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अपनी बात : विरोधाभासों के सबक

by
Jan 4, 2016, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2016 11:13:04

विरोधाभासों की झलकियां तो दिखती रही हैं, किन्तु आश्चर्य नहीं यदि वर्ष 2015 को राजनीतिक-वैचारिक विरोधाभासों की बेशर्म नुमाइश के लिए याद किया जाए। यह एक ऐसा वर्ष था जब कथनी और करनी के अंतर सार्वजनिक खूंटियों पर टंगे दिखे।
भाजपानीत सरकार के आने के बाद से पाकिस्तान के साथ बातचीत का सिलसिला टूटने की टेर लगाने वाले संवाद के सूत्र फिर से जुड़ने पर तिलमिलाने लगे!
देश के लिए परिवार की कुर्बानियां गिनाने वाले सिर्फ 'परिवार' तक सिमटे नजर आए!
पूंजीवाद का विरोध करने वाले लोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व तोड़ने वाले एक स्वदेशी बाबा से उलझते दिखे!
और तो और… अराजकता को सीढ़ी बनाकर 'राजकाज' तक आने वालों की फिर से अराजकता फैलाने की मुद्रा भी देश ने देखी।
चौंक गए! विरोधाभासों में सच के उभर आने की ये घटनाएं दिलचस्प हैं।
लेकिन सोचिए, अपनी स्वतंत्रता के सातवें दशक में प्रवेश करने जा रहा यह देश क्या इन चौंकाऊ करतबों को उसी तरह लेता है जिस तरह इन्हें पेश करने वालों की मंशा रहती है?
शायद नहीं।
करीब-करीब सात दशक की हो चली लोकतंत्र की यात्रा में परिपक्वता के अनेक पड़ाव हैं। जनता की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं से अलग, 'कहना कुछ, करना कुछ और…' वाले दल, व्यक्ति और विचार बुहारे जा रहे हैं।
पूरे देश और हर समुदाय की बात करने वाला सबसे पुराना दल सिर्फ 'एक परिवार' को ढोने को लाचार है, यह बात लोग समझ चुके हैं। छह दशक से ज्यादा राज करने वालों का चार दर्जन से भी कम सीटों पर सिमट जाना क्या इस बात का साक्ष्य नहीं है कि विरोधाभासी बातें करने वालों को सबक सिखाना इस देश की जनता जानती है? लेकिन जिनके लिए सबक है वे इसे सीखने को राजी नहीं दिखते।
संसद चले …मंजूर नहीं। पाकिस्तान से बात हो, बर्दाश्त नहीं। ऐसे में…पार्टी की पत्रिका परिवार को ही सत्य के दर्शन करा दे तो…!!
…कहीं ऐसा तो नहीं कि परिवार का खूंटा पार्टी में ही कुछ लोगों को खटकने लगा?
इसके बाद बारी प्रगतिशील चौकडि़यों की।
जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पाकिस्तानी गायकों से लेकर नक्सली नेता और समर्थकों तक को नहीं रोका गया वहां अंतरराष्ट्रीय वेदांत संगोष्ठी में अपने ही देश के एक 'बाबा' को इसलिए रोका गया क्योंकि बाबा की जगाई अलख से 'क्रांतिकारियों' को डर लगता है?
वामपंथ की बयार दुनियाभर में बही लेकिन थम गई। क्यों? इसका कारण है, विचार की यही नकारात्मकता और विरोधाभास। प्रगतिशीलों का देशप्रेम वहीं तक सीमित रहा है जहां तक वह पश्चिम के विरोध से प्रेरित होता हो। हमलावर चीन के स्वागत में फूलमाला लेकर खड़े होने का दम भरने वाले वामपंथियों को न तो भारत का परमाणु शक्ति संपन्न बनना रास आया और न ही 'मेक इन इंडिया'।  वामपंथी जो भी कुछ चाहते हैं, कहते, सुनते हैं उसे मित्रोखिन की डायरियों के बाहर देख पाना मुश्किल है। कामरेड, देश बुरा नहीं होता, देशप्रेमी होना बुरी बात नहीं है…संस्कार, समृद्धि से संत-महात्माओं तक, देश जिसे पसंद करता है वह हर चीज आपको खलती क्यों है?
अब बात अराजक होने पर तुले 'राजा' की।
अधिकार न होने पर भी जांच बैठाने की बात हो या अपने अलावा सबको बेईमान ठहराने की अदा। राज्यपाल से भिड़ जाने की बेताबी हो या अफसरों को नाकारा ठहराने की जिद… यह जिद जनता को खलने लगी है। सालभर भी तो नहीं हुआ जब लोगों को लगा था कि उन्होंने राजनीतिक क्रांति की मशाल जला दी है। कुछ ही महीनों में उम्मीदों के दीए बुझने लगे। ठिठकी-सहमी व्यवस्था और अराजक आक्रोश से भरे 'राजा' की बातें अब चुभती हैं। व्यवस्था बदलने का दम भरने वाला, खुद इतना बदल जाएगा कि फाइलों को चलने न दे, अफसरों को हिलने न दे! लोकतंत्र के हर कदम पर जनता विरोधाभास के आवरण गिरते देख रही है। सब करतबों के बीच अपने सबक समेटती चल       रही है।
सही वक्त आने पर गलत को बुहार दिया गया है, आगे भी बुहार ही दिया जाएगा।

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