनेक मूल्यवान तत्वों की भांति यहीं के आदर्श देशवासियों को प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं।
श्री उपाध्याय ने सांस्कृतिक तत्वों की गंभीर विवेचना के बाद कहा कि जिस प्रकार पैर में कांटा चुभते ही या शरीर के किसी भी स्थान पर चीटी के द्वारा भी काटते ही आत्मा में तिलमिलाहट हो उठती है, उसी प्रकार बिहार के भूकंप, बंगाल के अकाल, पंजाब के हत्याकांड, कश्मीर की आपत्ति और गोआ की पुकार पर प्राणार्पण करने की जिस मनाभावना से संपूर्ण राष्ट्र शरीर व्याकुल हो उठता है, बस यह एकत्व की भावना ही भारतीय संस्कृति है। युगधर्म नामक नए फैशन के बहाव में हम कहीं बह न जाएं और कहीं भूल न जाएं उन आदर्शों को जिन पर राष्ट्र को खड़ा करना है। यह बड़ी भारी आवश्यकता है। जिस प्रकार दसों भाषाएं बोली जाते हुए भी संस्कृत को मातृभाषा मान कर चलने में कहीं टकराव नहीं आता, उसी प्रकार देश के विभिन्न भागों की विभिन्न परंपराएं होते हुए भी भारतीय संस्कृति एक है जो वेद-शास्त्रों और भारतीय मानमर्यादाओं से पूर्णत: परिपुष्ट तिाा प्रमाणित है।
यह राजस्थान है!
जनसंघ विधायकों का नरभक्षी शेरों के विरुद्ध मोर्चा
जनहित के लिए जान खतरे में डाली
जयपुर 20 अप्रैल। मनुष्य हो या मनुष्योयेतर कोई अन्य जीवजन्तु-सृष्टि का कोई भी प्राणी अपनी पराजय स्वीकार नहीं करना चाहता। इसी प्रकार की एक घटना तहसील नीम का थाना (जिला सीकर, राजस्थान) में हुई जिसमें नर और नरभक्षी में एक दूसरे को पराजित करने के लिए लोमहर्षक मल्लयुद्ध हुआ। परंतु विजयश्री मनुष्य के ही हाथ आई। नीम का थाना पिछले 10-15 दिनों से नरभक्षी शेरों के आतंक से परेशान है। लोगों का कहना है कि उस क्षेत्र के जंगल में तीन-चार शेर हैं।
घटना इस प्रकार है कि शेरों के आतंक की सूचना पाकर राजस्थान विधानसभा के दो जनसंघी विधायक ठा. मदनसिंह दांता और श्री शिचरणदास मोर्चा लेने चल दिये, इनके साथ भरतसिंह भी थे, गत तीन दिनों से तहसील के छापर तथा नाका का भैरों नामक गांवों के निकटस्थ जंगल में मोर्चा लगा था, आखिर यह घड़ी आ गई जब एक दूसरे के घोर शत्रु, मानव तथा शेरनी, आमने सामने खड़े थे। कल दोपहर को लगभग 1 बजे शेरनी सामने आ खड़ी हुई परंतु जबड़े में एक गोली खाकर वापिस घने कुंज में लौट गई, इसके बाद भी 3-4 गोलियां कुंज को लक्ष्य करके चलाई गईं।
शेरनी क्रुद्ध हो चुकी थी। श्री शिवचरणदास यह सोचकर कि शेरनी ने अपनी इहलीला समाप्त कर दीह ै आगे बढ़े। पर ज्यों ही वे कुंज के निकट पहुंचे, शेरनी ने हमला कर दिया। श्री शिवचरणदास ने बंदूक का घोड़ा दबाना चाहा परंतु दोनों के बीच में एक अन्य व्यक्ति के निकल जाने से वे ऐसा नहीं कर सके। तो शेरनी को मौका मिल गया। उसने दबोचने की कोशिश की लेकिन श्री शिवचरणदास हार मानने वाले नहीं थे। श्री शिवचरणदास ने शेरनी का कंठ दबा लिया और शेरनी ने अपने चारों पंजों से श्री शिवचरणदास को जकड़ लिया। दोनों में मल्लयुद्ध आरंभ हो गया। लड़ाई पहाड़ी पर हो रही थी इस कारण दोनों ही आपस में गुंथे हुए नीचे लुढ़कने लगे 40 गज तक यही स्थिति रही। इस बीच श्री शिवचरणदास काफी चोटें खा चुके थे, सारे शरीर पर शेरनी के नाखून गड़ रहे थे तथा खून निकल रहा था। फिर भी उन्होंने शेरनी को नहीं छोड़ा। भला हो इस राजस्थानी साफेका, जो सर पर बंधा था और जब शेरनी ने अपना भयंकर जबड़ा सर पर जमाया तो साफा ही उसके जबड़े में फंसा रह गया।
राष्ट्रीय एकात्मता और मुसलमान
''मुसलमान और ईसाई बाहर से आये हुए लोग नहीं हैं, उनके पूर्वज हिन्दू ही थे। धर्म बदल जाने से राष्ट्रीयता में परिवर्तन नहीं होता, संस्कृति भी नहीं बदलती। धर्म के आधार पर मुसलमान या ईसाई लोगों को अल्पसंख्यक मानने का अर्थ है राजनीतिक, अर्थनीति एवं सामाजिक जीवन में भी धर्म के आधार पर विभाजन करना। यह तो प्रच्छन्न द्विराष्ट्रवाद या बहुराष्ट्रवाद को स्वीकारना हुआ। वस्तुत: राष्ट्रीय एकात्मता का प्रश्न मृूूलत: संकुचित निष्ठाओं को त्यागकर राष्ट्र निष्ठा को स्वीहकारने का प्रश्न है। इसके लिए लोगों के मन-मस्तिष्क से संकुचित निष्ठाओं को निकाल बाहर करने का प्रयास होना चाहिए।''
-पं. दीनदयाल उपाध्याय
विचार-दर्शन खण्ड-3, पृष्ठ संख्या 104
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