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पंंडित जवाहरलाल नेहरू को इस दुनिया से विदा हुए 50 से भी अधिक वर्ष हो चुके हैं। भारतीय राजनीति में लगभग 40 वर्ष की महत्वपूर्ण यात्रा और उसमें भी 17 वर्ष तक प्रधानमंत्री रहने का इतिहास सबको पता है। यदि हम इनके राजनीतिक सफर को उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ जोड़ें तो दोनों ने ही भारत में लगभग 32 वर्ष से अधिक तक शासन किया। केवल दो छोटे कालखंडों को एक, श्री लालबहादुर शास्त्री और दो, मोरारजी देसाई के अल्पकालीन कार्यकाल को छोड़कर। इनसे सरकार की सतत् चल रही नीतियों पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा।
शिक्षाविदों की दुनिया में यह एक सामान्य चलन है कि जीते जी, उनके योगदान और समालोचना का मूल्यांकन किया जाए। लेकिन यह गुंजाइश उस शासन तंत्र में कम होती है जिसके पास दरबारियों और चाटुकार बुद्धिजीवियों की एक लंबी फौज हो और उसे सत्ता में बैठे लोगों द्वारा गुणगान करने और तारीफ करने के लिए संरक्षण दिया जाए। कई बार यह चलन मध्यकाल की दरबारी संस्कृति तक भी पहुंच गया लगता है। कम्युनिस्ट सत्ता पूरी दुनिया में ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत करती है जहां नेता को कहीं गलत नहीं ठहराया जाता। यही विस्तार भारत में भी दिखायी पड़ता है खासकर जो नेता नेहरू परिवार से आया हो। भारत के राजनैतिक इतिहास में शीर्ष नेताओं के ठोस मूल्यांकन के ज्यादा प्रयास नहीं हुए किंतु अब नेताओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन होने लगा है।
नि:संदेह जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेताओं में एक थे और उन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए बहुत त्याग और संघर्ष किया। बाकी अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ वे और नेताजी सुभाषचंद्र बोस पूरे देश में घूमे थे। नेहरू ने अधिकांशत: यूरोप के सभी हिस्सों की यात्रा की थी और वे कई महत्वपूर्ण नेताओं से भी मिले थे। इन यात्राओं ने उन्हें कई आर्थिक प्रणालियों से परिचित करवाया। वे अर्थव्यवस्था की मार्क्सवादी और समाजवादी पद्धति को अपनाने के पक्षधर रहे। ऐसा भी नहीं है कि बिना किसी तर्क या वजन के कांग्रेस पार्टी में उनके सुझावों को स्वीकार किया गया हो। जब पं. नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने अपने आर्थिक मॉडल को क्रियान्वित करना शुरू कर दिया। इस कार्य के लिए उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा के सांख्यशास्त्री पी.सी. महालनोबिस की सहायता ली। जिन्होंने रूसी अर्थशास्त्री जी.ए. फील्डमैन के अनुकरण पर आर्थिक योजना और कार्यक्रम प्रस्तुत किया।
अपने समाजवादी कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के लिए जो पहला काम पं. नेहरू ने किया वो था सोवियत संघ के गोस्प्लान के आधार पर योजना आयोग की स्थापना और इसके अन्तर्गत पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत। बेशक नेहरू मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात करते रहे लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया ये सब चीजें एक प्रकार से एकाधिकार और कुल मिलाकर 'लाइसेंस कोटा परमिट राज' को बढ़ावा देने वाली ही सिद्ध हुईं। ऐसी विकासात्मक सोच का क्या लाभ जो देश के विकास को प्रोत्साहन ही न दे। यह व्यवस्था बहुत ही अव्यावहारिक थी। समाजवाद को अपनी योजनाओं के माध्यम से एक युग के रूप में स्थापित करने के लिए पं. नेहरू ने कई बार भारतीय संविधान में संशोधन किये। और सरकार को निजी औद्योगिक और कृषि परिसंपत्तियां अधिग्रहण करने की मनमानी ताकत प्रदान की।
1954 में नेहरू ने संसद के माध्यम से आर्थिक विकास के पूर्ण लक्ष्य प्राप्ति हेतु समाज का समाजवादी प्रारूप स्वीकारने की मुहिम को अमलीजामा पहनाया। अगले ही वर्ष 1955 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के सत्र में एक प्रस्ताव पारित करवाया जो अवादी प्रस्ताव- समाजवाद का मार्ग के नाम से प्रसिद्ध है। तब कहा गया-
'योजनाओं को इस दृष्टि से स्थापित किया जाना चाहिए कि वे देश को समाजवादी पद्धति से चलाएं जहां उत्पादन के प्रमुख साधन सामाजिक स्वामित्व के अधीन हों अथवा राष्ट्रीय पूंजी का वितरण, नियंत्रण, उत्पादन समान रूप से हो।' आर्थिक नीतियों का सम्मान करते हुए प्रस्ताव में कहा गया- 'इस सार्वजनिक क्षेत्र को प्रगतिशील दृष्टिकोण के साथ बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी- मुख्य रूप से प्राथमिक उद्योगों की स्थापना कर। इस प्रस्ताव में किसानों से खेती की जमीन लेने और स्टालिन की प्रणाली की तर्ज पर और भयावह रूप में निर्माण कार्यों के लिए प्रयोग करने की सोच थी।
प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि अवादी प्रस्ताव के पीछे और कोई नहीं नेहरू ही थे। बेशक एक बार जब इन प्रस्तावों का विरोध तेज और स्पष्ट दिखायी देने लगा तो नेहरू ने इस सारे प्रकरण से अपने हाथ झाड़ दिये। एक पत्रकार से साक्षात्कार में नेहरू ने कहा था-'मैं आपसे ये कह रहा हूं कि उन प्रस्तावों में मेरा बहुत कम दखल था। वास्तव में मैंने इन्हें संस्तुति तो दी थी लेकिन कांग्रेस के नये अध्यक्ष श्री यू.एन. देवार ने इस मामले में सारी पैरवी की।' बेशक लोगों का विश्वास यही था कि वे प्रस्ताव नेहरू की तरोताजा चीन यात्रा के परिणाम थे। अवादी प्रस्तावों को नेहरू ने आधे मन से नकारा क्योंकि इनके क्रियान्वयन से व्यावसायिक समुदाय और अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने वालों में विश्वास की भावना नहीं जग सकती थी। इस प्रकार अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया गया था।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह देखना है कि जो भी दिशा पकड़ी गयी या जो भी क्रियान्वयन हुआ वह अधपका और अधपचा ही कहा जा सकता है। 'समाजवादी प्रणाली' पर प्रत्येक व्यक्ति की अपनी राय थी। एक समाचारपत्र ने लिखा- 'इसकी व्याख्या करने के लिए कोई भी परेशान नहीं है। पं. नेहरू भी चतुराई के साथ इस पर अस्पष्ट ही रहे।' एक टिप्पणीकार ने कटु शब्दों में कहा- सामाजिक प्रणाली जमीनी स्तर पर ऐसी है जो पं. नेहरू के ही अनुकूल है। फिर चाहे इसके परिणाम कुछ भी क्यों न हों।
अब हम इस प्रश्न पर आते हैं कि किस प्रकार नेहरू ने अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाई और लगातार इसी रास्ते पर आगे बढ़ते गये। यह मुद्दा भी आता है कि क्या वे इतने शक्तिशाली थे कि कोई भी उनके विरोध का साहस नहीं कर सकता था। इसे समझने के लिए हमें एक बार फिर पीछे की ओर जाना पड़ेगा और देखना पड़ेगा कि नेहरू लोगों को, अपने साथियों को और अपने मित्रों को सुविधा अनुसार तंत्र से जोड़ते थे और जब वे संकट में होते थे तो थोड़ा भी समय नहीं लगाते थे सारा आरोप औरों के मत्थे मढ़ने में।
1930 के शुरुआत में सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सी. राजगोपालाचारी और कई अन्य नेता कांग्रेस में ताकतवर बनकर उभरे। उनकी उपस्थिति में अथवा विरोध के चलते बिना चर्चा के गांधीजी भी कोई निर्णय नहीं ले सकते थे, फिर जवाहरलाल नेहरू की तो मजाल ही क्या थी। स्वयं को असहाय मानते हुए उनको हराने के लिए नेहरू ने अपनी ही एक नयी तरकीब निकाली। उनके संरक्षण और मार्गदर्शन में मार्क्सवादियों और समाजवादियों के एक समूह ने कांग्रेस ई के साथ ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनायी। इसमें ज्यादातर मार्क्सवादी और समाजवादी- ईएमएस नम्बूदरीपाद, पी.सुंदरैया, ए.के. गोपालन, पी.रामामूर्ति और के.एम. अशरफ के साथ जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और नरेन्द्र देव इत्यादि नेता थे जो इसके सक्रिय सदस्य बने। नेहरू उनके मित्र, दार्शनिक और मार्गर्शक थे। इस कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने धीरे-धीरे कम्युनिस्टों को बढ़ावा दिया और कुछ ही वर्षों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य संख्या मात्र 24 से बढ़कर 25 हजार तक पहुंच गयी। खेल यह हुआ कि नेहरू की सहायता से मार्क्सवादियों और समाजवादियों ने कांग्रेस पर कब्जा कर लिया।
कांग्रेस के साथ ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन ने, इसके वैचारिक और आर्थिक कार्यक्रमों ने महात्मा गांधी के साथ सीधी झड़प का मौका दे दिया। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की नीतियां पूरी तरह से कांग्रेस और गांधीजी की स्थापित नीतियों के विपरीत थीं। जेपी, लोहिया और नरेन्द्रदेव जैसे कई समाजवादी नेताओं के साथ एक लंबे पत्र-व्यवहार की श्रृंखला के बाद भी और आखिर में जवाहरलाल नेहरू, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और उनकी नीतियों के विषय में भी गांधीजी असहज बने रहे। ज्यादातर नेता इस विषय में गांधीजी का त्यागपत्र चाहते थे लेकिन सरदार पटेल नहीं। उन्होंने गांधीजी को सलाह दी कि वे अपने निर्णय पर डटे रहें। कम्युनिस्टों और समाजवादियों को यदि रहना हो तो वे गांधीजी जैसे वटवृक्ष की छांव में रहें। इस प्रकार नेहरू के मित्रों की कांग्रेस कब्जाने की कोशिश को पलीता लग गया।
1936 में ही कांग्रेस के अध्यक्ष बने नेहरू ने देश की आर्थिक नीतियों को निर्धारित किया था। नेहरू ने हमेशा अर्थव्यवस्था के समाजवादी स्वरूप की ही वकालत की। नेहरू के इस हठ से गांधीजी बहुत आहत और दु:खी थे। उन्होंने कहा- 'मेरा जीवन भर का कार्य व्यर्थ हो गया। ब्रिटिश सरकार के अत्याचार और दमन में भी मेरे कार्य को इतनी क्षति नहीं पहुंची जितनी कि पं. जवाहरलाल नेहरू की नयी नीतियों ने पहुंचाई है।'
बेशक कांग्रेस कार्यसमिति में पूरी तरह गांधी दर्शन वाली आर्थिक सोच के लोग थे जिनकी जड़ों में भारतीयता विद्यमान थी। आर्थिक नीति पर पहली बैठक के अनुभव को पं. नेहरू ने अपने एक मित्र को इन शब्दों में बताया था- 'मैं पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया था और एक भी सदस्य मेरा समर्थन करने वाला नहीं था।' यही आखिरी सच नहीं था। समाजवादी रास्ते पर ज्यादा जोर देने वाले नेहरू के विरोध में केन्द्रीय कार्यसमिति के छह सदस्य- सरदार वल्लभभाई पटेल, सी. राजगोपालाचारी, डा. राजेन्द्र प्रसाद, जमनालाल बजाज और दो अन्य सदस्यों ने समिति से त्यागपत्र दे दिया। सभी की ओर से इस प्रकरण पर डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पं. नेहरू को लिखा था- 'पार्टी अध्यक्ष और समाजवादी कार्य समिति सदस्यों का समाजवाद पर ज्यादा जोर देना ठीक नहीं है। जबकि कांग्रेस पार्टी ने इसे स्वीकार नहीं किया है। यह देश के लिए भी ज्यादा हितकारी नहीं है इसलिए हमें राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को सफल बनाने के लिए देशहित और जनहित वाली प्रणाली को स्वीकारना चाहिए।' -प्रो. मक्खन लाल
लेखक वरिष्ठ इतिहासकार एवं विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में वरिष्ठ अध्येता हैं।
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