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साहित्यकार या सौदागर!

by
Nov 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Nov 2015 15:33:01

आवरण कथा 'कहां बचा सम्मान!' से प्रतीत होता है कि देश में बढ़ती असहिष्णुता के नाम पर जो साहित्यकार पुरस्कार वापस कर रहे हैं, असल में वे एक सोची समझी रणनीति के तहत ऐसा कर रहे हैं। इन साहित्यकारों को वर्तमान सरकार के कार्य पच नहीं रहे हैं और जब इनका कोई बस नहीं चल रहा है तो मीडिया में सुर्खियां बटोरने के लिए पुरस्कार वापसी का ढोंग कर रहे हैं। यह सब मोदी सरकार को विश्व स्तर पर बदनाम करने की एक कुपित चाल है। जितने भी साहित्यकारों ने पुरस्कार वापस किए हैं वे कहीं न कहीं कांग्रेस और सेकुलर दलों के पिछलग्गू हैं।  
—अरुण मित्र, 324, राम नगर (दिल्ली)

ङ्म साहित्य समाज का दर्पण होता है परंतु साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों ने इसे साजिश का दर्पण बना दिया है। इन साहित्यकारों ने न सिर्फ अपने साहित्यिक हुनर का अपमान किया है बल्कि राष्ट्र के ऊपर एक धब्बा लगाने का असफल प्रयास किया है। राज्य के मुद्दों और उनकी लचर कार्यशैली का ठीकरा केन्द्र की मोदी सरकार पर फोड़ना, यह षड्यंत्रपूर्ण सियासत नहीं तो क्या है? सिफारिशों के सहारे अपनी साहित्यिक दुकानदारी चलाने वालों ने ऐसा लगता है कि राष्ट्र को बदनाम करने की ठान ली है, क्योंकि उनकी दुकानदारी जो केन्द्र सरकार ने बंद कर रखी है।
—हरिओम जोशी, चतुर्वेदी नगर, भिण्ड (म.प्र.)
–    इस समय देश में कुछ साहित्यकारों, लेखकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों और वैज्ञानिकों ने तमगे वापसी का अभियान चला रखा है। वामपंथी विचारधारा वाले ये कथित बौद्धिक लोग वर्षों से सम्मान, यश और धन उपभोग करने के बाद आज देश में असहिष्णुता का बेसुरा राग अलाप रहे हैं। एक समाचार चैनल पर मुनव्वर राणा साहित्यकार बनाम सरकार की बहस में ऐसे तर्क प्रस्तुत कर रहे थे, उससे यही लगता था कि वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। असल में उनका उद्देश्य समाज में उथल-पुथल मचाना है।
—गौरी शंकर, आदिल नगर, विकास नगर, लखनऊ (उ.प्र.)
    
*    सेकुलर लेखकों द्वारा वर्तमान मंे जो काम किया जा रहा है वह फैसला गलत दिशा में उन्हें ले जा रहा है। मान-सम्मान व राष्ट्रीय पुरस्कार राष्ट्र का सम्मान होता है लेकिन वे यह सम्मान पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर लौटा रहे हैं। यह देश के लिए दुखद है। सिर्फ सुर्खियों में रहने के लिए वे देश में विष घोल रहे हैं। असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठाना ठीक है, लेकिन राजनीतिक नाटक ठीक नहीं है।
—हरिहर सिंह चौहान, जंबरीबाग नसिया, इन्द्रौर (म.प्र.)

*    कुछ सेकुलर साहित्यकार देश में अशान्ति का महौल बनाकर विश्व में भारत की छवि को गंदा करना चाहते हैं। इसलिए असहिष्णुता की आड़ का सहारा ले रहे हैं। वास्तव में यह सब अराजकतत्व देश का विभाजन कराकर साम्प्रदायिकता का जहर फैलाकर आपसी सौहार्द बिगाड़ना चाहते हैं।
—अश्वनी जागड़ा, महम, रोहतक (हरियाणा)

*    साहित्यकार दादरी  घटना की आड़ लेकर जिस तरह से पुरस्कार वापस कर रहे हैं उससे मन में कई सवाल खड़े होते हैं। साहित्यकार यदि दादरी घटना पर यह सब कर रहे हैं तो बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश में होने वाले दंगों पर वे क्यों अपना मुंह सिले रहे? क्या वह असहिष्णुता नहीं थी? असल में यह सभी साहित्यकार इन पुरस्कारों के हकदार ही नहीं थे। इन साहित्यकारों और लेखकों ने राजनीतिज्ञों की चापलूसी और जी-हुजूरी करके ये पुरस्कार पा लिए। इसलिए उनके मन में इस सम्मान की कोई अहमियत नहीं है। यदि यही पुरस्कार उनको साहित्यिक जगत में किए गए योगदान के बाद दिया जाता तो उनके मन में इस सम्मान के प्रति आस्था होती और वे पुरस्कार नहीं लौटाते। देश नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में प्रगति के नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है तो यह सब सेकुलरों को अच्छा नहीं लग रहा है।
—उदय कमल मिश्र, सीधी (म.प्र.)
*    कुछ समय से देश में साहित्यिक सम्मान लौटाने की एक तरह से होड़ लगी है। यह सब इसलिए हो रहा है कि कि देश के पढ़े-लिखे लोगों को बरगलाया जा सके। लेकिन इनकी हकीकत यह है कि पहले इन लेखकों ने सम्मान पाने के लिए भारत, हिन्दुत्व, सामाजिक सद्भाव, सनातन परम्परा के विरुद्ध अर्थ का अनर्थ लिखकर राजनीतिज्ञों की चरण वंदना करके अपने प्रगतिशील होने का प्रमाण दिया। तो समझा जा सकता है कि यह सब क्या करंेगे। इसलिए इन लेखकों और साहित्यकारों के विषय में गंभीर होने की जरूरत नहीं है।
—ओमहरित, फागी,जयपुर (राज.)

*    जिन साहित्यकारों ने सम्मान वापस किए हैं, वे सब एक चाल का हिस्सा हैं। पहली सचाई तो यह है कि अब तक की सरकारों ने साहित्य अकादमी में पर्दे के पीछे से साम्यवादी विचारधारा वाले तथा भारतीय संस्कृति विरोधी विचार धारा वाले साहित्यकारों को ही प्रमुखता दी और इन्हीं को सम्मानित किया गया। इस बार केन्द्र में जिस विचारधारा की सरकार आई है इससे सभी सेकुलर पहले से ही खीजे हुए हैं और उसी खीज को यह समय-समय व्यक्त भी करते हैं। एक व्यक्ति की हत्या उन्हें राष्ट्रीय मूल्यों की हत्या लग रही है। लेकिन देश मे आएदिन विभिन्न स्थानों पर हिन्दुओं का उत्पीड़न और उनके साथ होती घटनाओं पर उन्हें कोई ठेस नहीं लगती। पंथनिरपेक्षता की आड़ में ये साहित्यकार प्राचीन भारतीय संस्कृति को बदनाम करके एक षड्यंत्र कर रहे हैं।
—आचार्य मायाराम पतंग, पंचशील गार्डन (दिल्ली)

*    ये वे लेखक और साहित्यकार हैं, जो सेकुलर दलों द्वारा पोषित हैं। उन्हीं के निर्देश पर इनकी कलम चलती है। जैसा ये चाहते हैं लेखक और साहित्यकार वही लिखते हैं। केन्द्र में जब तक संप्रग की सरकार थी तब तक इनकी दुकानें चलती रहीं। पर अब इनकी दुकानों के बंद होने की नौबत आ गई है। इसलिए यह सब बौखलाए हुए हैं।
—परेश कुमार, (चडीगढ़)

*    जिस घटना को लेकर वे सम्मान लौटा रहे हैं उनसे पूछना चाहता हूं कि समाज में ऐसी घटनाएं कब नहीं घटीं?  किस सरकार में घृणा फैलाने वाले कार्य नहीं हुए? घृणा फैलाने वालों का यह हाल है कि देश में होती हर घटना को वह केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार से जोड़ लेते हैं और शोर मचाना शुरू कर देते हैं। उन्हें इस समय हर घटना और कृत्य अन्यायपूर्ण लग रहा है। लेकिन इससे पूर्व हुई घटनाओं पर कुछ नहीं बोलते, ऐसा क्यों?   
-उमेदुलाल, ग्राम पटूड़ी, टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड)

*    दादरी घटना को लेकर पुरस्कार वापसी का नाटक सिद्ध करता है कि तमाम साहित्कार न तो निष्पक्ष हैं और न ही देश की समझ उनको है। पूर्वाग्रह और कुंठित मानसिकता का प्रमाण यह है कि वे जिस सरकार का विरोध कर रहे हैं, उस सरकार को इस घटना से कोई मतलब ही नहीं है। दादरी उत्तर प्रदेश में है। तो कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की हुई। लेकिन इसके बाद भी वह तकोंर् के साथ कुतर्क प्रस्तुत कर रहे हैं।
-मनोहर मंजुल
पिपल्या बुजुर्ग, प.निमाड (म.प्र.)
*    साहित्यकारों की समान वापसी का खेल एक तरीके से साहित्यिक आतंकवाद है। चुनावी राजनीति में पराजित हो चुके सेकुलर दलों की यह बी टीम है, जो संगठित होकर उनके विचारों को आगे बढ़ा रही है। आज पूरा देश इन सभी साहित्यकार व लेखकों से यह पूछ रहा है कि क्या आज से पहले देश में हिंसा, आतंकवाद व आगजनी का दौर नहीं था। इन लेखकों को यह अच्छी तरह से पता होना चाहिए कि वे जिन लोगों के कहने पर इस समय यह तमगा वापस कर रहे हैं, उनके अपने शासनकाल में ही सर्वाधिक दंगे हुए हैं।     -मृत्युंजय दीक्षित
 फतेहगंज,लखनऊ (उ.प्र.)

 पुरस्कृत पत्र
 घुसपैठ एक गंभीर संकट
असम और पश्चिम बंगाल में बंगलादेशी घुसपैठ निरंतर जारी है। जिस तरह से मुस्लिम परिवार नियोजन को ताक पर रखकर दु्रतगति से हम पांच, हमारे पच्चीस का 'फार्मूला' अपना रहे हैं, उससे तो यही प्रतीत होता कि आने वाले 3-4 दशक में हिन्दू इन राज्यांे में अल्पसंख्यक और मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाएंगे। इन राज्यों के स्थानीय निवासियों द्वारा लगातार होती घुसपैठ पर विरोध किया जाता है, लेकिन कोई भी इनकी नहीं सुनता। उल्टे कुछ नेता तो इन घुसपैठियों को बसाने का पूरा इंतजाम करते हैं। उन्हें राजनीतिक संरक्षण में सभी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। यहां तक कि स्थानीय निवासियों की जमीनों को भी कब्जाने की कोशिश की जाती है। असल में राजनीतिज्ञ इनको इसलिए पालते और पोसते हैं क्योंकि ये सभी वोटबैंक होते हैं। पहले ये इनकी मदद करते हैं और बाद में वे इनकी मदद करके चुनाव में वोट करते हैं। इसके बाद जब इनका अपना प्रत्याशी विजय हो जाता है तो उनको राजनीतिक संरक्षण भी मिलने लगता है। आज देश के अनेक राज्यों में इनकी घुसपैठ से स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। यहां तक कि दिल्ली जैसे स्थानों पर भी यह बस चुके हैं। जहां-जहां यह जनसंख्या में ज्यादा हो चुके हैं वहां जब भी कोई इनका विरोध करता है तो यह मार-काट पर उतर आते हैं। बंगाल और असम इसका उदाहरण है। ऐसा नहीं है घुसपैठ के विषय में कोई नहीं जानता है। विभिन्न रपटें और शासन-प्रशासन से जुड़े रहे लोगों द्वारा इस पर चिंता भी व्यक्ति की गई। पर इस गंभीर विषय पर किसी का भी ध्यान नहीं गया। पर अब बिना सोचे-समझे इनकी घुसपैठ पर रोक लगानी चाहिए और जो घुसपैठिये पहले से सीमावर्ती क्षेत्रों सहित अन्य राज्यों में रह रहे हैं, उन्हें चिन्हित करके देश से निकालना चाहिए।
             -आनंद मोहन भटनागर 13,राजाजीपुरम, लखनऊ (उ.प्र.)

भारी विध्वंस
किया मंदिरों का वहां, था भारी विध्वंस
उसे कृष्ण बतला रहे, था वो लेकिन कंस।
था वो लेकिन कंस, नाम टीपू का जानो
मतान्तर की उसकी क्रूर मुहिम पहचानो।
कह 'प्रशांत' महिमामंडन कर क्या पाएंगे
सबसे बड़े सेक्युलर शायद कहलाएंगे॥
-प्रशांत  

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