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इस क्षेत्र में जबरन अपनी सत्ता और दखल बनाए रखने के लिए पाकिस्तान ने सुन्नी अल्पसंख्यकों से स्वतंत्र राज्य की मांग रखने की बात कही। गिलगित-बाल्टिस्तान कानूनी और संवैधानिक रूप से भारत का अभिन्न हिस्सा है। इसे बदलने के किसी भी प्रयास का भारत हर स्तर पर हमेशा विरोध करेगा।
हाल में पाकिस्तान द्वारा गिलगित- बाल्टिस्तान की स्थिति को पुनर्परिभाषित करने का प्रयास और कुछ नहीं बल्कि जम्मू-कश्मीर के रणनीतिक महत्व के इस विशेष क्षेत्र को राज्य से अलग बताने की साजिश है। अपरिभाषित क्षेत्र के रूप में प्रचारित कर पाकिस्तान इसको चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरिडोर (सीपीईसी) के लिए चिंतित चीन के लिए एक रणनीतिक समाधान के तौर पर प्रस्तुत करना चाहता है। पहले भी पाकिस्तान की ओर से ऐसे प्रयास होते रहे हैं। 2007 में ब्रसेल्स में पाकिस्तान के राजदूत सईद खालिद ने बारूनेस ऐमा निकल्सन को एक पत्र में लिखा था,''पाक अधिकृत कश्मीर का उत्तरी क्षेत्र, जो अब गिलगित-बाल्टिस्तान के नाम से जाना जाता है, 1947 में जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा नहीं था और इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ का जम्मू-कश्मीर पर प्रस्ताव गिलगित- बाल्टिस्तान के किसी भी हिस्से में लागू नहीं होता।' इस पत्र में यह विश्लेषित करने का प्रयास किया गया था कि जम्मू-कश्मीर के एक रणनीतिक क्षेत्र का हिस्सा गिलगित-बाल्टिस्तान इस राज्य से अलग है और इसीलिए इसे आजाद कश्मीर कहा गया है। इसका क्षेत्रफल 28,000 वर्ग मील है। यह पाकिस्तान से चीन को जोड़ता है जहां सीपीईसी में चीन 46 अरब डॉलर से अधिक के निवेश की बात कर चुका है। इस क्षेत्र के लोग अलग-अलग मत-पंथों और उप-पंथों में बंटे हैं जो वर्तमान में आंतरिक रूप से सुलगाये गये कट्टरवादी उन्माद से पहले बहुत शांति के साथ रहते थे। शिया बहुल इस क्षेत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ ही उन स्थितियों का भी खुलासा जरूरी है कि किस प्रकार पाकिस्तान ने इस क्षेत्र के ऊपर अपना नियंत्रण स्थापित किया और वह उसे अपनी 'जागीर' मानने लगा। पाकिस्तान ने इस भ्रांति का फायदा उठाया कि गिलगित-बाल्टिस्तान जम्मू-कश्मीर से अलग था और स्थानीय जनता ने यहां आंदोलन चलाया जिसकी वजह से इस इलाके पर पाकिस्तान का नियंत्रण हो गया। लेकिन यह झूठ था। यहां तक कि 1994 में पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने भी निर्णय दिया था कि गिलगित-बाल्टिस्तान 1947 से पूर्व से ही अस्तित्व में था इसलिए यह 'जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा' है।
गिलगित-बाल्टिस्तान में आज जो राजनीतिक नियंत्रण है उस दृष्टि से यह क्षेत्र कभी भी एक पृथक इकाई के रूप में अस्तित्व में नहीं रहा। इस क्षेत्र में दो पृथक राजनीतिक अस्तित्व थे- एक दर्दिस्तान या गिलगित और दूसरा बाल्टिस्तान जिनके कश्मीर घाटी, लद्दाख और जम्मू से घनिष्ठ संबंध पहले से थे। कई बार ऐसा समय आया जब इस क्षेत्र के शासन सूत्र कश्मीर घाटी से नियंत्रित होते थे। दर्दिस्तान और बाल्टिस्तान सहित कश्मीर के सभी भाग कुषाण साम्राज्य के हिस्सा थे। बौद्ध अभिलेखों और सिक्कों से भी इसके साक्ष्य प्राप्त होते हैं। बौद्ध परंपरा के अनुसार कनिष्क ने 78 ईस्वी से लेकर 140 ईस्वी तक शासन किया और तीसरी बौद्ध परिषद का आयोजन कश्मीर में किया। अपनी यात्रा के दौरान चीनी यात्री ह्वेनसांग ने पाया कि इस साम्राज्य में कनिष्क की स्मृतियां पूरी तरह से सुरक्षित हैं। वास्तव में महायान धारा का उदय कश्मीर में ही हुआ था और इसका चरम कनिष्क की बौद्ध परिषद में दिखायी पड़ता है। उसके बाद हिन्दू शासक ललितादित्य (724-761 ईस्वी) और करकोटा राज्य के साथ ही बाद डोगरा साम्राज्य में यह क्षेत्र एकीकृत जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था। जब कभी और जिस कारण भी कश्मीर कमजोर हुआ इस विशेष क्षेत्र ने स्वतंत्र सत्ता हासिल कर ली। यहां तक कि मुस्लिम शासन में भी कश्मीर के शासकों ने दर्दिस्तान, बाल्टिस्तान, लद्दाख और जम्मू सहित राज्य के सभी सीमावर्ती क्षेत्रों से घनिष्ठ संबंध बनाये रखे। वास्तव में रिनचिन (1320-1323) कश्मीर का पहला मुसलमान राजा था जो लद्दाख का राजकुमार था। सुल्तान शिहाबुद्दीन जिसे 'मध्यकालीन कश्मीर का ललितादित्य' कहा जाता है, ने न केवल आज के जम्मू और कश्मीर में, बल्कि सतलुज नदी के किनारे तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। जब-जब केन्द्रीय सत्ता मजबूत रही ये इलाके उसका हिस्सा बने रहे, लेकिन केन्द्र के कमजोर होते ही सीमावर्ती इलाके स्वतंत्र हो गए। वास्तव में कश्मीर का दर्दिस्तान, बाल्टिस्तान, लद्दाख और जम्मू क्षेत्र के साथ परस्पर आदान-प्रदान इस काल में जारी रहा। अंत में सबसे बड़े स्वतंत्र मुस्लिम राजवंश-चाक ने कश्मीर पर शासन किया जो कि गिलगित से यहां आया था।
कालांतर में यह हिस्सा मुगल साम्राज्य, फिर अफगानी साम्राज्य और अंत में कश्मीर 1819 ईस्वी में सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। लेकिन इस समय तक राज्य के सीमावर्ती इलाके श्रीनगर की केन्द्रीय सत्ता से स्वतंत्र हो गए थे और इस तरह शुरू में सिखों का शासन कश्मीर घाटी तक सीमित रहा, जबकि महाराजा रणजीत सिंह ने 1820 में जम्मू क्षेत्र राजा गुलाब सिंह को जागीर के रूप में दे दिया था। जम्मू क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद गुलाब सिंह ने 1836 में लद्दाख और 1840 में बाल्टिस्तान को कब्जा लिया। दूसरी ओर 1842 में गिलगित को कर्नल नाथू शाह ने कब्जा लिया जो शेख गुलाम मोहिउद्दीन का कमांडर था, मोहिउद्दीन सिख शासन में कश्मीर के गवर्नर थे।
इस क्षेत्र की सभी इकाइयां पहले सिख साम्राज्य के दौरान और फिर डोगरा साम्राज्य में एकीकृत बनी रहीं। 1846 में अमृतसर संधि पर हस्ताक्षर के बाद अंग्रेजों के उकसावे पर जम्मू के शासक गुलाब सिंह ने अपने राजनीतिक प्रभाव को उत्तरी क्षेत्र में बढ़ाया और इसे रूस और ब्रिटिश भारत के बीच एक सुरक्षित सेतु के रूप में बढ़ावा दिया। 1866 में यह सारा क्षेत्र डोगरा शासकों के नियंत्रण में आ गया और हुंजा तथा नगर के शासक कश्मीर के मनसबदार बन गए।
इसके बाद इस क्षेत्र में रूस की रुचि बढ़ने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उस समय के जम्मू-कश्मीर के शासक महाराजा हरि सिंह पर दबाव बनाया और गिलगित और आसपास के क्षेत्र को 60 साल के पट्टे (लीज) पर अपने नियंत्रण में ले लिया। यही वह लीज है जिसके बहाने कई पाकिस्तानी गिलगित-बाल्टिस्तान के विशेष दर्जे का दावा करते हैं। लेकिन यहां यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि अंग्रेजों ने कभी भी इस क्षेत्र में महाराजा की संप्रभुता और सत्ता पर प्रश्न खड़े नहीं किये। राजा गिलगित क्षेत्र में अधिकारियों की नियुक्ति और एजेंसी के मुख्यालय में अपना झंडा फहराने को स्वतंत्र थे। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में खनन लाइसेंस और लीज देने के सारे अधिकार महाराजा के पास थे। इस बात की तारीफ करनी होगी कि दर्दिस्तान के केवल उसी इलाके की लीज अंग्रेजों के पास थी जो सिंधु नदी के दाएं किनारे था। जबकि सिंधु नदी के बाईं तरफ का हिस्सा और समूचा बाल्टिस्तान महाराजा के नियंत्रण में बना रहा।
दूसरी ओर बाल्टिस्तान, लद्दाख, वजारत का हिस्सा था और इसका गिलगित से कोई प्रशासनिक लेना-देना नहीं था। बाल्टिस्तान महाराजा की ओर से वजीरे वजारत द्वारा शासित था जो 6 महीने स्कर्दू, 3 महीने कारगिल और 3 महीने लईया में रहता था।
लीज की समाप्ति के बाद महाराजा ने ब्रिगेडियर घनसारा सिंह को गिलगित का गवर्नर बनाया, जिसने 1 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट ले.कर्नल बेकन से सत्ता प्राप्त की। लेकिन गिलगित स्काउट्स और अधिकतर सिविलियन कर्मचारियों ने उन्हें तब तक सहयोग देने से मना कर दिया जब तक कि उन्हें ज्यादा वेतन देने की गारंटी नहीं मिल जाती। उनकी बार-बार अपील के बावजूद श्रीनगर में महल के षड्यंत्रों के कारण वे इस क्षेत्र में सैनिक और प्रशासनिक रूप से अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर पाए। इस तरह गवर्नर नाममात्र के अधिकारी बनकर रह गए क्योंकि उन्हें अपनी सत्ता चलाने के लिए जम्मू-कश्मीर राज्य से शक्ति नहीं मिली। इस बीच गिलगित क्षेत्र में तैनात महाराजा के सैनिक दस्तों में से कई दस्ते पाकिस्तानी एजेंटों और उनके प्रचार से दिग्भ्रमित हो गए और पाकिस्तानी एजेंटों से मिल गए।
आखिरकार गवर्नर को 1 नवंबर, 1947 को गिलगित स्काउट्स ने बंदी बना लिया और इस प्रकार गिलगित क्षेत्र में महाराजा की सत्ता समाप्त हो गई। एक सतर्क विश्लेषण यह संकेत करता है कि महाराजा की सेना में ज्यादातर बाहरी (जम्मू के मीरपुर क्षेत्र के) तत्व थे, जो इस सैनिक दुस्साहस में सबसे आगे थे। गिलगित स्काउट्स उनके साथ कुछ देर बाद जुड़े और उनमें भी कुछ ही पलटनें घर के भेदियों से जा मिलीं। गिलगित में पाकिस्तानी झंडा फहराने के बाद जम्मू-कश्मीर की सेना की विद्रोही टुकडि़यों और गिलगित स्काउट्स ने गुरेज घाटी और बाल्टिस्तान की ओर बढ़ना शुरू किया। फरवरी 1948 में उन्होंने स्कर्दू पर आक्रमण किया। श्रीनगर से पर्याप्त समर्थन न मिलने के बाद भी सेना अगले छह महीने तक डटी रही। आखिरकार साढ़े नौ महीने बाद 14 अगस्त, 1948 को गिलगित के पतन के बाद महाराजा की सेना ने समर्पण कर दिया। इस प्रकार स्कर्दू और सारा गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्र पाकिस्तान के नियंत्रण में आ गया।
इसके बाद स्थानीय और गैर स्थानीय नौकरशाह के पाटों में बांटकर पाकिस्तान ने इस क्षेत्र में एक परोक्ष सत्ता के रूप में शासन शुरू कर दिया। अंग्रेजों के समय में फ्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशंस (एफसीआर), जो जनजातीय लोगों को बर्बर और असभ्य बताता था और उन पर सामूहिक रूप से दंड तय करता था, इस दौरान फिर लागू कर दिया गया। 1963 में पाकिस्तान ने 2,500 वर्ग मील क्षेत्र को जो पहले हुंजा राज्य का क्षेत्र था, हुंजा के मीर के विरोध के बाबजूद चीन-पाकिस्तान संधि के तहत चीन को सौप दिया।
हाल के इतिहास में क्षेत्र में संप्रदायों में दूरी बढ़ी है और शियाओं के सामूहिक उत्पीड़न की कई रपटें हैं। विरोध में स्थानीय निवासी पुलिसकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों को निशाना बना रहे हैं। गिलगित-बाल्टिस्तान यूनाइटेड मूवमेंट के हाल के बयान बताते हैं कि पाकिस्तान से उनका मोहभंग कितना अधिक है। उन्हें भारत सरकार से कुछ न करने की शिकायत है। शिया बहुलता को देखते हुए पाकिस्तान ने इस क्षेत्र का जनसांख्यिकीय चरित्र बदलने की भरपूर कोशिश की है और यहां लागू 'स्टेट सब्जेक्ट रूल' को उसने धता बता दिया है जिसमें किसी बाहरी व्यक्ति को राज्य की नागरिकता नहीं मिल सकती। इसके बाद बड़ी संख्या में सुन्नी पख्तूनों को इस क्षेत्र में बसाया गया जिसका स्थानीय लोगों की तरफ से हिंसक विरोध हुआ। इसको खत्म करने के लिए पाकिस्तान ने इन सुन्नी अल्पसंख्यकों से इस क्षेत्र को पाकिस्तान के राज्य के बतौर दर्जा देने की मांग उठाने को प्रेरित किया और इसकी आड़ में कब्जा जमाने की कोशिश कर रहा है। गिलगित-बाल्टिस्तान कानूनी और संवैधानिक रूप से भारतीय क्षेत्र है और इसे बदलने की हर कोशिश का अन्तरराष्ट्रीय तथा द्विपक्षीय मंचों पर विरोध होना चाहिए।
(लेखक इंडिया फाउण्डेशन के निदेशक, उन्होंने 'गिलगित-बाल्टिस्तान : द फॉरगॉटन पार्ट ऑफ जे एंड के' लिखी है)
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