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साख पर सवाल

by
Dec 7, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2015 11:09:28

अंक संदर्भ- 8 नवम्बर, 2015
आवरण कथा 'दरार का गढ़' से स्पष्ट हो गया है कि जेएनयू देशविरोधी और अलगाववादी तत्वों का केन्द्र बनता जा रहा है। देश की गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा इस विश्वविद्यालय को दिया जाता है। लेकिन इसके एवज में यहां पर देश विरोधी कार्य होते हैं। देश के अंदर विद्वेष फैलाने, समाज को आपस में लड़ाने, ईसाई मिशनरियों के कार्यों को आगे बढ़ाने का षड्यंत्र यहां पर खुलेआम रचा जाता है। बड़ा आश्चर्यजनक है कि राजधानी में स्थित इस विश्वविद्यालय में ऐसे देशविरोधी कार्य होते हैं और अपने को प्रगतिशील कहने वाले लोगों के मुंह सिले रहते हैं।
—बी.एल.सचदेवा, आईएनए बाजार (नई दिल्ली)

ङ्म    वामपंथी जिस साम्यवाद की बात करते हैं वह पश्चिम बंगाल, केरल और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को छोड़कर गायब हो चुका है। जेएनयू की हकीकत आने के बाद वामपंथियों का रुदन शुरू हो गया और इसे झुठलाने के लिए उन्होंने सभी तरकीबें अपनाइंर्। जिस परिसर में देश के विकास के लिए नए-नए शोध होने चाहिए उस स्थान पर देश तोड़ने की बात की जाती है। —चन्द्रशेखर शांडिल्य, रोहिणी (नई दिल्ली)

ङ्म    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की हकीकत अब देश के सामने आ चुकी है। इस रपट के आने के बाद वामपंथी बुद्धिजीवियों को कुछ सूझ नहीं रहा है। वे इसे काटने के लिए कुतकोेर्ें को तर्क देकर साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन तथ्य देश के सामने हैं, जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता है। अभी तक परिसर के अंदर जो चलता था, उसे देश नहीं जान पाता था। यहां तक कि देश में नक्सल समस्या से लेकर कश्मीर में अलगावादी आवाज को यहीं से ऊर्जा भी मिलती है।
                  —राममोहन चन्द्रवंशी, टिमरनी, हरदा (म.प्र.)
साजिश का पर्दाफाश
सर्वोच्च न्यायालय ने चेतना शून्य अवस्था को प्राप्त पूर्व रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडीस पर लगे ताबूत घोटाले के कलंक को बेपर्दा करके कांग्रेस और कम्युनिस्ट दलों की साजिश को उजागर कर दिया। शायद इसी घोटाले के आरोप के बाद से जॉर्ज फर्नांडीज टूट गए। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कांग्रेस को देश से मांफी मांगनी चाहिए। रक्षामंत्री के रूप में जार्ज फर्नांडीस की सेवा को पुरस्कृत करने के स्थान पर ताबूत घोटाले के आरोप लगाकर उन्हें तिरस्कृत करने का जो षड्यंत्र रचा गया,उसकी पीड़ा देश ने महसूस की। लेकिन इस फैसले के बाद कांग्रेस की बोलती बंद है। बोलती बंद भी क्यों न हो, देश के सामने उसके षड्यंत्र का खुलासा जो हो चुका है।
—हरिओम जोशी, चतुर्वेदी नगर, भिण्ड (म.प्र.)
कांग्रेस की हकीकत
नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के कार्यकाल को उठाकर देख लें तो पता चल जायेगा कि इस पार्टी ने देश के साथ न्याय किया या अन्याय। संप्रग के दस वषोंर्ं के कार्यकाल को ही देख लें। इस कार्यकाल में देश ने देखा कि किस प्रकार भ्रष्टाचार बढ़ गया था। पर डेढ़ वर्ष पूर्ण कर चुकी मोदी सरकार पर अभी तक भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है तो कांग्रेसी बौखलाएं हुए हैं। इसी बौखलाहट के कारण कोई मुद्दा न मिलने पर असहिष्णुता के बहाने वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन वे समझते हैं कि देश उनके कारनामों को जानता नहीं है, तो यह गलत है।
—आनंद मोहन भटनागर, लखनऊ (उ.प्र.)  
गौरवशाली इतिहास
भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों ने प्राचीन काल से विश्व के जनमानस को प्रभावित किया है। भारत के उस गौरवशाली अतीत को विस्मृत नहीं किया जा सकता। आज सम्पूर्ण विश्व भारतीय चिंतन पद्धति से प्रेरणा लेकर विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति के सोपान चढ़ रहा है। आधुनिक युग में भी भौतिकवादी वातावरण में पले-बढ़े विश्व के अनेक नागरिकों द्वारा भारतीय जीवन पद्धति में स्वयं को ढाल लेने से पुन: भारतीय अध्यात्मवाद की वैश्विक छाप का परिचय मिलता है।     
—विक्रम सिंह, घरौड़, करनाल (हरियाणा)
राजनीति का विकृत रूप
भारत की राजनीति मुख्यत: दो मुद्दों पर चलती हैं, पहला, अल्पसंख्यकवाद और दूसरा जाति-पांति। बिहार चुनाव ने इस बात को सिद्ध भी कर दिया है। जैसे ही नेता चुनाव नजदीक आते देखते हैं वैसे इन मुद्दों को उठाना शुरू कर देते हैं। विकासवाद की अवधारणा  से आज के नेताओं को कोई लेना-देना नहीं। वह जानते हैं कि किन  मुद्दों को उठाकर वह आसानी के साथ एक बड़े वोट बैंक को अपना बना सकते हैं और होता भी ऐसा ही कुछ है। जैसे ही आरक्षण, जाति-पांति और अल्पसंख्यकवाद की बात आती है ये लोग एकजुट हो जाते हैं। तब इन्हें राष्ट्र के विकास से कोई मतलब नहीं रह जाता ।
                                    —विमल नारायण, पनकी, कानपुर (उ.प्र.)
ङ्म   बिहार चुनाव में उन सभी कुरीतियों को नेताओं ने खूब जोरशोर से उछाला ही नहीं बल्कि उन कुरीतियों के दम पर वोट की फसल भी काटी, जिन्हें हटाने की वे पुरजोर वकालत करते नहीं थकते थे। लालू-नीतीश एवं अन्य सेकुलर नेताओं ने मीडिया में ही नहीं लोेगों के बीच जा-जाकर इन कुरीतियों का जहर घोला। असल में ये सभी सेकुलर नेता चाहते ही हैं कि बिहार पिछड़ा रहे और यहां के लोग विकास न कर सकें। इसीलिए वे उन्हें इन कुरीतियों में फंसे रहने देना चाहते हैं।  बिहार चुनाव में वे जो चाहते थे उनकी मंशा भी पूरी हो गई।
—अरविंद साहू, पटना (बिहार)
तिलमिलाहट
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का राग अलापकर जिस प्रकार देश की संस्कृति के विरुद्ध षड्यंत्र रचा जा रहा है वह बिल्कुल उचित नहीं है। कुछ लेखकों, कलाकारों और कथित बुद्धिजीवियों का एक झुंड प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को सहन नहीं कर पा रहा है। उनको लगता है कि प्रधानमंत्री अगर इसी तरह से काम करते रहे तो हम लोगों का सफाया हो जायेगा और अभी तक जो दुकानें चल रही थीं वे भी बंद हो जाएंगी।
    —रमेश कुमार मिश्र, कान्दीपुर, अंबेडकरनगर (उ.प्र.)
                             असहिष्णु कौन?
बिहार चुनाव के ठीक पूर्व देश के अनेक बुद्धिजीवियों, विभिन्न सेकुलर दलों, सेकुलर नेताओं, साहित्यकारों तथा मीडिया जगत के कुछ लोगों ने एक नवीन ज्ञान के प्रकाश से आलोकित किया कि हम भारतीय कितने 'असहिष्णु' हो चले हैं। पहला, देश ने नरेन्द्र मोदी के हाथों बागडोर सौंप दी, जो बहुत ही गलत हुआ। दूसरी, असहिष्णुता, देश ने मोहम्मद बिन कासिम के समय से चली आ रही एकतरफा कत्लेआम को बर्दाश्त करते रहने की नृशंस परम्परा को सहन करने से इंकार कर दिया। निश्चित रूप से हमें 'सहिष्णु' होना चाहिए क्योंकि यह 'सहिष्णुता' ही तो हमारी महान पहचान है। हमें अपने धार्मिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं, देव मूर्तियोंर् को नष्ट-भ्रष्ट होने देना चाहिए। हमें अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाना चाहिए, यह सहिष्णुता है। करोड़ों लोगों की आस्था की प्रतीक गोमाता को निर्ममतापूर्वक कटने देना चाहिए, यह सहिष्णुता है। लेकिन कुछ दिन से इन 'बुतपरस्त काफिरो' ने इतनी हिमाकत कर दी और इसका प्रतिकार किया, बस उसी दिन से हम 'असहिष्णु' हो जाने की जुर्रत कर बैठे।
—प्रतिमान शुक्ल, नैनी, इलाहाबाद (उ.प्र.)
़विद्यालय में कट गयी, राहुल जी की नाक
पहले ही कुछ थी नहीं, मिटी शेष भी धाक।
कटी नाक
मिटी शेष भी धाक, प्रश्न इस तरह उठाया
सभी लड़कियों ने उनको शीशा दिखलाया।
कह 'प्रशांत' अच्छा होता लिखकर ले जाते
चौराहे पर नहीं इस तरह हंसी कराते॥
                                             -प्रशांत

पुरस्कृत पत्र
पैसे के दम पर कन्वर्जन
वर्तमान समय में भारत में करोड़ों-अरबों रुपये विदेशों से सिर्फ कन्वर्जन के लिए आ रहा है। देश के पूर्वोत्तर सहित अन्य वनवासी क्षेत्रों में इस पैसे से ईसाई मिशनरियां गरीब,असहाय और पीडि़त तबके को अपना निशाना बनाती हैं और इनका दु:ख दूर करने के नाम पर बरगलाकर चुपके से उनका कन्वर्जन कर लेती हैं। अकेले ईसाई मिशनरियां ही नहीं, अरब देशों से भी हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए धन और मौलवी भेजे जा रहे हैं। यानी भारत में कन्वर्जन करने के लिए ईसाई मिशनरियां और इस्लाम दोनों संयुक्त रूप से छद्म युद्ध छेड़े हुए हैं।
भील, संथाल, वंचित सभी इनके निशाने पर हैं और किसी न किसी प्रकार लालच देकर जैसे- भयंकर रोग के ईलाज का लालच, मनगढ़त कहानियां गढ़कर, डरा-धमकाकर या फिर नौकरी देकर इनका कन्वर्जन करवा लेती हैं। मिशनरियां वनवासियों और कम पढ़े-लिखे लोगों को हिन्दू धर्म के बारे में गलत और मनगढ़त बातें बताती हैं, घरों में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्ति लगाने व गो की पूजा और सेवा करने से भी मना करती हैं। इसी प्रकार कई मुसलमान युवक हिन्दू नाम बताकर या छद्म रूप में  रहकर छल-कपट द्वारा हिन्दू युवतियों से प्रेम विवाह कर लेते हैं,जिसके बाद उनका मत परिवर्तन करा देते हैं। इस सबके पीछे कुछ कारण हैं,जो कन्वर्जन जैसे कार्य को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारे अपने ही समाज में ऊंच-नीच और छुआछूत को बढ़ावा दिया जाता है।
वंचित समाज को सम्मान के स्थान पर कुछ लोगों द्वारा अपमानित किया जाता है। अपमान सहते-सहते यह समाज हिन्दू धर्म से कटने लगता है। और उसी समय पहले से घात लगाए बैठे मिशनरी और मौलवी इनको अपनी ओर आकर्षित करते हैं और इनके दु:ख हरने और समाज में उचित सम्मान देने का वादा करते हैं, जिससे यह खुश हो जाते हैं। बस यहीं से कन्वर्जन का खेल शुरू हो जाता है। और हिन्दुओं को इस समस्या से स्वयं निपटना होगा। अपने समाज में ऊंच-नीच और छुआ-छूत जैसे भेदभावों को समाप्त करना होगा,तभी कन्वर्जन जैसे कार्य पर लगाम लगेगी।                                                           
                        -कमलेश कुमार ओझा   
 14/ 226, दक्षिणपुरी एक्सटेंशन
 (नई दिल्ली)

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