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पाञ्चजन्य के पन्नों से
भारत स्थित तिब्बतियों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमं9ी पं. नेहरू से भेंट की और एक स्मृति पत्र समर्पित किया। आवेदन-पत्र यहां उल्लिखित किया जा रहा है-
महोदय,
बहुत आशंका, अत्यधिक दु:ख एवं अत्यावश्यक दृष्टि से हम संपूर्ण तिब्बतियों के प्रतिनिधि, जो भारत में रहते हैं, एशिया की पवित्रतम नगरी ल्हासा की भयावह स्थिति पर अत्यंत शोक एवं चिंता प्रकट करते हैं एवं एकमत होकर इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि ल्हासा में हो रहे वर्तमान कत्लेआम का केवल मात्र आप, इस महान एवं श्रद्धेय भारत राष्ट्र के प्रधानमंत्री, जो देश बौद्ध मत का जन्मस्थल है, महान आत्मा श्री दलाई लामा जिसके सर्वोच्च् धर्माधिकारी हैं एवं ल्हासा जिसकी पवित्रतम नगरी है, आप ही रोक सकते हैं।
सांस्कृतिक संबंध
'महान हिमालय द्वारा विभाजित, परंतु संस्कृति, धर्म, परंपरा एवं दृष्टिकोण में भारत के साथ एक, तिब्बत आज पैरों के नीचे दबाया जा रहा है और उसकी सबसे महान संपत्ति 'धर्म और विश्वास' जिस तिब्बत के महान नरेशों एवं पवित्र भारतीय पंडितों ने अत्यंत कष्ट सहकर भारत से प्राप्त किया और जिसे पूर्ण रूप में एवं पूरी सावधानी से बनाये रखा, आज पवित्रतम केन्द्र ल्हासा में जलायी जा रही है, नष्ट एवं अपवित्र की जा रही है।
हम तिब्बती जो भारत में निवास कर रहे हैं, हमारी रोती हुई महिलाओं तथा पवित्र ल्हासा नगरी में मृत एवं मृतप्राय भाइयों की ओर से, जिनके साथ हम भी सम्मिलित हैं, आपसे विनती और प्रार्थना करते हैं:
1. महान अत्मा श्री दलाई लामा की सुरक्षा के लिए सक्रिय सहयाग दिया जाय।
2. अगणित आहतों एवं बीमारों की सेवा के लिए जो एक प्रकार से बगैर किसी सहायता एवं सुश्रूषा के पड़े हैं, पर्याप्त औषधियों के साथ एक भारतीय सेवा मिशन तथा रेडक्रास की सुविधाएं पहुंचाई जाएं।
3. भारत सरकार के तत्वावधान में तिब्बतियों के अभियोग को उनके स्वयं की ओर से संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुंचाने की सुविधा प्राप्त करायी जाए।
4. तिब्बती शरणार्थियों को बिना रोकटोक भारत प्रवेश की अनुमति और जब वे यहां हों उन्हें भारतीय जनता की दया एवं सहयोग भी प्राप्त हो।
जिस समय आप इस प्रार्थना को पढ़ रहे हैं सहस्रों असहाय माताएं एवं बच्चे चीनी तोपों एवं स्वचालित अस्त्रों से भूने जा रहे हैं क्योंकि वे देश के महान नेता अपनी आजादी तथा विश्व की कुछ महानतम कला पाण्डुलिपि एवं परंपरा की रक्षा चाहते हैं।
हम लोग इस अपील को उस समय पेश कर रहे हैं, जिस समय ल्हासा की स्थिति अत्यंत भयानक है और हम आगे भी आपको इसी प्रकार की अथवा इससे भी दु:खद स्थिति जो तिब्बत के अन्य प्रांतों वे, स्यांग, खाम तथा अमडों में उत्पन्न हो रही है, ज्ञात कराते रहेंगे।
अत्यंत विनम्रता के साथ तिब्बती जनता की ओर से साक्षरीत द्वारा टी. लावांग, अध्यक्ष, भारतीय तिब्बती सभा, कालिम्पोंग एवं दार्जिलिंग भोटिया संघ के प्रधान'।
तिब्बत चीन का अंग कभी नहीं रहा
क्या तिब्बत चीन के प्रभुत्व के अंतर्गत आता है? 1959 के पं. नेहरू के शब्दों में कहना हो तो 'हां' और यदि 1935 के पं. जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में कहना हो तो : इसलिए, कम से कम वर्तमान काल के लिए चीन के हाथों से मंचूरिया निकल चुका है, मंगोलिया सोवियत संघ से संबद्ध सोवियत देश है। तिब्बत अब स्वतंत्र है।'
(पं. नेहरू द्वारा लिखित 'ग्लिम्पसेस ऑफ हिस्ट्री')
तो क्या 1935 से 1959 तक परिस्थिति इतनी परिवर्तित हो गई है? फर्क सिर्फ पं. नेहरू के दिमाग का है। बाकी धरती की स्थिति जहां की तहां बनी हुई है। तिब्बत के भू.पू. प्रधानमंत्री श्री लखंग्वाने (दिल्ली में) तो पुन: दोहराया है कि तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व नहीं है तथा तिब्बत तक चीन के प्रभुत्व का विस्तार एक विदेशी शक्ति का आक्रमण है।'
तो क्या तिब्बत पर चीन का कोई प्रभुत्व नहीं है? क्या तिब्बत सदा-सर्वदा से स्वाधीन रहा है, पं. नेहरू के इतिहास की झलक ही इन प्रश्नों का स्वीकारात्मक उत्तर प्रस्तुत नहीं करती, तो भारतीय इतिहास के चिर पुरातन पृष्ठ भी उसका समर्थन करते हैं।
तिब्बत स्वाधीन देश
ईसा के जन्म से भी एक शताब्दी पूर्व मगध के एक राजा द्वारा तिब्बत के विभिन्न जन-समुदायों का संगठन किया गया था। एक मगध राजा ने ही क्या 32 राजाओं ने तिब्बत के साथ इसी प्रकार के संबंध रखे। चीन के साथ तिब्बत का संबंध तो ईसा की सातवीं शताब्दी में आया और वह भी चीन की पराजय के रूप में। राजा सोंगत्सान गम-पो ने चीनी सेनाओं को पराजित कर वैन-चैंग नामक तांग राजकुमारी के साथ विवाह किया। उसने भृकुटी नामक नेपाली राजकुमारी से भी विवाह किया। 8वीं व 9वीं शताब्दी में तिब्बत एक प्रमुख शक्ति था। इसके पश्चात 11वीं शताब्दी में भारत के शाक्य वंश ने वहां अपना प्रभुत्व स्थापित किया। मुगल बादशाहों ने भी अपनी सत्ता को तिब्बत तक विस्तृत किया। 1960 में पांचवें लामा ने अपने शाही अधिकार त्याग कर धर्मगुरु-राजाओं की परंपरा का श्रीगणेश किया। लाल गिरपिर उन्होंने अपना महल बनाया और उसे पोटला नाम से पुकारा जाने लगा। 'पोटला' नाम दक्षिण भारत के मुख्य मठ अवलोकिनेश्वर के आधार पर रखा गया था। 18वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में समस्त दलाई लामा (धर्मगुरु शासक) छोटी अवस्था में ही मर गए। इस स्थिति का लाभ उठाकर चीन ने पूर्वी तिब्बत का अपहरण कर लिया तथा तिब्बत पर अपना प्रभुत्व जमाने लगे। 1718 में जब मंगोलों ने आक्रमण किया, चीनी सहायता के नाम पर तिब्बत आए और मालिक नकर जम गए। पर यह अवस्था बहुत दिन तक नहीं चल सकी। 1749 में तिब्बत में चीनियों का कत्लेआम हुआ। तिब्बती चीन को कर जरूर देते रहे किन्तु उसके बदले में चीनियों द्वारा दलाई लामा को आध्यात्मिक सम्मान प्रदान किया जाता रहा। यदि कर प्रदान किया जाना ही पराधीनता का लक्षण हो तो अभी-अभी तक नेपाल को भी तिब्बत कर प्रदान करता रहा है। वह तो भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के आग्रह पर नेपाल सरकार को अपने इस अधिकार को चीनी लुटेरों के पक्ष में त्याग देना
पड़ा है।
1893 में शिमला में सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में तय हुआ कि चीन तिब्ब्त में न तो अपनी सेनाएं भेजेगा और न प्रशासक ही। भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा तिब्बत पर चीन का सामान्य प्रभुत्व स्वीकार किया गया और चीन द्वारा तिब्बत की स्वायत्त सत्ता स्वीकार की गई, किन्तु तिब्बत ने इस समझौते को कभी स्वीकार नहीं किया, वह स्वयं को पूर्ण स्वाधीन ही मानता रहा।
1902 में रूस और चीन के बीच इस प्रकार की गुप्त संधि हुई कि तिब्बत को संयुक्त अधिकार में रखा जाए। इस संधि का पता चलते ही 1903 में भारत की तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने तिब्बत के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया। लेफ्टिनेंट कर्नल फ्रेंसिसयंगहसवैण्ड के नेतृत्व में अगस्त 1904 में एक सैनिक मिशन ल्हासा में प्रविष्ट हुआ। 1906 में चीन के मंचू वंश ने तिब्बत को अधिकार में करने का असफल प्रयास किया। दलाई लामा ने इस स्थिति का विरोध करते हुए भारत में शरण ली। 1912 में मंचू सरकार के पतन के पश्चात तिब्बत ने स्वयं को पूर्ण स्वाधीन घोषित कर दिया। किंतु खम के क्षेत्र पर बलात चीनी अधिपत्य स्थापित कर लिया गया। परंतु खम्पाओं ने एक क्षण को भी चीन की सरकार को शांति से नहीं बैठने दिया। चांग-काई-शेक की तो वे नाक में दम किए रहे। सन 1918 में भारत की ब्रिटिश सरकार ने एक स्मृति-पत्र भेजकर पुन: इस बात का निश्चय किया कि तिब्बत पर चीन का सामान्य प्रभुत्व ही है, वैसे तिब्बत स्वायत्त शासित है। 1945 में नई दिल्ली ने पुन: पेकिंग को सूचित किया कि वह तिब्बत के साथ पेकिंग के माध्यम से नहीं, सीधा संबंध स्थापित करेगी।
स्वतंत्र भारत और स्वतंत्र तिब्बत : ये तो रहीं पुरानी बातें जो इतिहास के पृष्ठों पर अंकित हैं और जिन्हें, प्राचीनता के प्रति सहज विराग होने के कारण, पं. नेहरू अग्राह्य मान सकते हैं। किंतु उनके ही शासन काल में कुछ ऐसी बातें घटित हुई हैं जिनके आधार पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है कि चीनी आक्रमण के पूर्व तक उनकी सरकार ने भी तिब्बत को पूर्ण स्वतंत्र देश माना।
दिशाबोध – स्वतंत्र विदेश-नीति
'स्वतंत्र तिब्बत एशिया में शांति रखने के लिए आवश्यक है। जो लोग इस विषय में यह सोचते हैं कि भारत को कुछ लचीली नीति पर चलना चाहिए, वे दो समान राष्ट्रों में स्नेह का संबंध नहीं चाहते, प्रत्युत कम्युनिस्टों की दासता भारत स्वीकार करे, यह उनकी इच्छा होती है। ऐसा सोचना देशद्रोह है।' (आर्गनाइजर, 25 मई, 1959) इसी विषय पर लोकसभा में भाषण करते हुए श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था- 'हमें चीन के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप नहीं करना है। किंतु हमारा स्पष्ट मत है कि तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग चीन का आंतरिक प्रश्न नहीं है। मैं एक छोटे दल का प्रतिनिधि हूं, किंतु तिब्बत की स्वतंत्रता को हमारा पूर्ण समर्थन है। '
—पं. दीनदयाल उपाध्याय, विचार-दर्शन खण्ड-3, पृष्ठ संख्या 111
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