|
अशोक सिंहल। यह सिर्फ एक नाम भर नहीं था। न। अशोक सिंहल इस देश की अंतरात्मा में रचा-बसा, गुंथा-मथा व्यक्तित्व था। ऐसा दिव्य-सौम्य व्यक्तित्व जिसकी रग-रग में हिन्दू किंवा सनातन संस्कृति के मूल्य प्रवाहित होते थे। अशोक जी त्याग गए अपनी नश्वर देह को। कारण बना रोग, आयु नहीं। क्योंकि आयु के प्रभाव, लगातार काम की थकन से परे उनको सदा सक्रिय ही देखा। ऐसी सक्रियता के लिए कितनी ऊर्जा चाहिए? इस ऊर्जा को स्रोत क्या था? अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, परिवारों, संगठनों को सहज ही सांस्कृतिक चेतना से प्रकाशित कर देने वाली इस ज्योति का आधार था संस्कारित, संकल्पित, सहज जीवन।
यह सामाजिक पुनर्जागरण के उस पुरोधा का सतत् तप ही तो है, जिसने विश्वभर के हिन्दुओं के, इस देश के, मान-अभिमान के संरक्षण-संवर्धन के काम का ऐसा विस्तार किया है। सबको साथ लेकर चलने और सबकी दु:ख-तकलीफ को अपना मानकर उसका परिष्कार करने के जो सूत्र वे समाज और संगठन को थमा गए हैं, उन्हें साधते चलना होगा।
अशोक जी का जन्म भले उत्तर प्रदेश के आगरा नगर में हुआ था, लेकिन व्यक्तित्व उत्तरोत्तर ऐसा बनता गया कि वे सिर्फ आगरा, प्रयाग या उत्तर प्रदेश के ही नहीं रहे, वे पूरे हिन्दुस्थान के हो गए। और अपने कार्य के प्रति समर्पण, संगठन के काम में सत्यनिष्ठा से, प्रामाणिकता से खुद को खपा देने का प्रण, हिन्दू समाज के प्रेम और रामलला के आशीष से पूरे जगत के ही हो गए थे अशोक जी।
बचपन से मेधा के धनी रहे अशोक जी ने ग्रंथों के पारायण के अलावा संत-साथ भी किया था। उसी का प्रताप था कि किशोरावस्था से ही मन में जैसे कुछ ठान लिया था, जीवन की डगर के बारे में, समाज के उत्थान और गौरव के बारे में, समाज के खोए मान-सम्मान को पुन: दिलाने के बारे में, हिन्दू स्वाभिमान को सर्वोपरि रखकर देश के भविष्य की चिंता करने के बारे में। तभी तो 1950 में काशी विश्वविद्यालय से मैटेलर्जी में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही, अविवाहित रहने का संकल्प लेकर रा. स्व. संघ के प्रचारक के रूप में निकल पड़े। भाऊराव जी और रज्जू भैया का पारस स्पर्श जो प्राप्त हो चुका था। संघ की ओर से पहली जिम्मेदारी कानपुर के विभाग प्रचारक के नाते मिली। बखूबी निभाई जिम्मेदारी। देखते ही देखते कानपुर में हिन्दू समाज के अनेक परिवारों से उनकेआत्मीय संबंध बने। अशोक जी की शैली अत्यंत विनम्र पर कर्म में दृढ़ स्वयंसेवक की बनी। सबके सुख-दु:ख की चिंता करना स्वाभाविक गुण होता ही है एक कर्तव्यनिष्ठ स्वयंसेवक में। कानपुर से वे प्रदेश के अन्य स्थानों पर प्रचारक के नाते भेजे गए। हर जगह अशोक जी का एक निकट परिकर बनता गया।
आपातकाल के बाद दिल्ली के प्रांत प्रचारक के नाते उन्होंने शाखाओं की संख्या बढ़ाई, उनमें आसेतु हिमाचल संपूर्ण देश के चिंतन की परंपरा शुरू की। अशोक जी से विधि को और कुछ बड़ा काम कराना था। सूत्र जुड़ते गए। विश्व हिन्दू परिषद का कार्य विस्तार चाहता था, संघ ने अशोक जी को इसके लिए दिया। 1982 की बात है यह। अशोक जी ने निरंतर प्रवास करते हुए परिषद के कार्य को एक नई गति प्रदान की। देश-विदेश में परिषद के कार्यों को विस्तार मिलना ही था। हिन्दू सम्मेलनों के माध्यम से समाज एकजुट होने लगा था। उनके इस विलक्षण कार्य का प्रकट रूप 4 अप्रैल 1991 को नई दिल्ली के बोट क्लब मैदान पर दिखा, जब 25 लाख भारतवासियों ने उनके आह्वान पर बोट क्लब पर एकत्र होकर रामलला के भव्य मंदिर निर्माण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने का संकल्प लिया था। बाबरी ढांचे के ढहने के बाद रामलला को तम्बू तले से भव्य मंदिर में विराजमान कराने का संकल्प आकार लेने लगा। देशभर से रामशिलाएं अयोध्या पहुंचने लगीं। पत्थरों को तराशा जाने लगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब विवाद का पटाक्षेप करते हुए श्रीराम जन्मभूमि को ही रामजन्म स्थान बता दिया तो देश-विदेश के सैकड़ों करोड़ हिन्दुओं का आनन्द देखते ही बना था। अड़चनें डालने वाले स्तब्ध रह गए। इस सारे आंदोलन को अपने कुशल संचालन से फलदायी सिद्ध करके दिखाना अशोक जी जैसे रामभक्त, तपोनिष्ठ संत सम व्यक्तित्व के ही बस की बात थी।
कितना लिखा, बताया जाए अशोक जी के बारे में। सब थोड़ा ही रहेगा। ऐसे विराट महामना के बारे में लिखने को शब्द सागर भी थोड़ा पड़ जाएगा।
वे अपने आपमें एक युग थे। इसलिए उनका विदा होना एक युग के अंत होने जैसा ही है। परन्तु डॉ. हेडगेवार पथ के कर्तव्यनिष्ठ पथिक के नाते उन्होंने संगठन गढ़ने का जो प्रेरक उदाहरण सामने रखा है, उसका सतत् अवलंबन हो, यही हिन्दू समाज के लिए हितकारी होगा। अशोक जी के जाने के बाद शोक में डूबे रहना कदापि उचित नहीं होगा, बल्कि उनके स्वप्न के अनुसार भारत को सही मायनों में हिन्दुस्थान के नाते विश्व में उसका उचित स्थान दिलाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि सम होगा।
टिप्पणियाँ