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लगता था, जैसे दिल्ली दुनियाभर में सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर है। एक के बाद एक आईं कई रपट और आकलन यही दर्शाते थे। पिछले वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनियाभर के शहरों का अध्ययन करने के बाद दिल्ली की आबोहवा को सबसे ज्यादा प्रदूषित बताया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी दिल्ली की हवा में घुले जहर को लेकर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था कि दिल्ली में रहना गैस चैंबर में रहने जैसा है।
इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए 2000 सीसी से अधिक शक्ति की डीजल गाडि़यों के पंजीकरण पर 31 मार्च, 2016 तक के लिए रोक लगा दी। गत वर्ष दिसंबर में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने दिल्ली सरकार को दिल्ली में प्रदूषण न रोक पाने के चलते फटकार भी लगाई। अधिकरण ने पूछा कि सरकार घरेलू कचरे व पत्तियों को जलाने पर रोक क्यों नहीं लगा पा रही है? दिल्ली सरकार ने प्रदूषण कम करने के लिए 1 से 15 जनवरी तक सम-विषम फॉर्मूला लागू किया। उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार के सम-विषम फॉर्मूले को आगे भी जारी रखने की अनुमति दे दी है।
दिल्ली सरकार के लिए यह एक महत्वाकांक्षी कदम था और उसका दावा है कि इससे दिल्ली के प्रदूषण के स्तर में खासी कमी आई है लेकिन आइआइटी कानपुर की रपट इसके उलट है। दिल्ली व राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के शहरों में खतरनाक स्तर तक प्रदूषण होने का सबसे बड़ा कारण वाहनों व उद्योगों से निकलने वाला धुंआं नहीं, बल्कि सड़कों पर उड़ने वाली धूल है। दिल्ली के प्रदूषण को लेकर कानपुर आइआइटी ने वर्ष 2013 से 2015 तक एक शोध किया। इसके तहत दो वर्षों तक दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में एयर क्वालिटी सैंपलर लगाकर प्रदूषण के नमूने लिए गए। इस शोध के तहत गर्मियों और सर्दियों के मौसम में प्रदूषण के स्तर को अलग-अलग नापा गया। दिल्ली की हवा में पी.एम. 2.5 (देखें बॉक्स:पीएम स्तर) को लेकर किए गए इस शोध में गर्मियों के दौरान होने वाले वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण वाहन नहीं बल्कि दिल्ली की सड़कों पर उड़ने वाली धूल थी। आइआइटी की रपट के अनुसार गर्मियों के दिनों में कोयले एवं लकड़ी को जलाने के कारण 26 फीसद, धूल के कारण 27 फीसद, लांग डिस्टेनेंस यानी सेकेंडरी पार्टिकल के कारण 15 फीसद, पत्ते व किसानों द्वारा पराली (पैरा) जलाने से 12 फीसद, घरेलू कचरे में आग लगाने से 7 प्रतिशत व गाडि़यों के धुएं से 9 प्रतिशत प्रदूषण होना पाया गया। वहीं सर्दियों के मौसम में गाडि़यों से 25 फीसद, सेकेंडरी पार्टिकल से 30 फीसद, पराली जलाने से 26 फीसद व घरेलू कचरा जलाने से 8 फीसद प्रदूषण होने की बात सामने आई है। शोध से जुड़े एक प्रोफेसर बताते हैं सम-विषम फॉर्मूला एक अच्छा प्रयास है लेकिन दिल्ली में प्रदूषण का एक मात्र कारण यह नहीं है। दिल्ली की हवा प्रदूषित होने के और भी कई बड़े कारण हैं, जिन पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।
31 मार्च, 2015 तक दिल्ली में निजी वाहनों की संख्या 84,75,371 थी। इसके अलावा व्यावसायिक वाहनों की संख्या 3,56,821 थी। वर्ष 2014 मेें कुल 5,74,602 नए वाहन सड़कों पर उतरे जबकि वर्ष 2013 में यह संख्या 5,31,332 थी। हर वर्ष वाहनों की संख्या में हो रही बढ़ोतरी भी प्रदूषण होने के बड़े कारणों में से एक है।
सम-विषम फॉर्मूले से प्रदूषण कम होने के दावे को केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व पृथ्वी एवं विज्ञान मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ एंड साइंस) की रपट सही नहीं मानती है। दोनों की ही रपट के अनुसार सम-विषम योजना लागू होने के बाद दिल्ली के प्रदूषण के स्तर में कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। मानकों के अनुसार हवा में मौजूद पी.एम. का औसत स्तर वार्षिक 40 व 24 घंटों के दौरान 60 से ज्यादा नहीं होना चाहिए। 'मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ एंड साइंस' ने भी दिल्ली के विभिन्न इलाकों में पी.एम 2.5 का स्तर 250 से 450 के बीच बताया।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संजीव अग्रवाल बताते हैं कि सम-विषम योजना के लागू होने के बाद प्रदूषण में थोड़ा-बहुत फर्क भले ही आया हो लेकिन उसका कारण मौसम में हुआ बदलाव भी है। ऐसा भी नहीं है कि प्रदूषण कम करने के लिए जो कोशिश हुईं उसका कोई फायदा नहीं हुआ, लेकिन इतनी अल्प अवधि के परिणामों को आधार बनाकर दिल्ली सरकार जिस तरह से प्रदूषण कम होने का दावा कर रही है, उसे मानकों के अनुसार खरा नहीं माना जा सकता। प्रदूषण का स्तर सदैव एक जैसा नहीं रहता। बारिश और गर्मी के मौसम में प्रदूषण स्वत: ही कम हो जाता है। सर्दियां शुरू होते ही जैसे ही तापमान में कमी आती है जहरीले तत्वों से भरी हवा ऊपर नहीं जा पाती और प्रदूषण हवा में ही बना रहता है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है या इस बीच बारिश हो जाती है तो प्रदूषण का स्तर कम हो जाता है।
डॉ. अग्रवाल का कहना है कि हवा में प्रदूषण का मानक तय करने के लिए जगह चिह्नित कर 104 दिनों तक 'मॉनिटरिंग' की जाती है। इसके बाद ही निष्कर्ष निकाला जाता है कि प्रदूषण के स्तर में कमी आई या नहीं। वर्ष 2014 के आंकड़ों के अनुसार देश के 46 बड़े शहर, जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है, उनमें प्रदूषण के मामले में दिल्ली चौथे स्थान पर है। तीसरे पर इलाहाबाद, दूसरे पर गाजियाबाद और पहले पर रायपुर है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बढ़ते प्रदूषण का खामियाजा दिल्लीवासियों को खासा भुगतना पड़ा है। हाल ही में मेडिकल जर्नल (जर्नल ऑफ अस्थमा) में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया था। 16 शहरों में किए गए इस अध्ययन में दिल्ली के 7175 बच्चे शामिल थे। दिल्ली के बच्चों के स्वास्थ्य का मूल्यांकन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली के मेडिसन विभाग ने किया। अध्ययन में सामने आया कि दिल्ली में छह से सात वर्ष की आयु वाले 6.02 फीसद बच्चे अस्थमा से पीडि़त पाए गए इनमें से 41.70 फीसद बच्चों का अस्थमा गंभीर था। 13 से 14 वर्ष की आयु के 5.30 फीसद बच्चे अस्थमा से पीडि़त पाए गए, जिनमें 62.50 फीसद बच्चों का अस्थमा गंभीर था।
दिल्ली स्थित तीर्थराम अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सक पुनीत अग्रवाल बताते हैं कि प्रदूषण से सांस, फेफड़े, आंख व त्वचा संबंधित विभिन्न बीमारियां होती हैं। लंबे समय तक प्रदूषण में रहने के कारण ये बीमारियां गंभीर रूप ले लेती हैं। इसलिए प्रदूषण को नियंत्रित करना बेहद आवश्यक है। जहां तक सम-विषम फॉर्मूले से प्रदूषण के कम होने की बात है तो हो सकता है इससे थोड़ा-बहुत फर्क पड़ा हो। दिल्ली में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए दूसरे बड़े कारणों की तरफ ध्यान देने की जरूरत है जिनमें सबसे प्रमुख कचरे का जलाया जाना व सड़कों पर उड़ने वाली धूल है। सरकार को चाहिए कि पहले इन सब चीजों पर नियंत्रण करे।
आदित्य भारद्वाज
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