मजहबी आतंक- बहाने छोडि़ए, सच बोलिए
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मजहबी आतंक- बहाने छोडि़ए, सच बोलिए

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Nov 23, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 23 Nov 2015 14:22:14

चोट लगती है, तो दर्द सभी को होता है। लेकिन परिपक्व व्यक्ति इस बात का चिंतन करता है कि चोट क्यों लगी। गत 13 नवम्बर को पेरिस में बड़ा जिहादी हमला हुआ, जिसमें 128 नागरिक मारे गए और साढ़े तीन सौ लगभग घायल हुए।  इस साल फ्रांस में हुआ ये छठवां जिहादी हमला है। वैसे साल 2015 में सारी दुनिया में 70 के लगभग जिहादी हमले हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या में जनहानि हुई है।  इस गिनती में इस्लामिक स्टेट और उसके सहयोगी अथवा प्रतिस्पर्धी स्थानीय जिहादी तंजीमों द्वारा रोज-रोज किये जा रहे कुकर्म शामिल नहीं हैं। इसमें मार दिए गए हजारों यहूदी-शियाओं-यजीदियों को शामिल नहीं किया गया है। इस गिनती में  इस्लामिक स्टेट के दरिंदों के हरम में यातनाएं भुगत रहीं और मारी जा रहीं 10,000 यजीदी बच्चियों-लड़कियों-महिलाओं को भी नहीं जोड़ा गया है। और न ही नाइजीरिया के बोको हराम द्वारा अगवा की गयीं सैकड़ों स्कूली बच्चियों को शामिल किया गया है। इसमें माली, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में मिट्टी में मिला दी गयीं हजारों साल पुरानी, पुरातात्विक और सांस्कृतिक महत्व की प्राचीन धरोहरों का भी उल्लेख नहीं किया गया है। संक्षेप में कहें तो पेरिस में हुई आतंकी कार्यवाही को समूचे वैश्विक परिदृश्य के परिपेक्ष्य में देखना चाहिए।  इसे स्थानीय-क्षेत्रीय-देशीय टुकड़ों में बांट कर नहीं देखा जाना चाहिए, जैसा कि दशकों से किया जा रहा है। जैसी कि दुनियाभर के विशेष बुद्धिजीवी और विचारधारा समूहों द्वारा दशकों से कोशिश की जा रही है, और मूल मुद्दों से ध्यान भटकाया जा रहा है।  
 मीडिया की सुर्खियां सदैव महत्वपूर्ण बातों की ही ओर इंगित करती हैं, ऐसा नहीं है। 13 नवम्बर से पेरिस हमले के सन्दर्भ में पल-पल की जानकारी दुनिया भर में समाचार माध्यमों द्वारा पहुंचाई जा रही है। सूचनाओं के इस युग में ये जागरूकता अच्छी बात है। परन्तु विचारणीय बात है कि आतंकवादी कितने थे, उन्होंने क्या पहना था, किस वाहन से आये थे, उनके पास हथियार कौन से थे, ये पुलिस, सुरक्षा एवं जांच एजेंसियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण सुराग हैं, लेकिन एक आम व्यक्ति के लिए इससे अधिक महत्व की बातें हैं जिनकी चर्चा कम होती है। जैसे कि इनमें से कितने हमलावर फ्रांस के नागरिक थे? और फ्रांस को 1961 के अल्जीरियाई युद्ध के साढ़े छह दशकों बाद एक बार फिर आपातकाल क्यों लगाना पड़ा? फ्रांस में आपातकाल की संवैधानिक व्याख्या के अनुसार इस दौरान राष्ट्रपति, प्रशासन  और सुरक्षा एजेंसियों की शक्ति बढ़ जाती है। लोगों की आवाजाही को नियंत्रित या प्रतिबंधित किया जा सकता है, कर्फ्यू लगाया जा सकता है, समूह में एकत्र होने पर रोक लग सकती है, लोगों अथवा समूहों की निगरानी करने के लिए सुरक्षा जोन बनाये जा सकते हैं। थिएटर, बार, संग्रहालय जैसे स्थानों को अनिश्चित काल के लिए बंद किया जा सकता है। मीडिया पर सेंसरशिप लागू हो सकती है (हालांकि फ्रांस सरकार ने मीडिया पर कोई लगाम नहीं लगाई है। फ्रांस के मीडिया की भी प्रशंसा करनी होगी कि वह रिपोटिंर्ग में टीआरपी से ज्यादा फ्रांस की चिंता कर रहे हैं, न ही रक्तरंजित शव दिखाए जा रहे हैं और न ही अफवाहों का प्रसारण किया जा रहा है)। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि फ्रांसीसी सुरक्षा बल किसी भी समय, किसी भी घर पर छापा मार सकते हैं, संदेहास्पद लोगों को नजरबंद कर सकते हैं और लोगों के वैध हथियारों को भी जब्त कर सकते हैं। ध्यान रहे कि फ्रांस दुनिया में प्रचलित लोकतंत्र के आधुनिक स्वरूप को देने वाला अग्रगण्य देश है। फ्रांस की जनता अपने राजनैतिक और नागरिक अधिकारों को लेकर बहुत जागरूक है। वहां के शासक अकारण आपातकाल नहीं लगा सकते, और इसीलिए इस आपातकाल की तुलना भारत में लागू किए गए लगभग दो साल लम्बे आपातकाल से नहीं की जा सकती, जैसा कि भारतीय पाठक के मन में आपातकाल शब्द सुनते ही पहला विचार आएगा।
अपने देश में पनप रहे आतंकवाद से निपटने के लिए फ्रांस द्वारा तीन महीने के लिए आपातकाल लगाना ये बतलाता है कि  फ्रांस के समाज में जिहादी आतंकवाद को लेकर कोई गंभीर समस्या पनप रही है। जैसा कि लेख के शुरुआत में हमने बात की, कि ये साल 2015 में फ्रांस में हुआ छठा जिहादी हमला है। फ्रांस में इस्लामिक कट्टरता उभार पर है। इस उभरती समस्या के चिन्ह फ्रांसीसी समाज में चहुंओर दिखाई दे रहे हैं। फ्रांस के खुफिया विभाग की एक गोपनीय रपट लीक हुई, वह 'ले फिगारो' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई जिसके अनुसार फ्रांसीसी शिक्षातंत्र के अंदर मुस्लिम सामूहिकता (घेट्टो) मजबूत जड़ें जमा चुकी है। इस रपट के अनुसार बड़ी संख्या में मुस्लिम छात्र गैर-मुस्लिम छात्रों से अलग-थलग रह कर समानांतर मुस्लिम छात्र समूह बना रहे हैं।  फ्रांस के सबसे बड़े मॉल और एक हजार सुपर मार्केटों में सशस्त्र जिहाद और गैर मुस्लिमों के विरुद्ध घृणा और हिंसा का प्रचार करने वाला साहित्य खुलेआम बेचा जा रहा है। एक रपट के मुताबिक फ्रांस की जेलों में 60 प्रतिशत कैदी मुस्लिम हैं जिनमें जिहाद के प्रति आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। नए वर्ष की पूर्व संध्या पर मुस्लिम समूहों द्वारा सड़कों पर आगजनी करना और हजारों कारों को आग के हवाले करना अब परंपरा बन चुका है। इसके लिए मुस्लिम समूह आपस में प्रतिस्पर्धा भी करते हैं। फ्रांस में हर साल औसतन 40,000 कारें इस प्रकार जलाई जा रही हैं। 6 जनवरी, 2014 को दो 15 वर्षीय मुस्लिम किशोर, जिन्होंने सात लोगों की हत्या की थी, भाग कर सीरिया जा पहुंचे और बगदादी की फौज का हिस्सा बन गए। फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांदे के अनुसार सात सौ से अधिक फ्रेंच नागरिक इस्लामिक स्टेट का हिस्सा बन चुके हैं। इनमें से दर्जनों अवयस्क हैं। फ्रांस में प्रतिबंधित है, लेकिन सड़कों पर सामूहिक नमाज पढ़ी जाती है।  शहर के दूरदराज स्थानों से मुस्लिम इकट्ठे हो कर सड़कों को बंद कर देते हैं और नमाज पढ़ते हैं। फ्रांस का कानून कहता है कि फ्रांस के नागरिक अपने मजहब का पालन अपने घरों तक सीमित रखें, लेकिन इसकी परवाह नहीं की जाती। शैक्षिक संस्थाओं, सरकारी कार्यालयों में हलाल मांस उपलब्ध कराने की मांग की जाती है। 'शार्ली एब्दो' पर हुआ हमला भी फ्रेंच मूल्यों पर आघात की मिसाल है। जब इस पत्रिका पर हमला हुआ तो भारत समेत सारी दुनिया के मीडिया ने शार्ली एब्दो की आलोचना की कि उन्होंने मुसलमानों की भावनाओं का आदर नहीं किया। ऐसा कहने वाले जान-बूझकर इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि वर्तमान फ्रेंच समाज और संस्कृति में 'रिलीजन' का स्थान नगण्य है। आधुनिक मूल्य ही उनकी संस्कृति हैं। ईसाई बहुल इस देश में जीसस को भी नहीं बख्शा जाता। हर साल जीसस पर सैकड़ों कार्टून बनते हैं और प्रकाशित होते हैं। ईसाई हो, यहूदी या कोई और, किसी को रियायत नहीं दी जाती। अगस्त 2014 में हुआ एक सर्वे बताता है कि फ्रांसीसी मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग इस्लामिक स्टेट का समर्थन करता है। इनमें युवाओं और किशोरों की संख्या सर्वाधिक है। 22 अगस्त 2014 को फ्रांस की पुलिस ने 15 और 17 वर्षीय दो युवतियों को गिरफ्तार किया जो लिओन के एक यहूदी प्रार्थना घर में बम धमाका करने की योजना बना रही थीं। स्ट्रासबर्ग के पार्क में मुस्लिम युवकों का एक समूह अल्लाहु अकबर के नारे लगाता हुआ नकली हथियारों के साथ ड्रिल का अभ्यास कर रहा था। जब पुलिस ने रोकने की कोशिश की तो उसे कुफ्फार (काफिर) कहते हुए 'मृत मुस्लिम भाइयों का बदला' लेने की धमकी दी गयी। आईपीएसओएस सर्वेक्षण के अनुसार 66 प्रतिशत फ्रांसीसियों को लगता है कि फ्रांस के अधिकांश मुस्लिम फ्रांस के समाज और फ्रांसीसी जीवनमूल्यों से एकरस होने का प्रयास नहीं करते। इन बातों से स्पष्ट हो जाता है कि आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाही करने के लिए फ्रांस को आपातकाल क्यों लगाना पड़ा।  
इस वैश्विक समस्या के मूल में है गैर-मुसलमानों के विरुद्ध सशस्त्र इस्लामी जिहाद करने की सीख। दुनिया को मोमिन और काफिर, अल्लाह और शैतान अथवा दारुल हरब और दारुल इस्लाम में बांटकर देखने की प्रवृत्ति। दुनिया में जहां-जहां जिहादी आतंकवाद सिर उठा रहा है, वहां की मूल समस्या यही है। ये राजनैतिक इस्लाम है, जिसका मूल तत्व सारी दुनिया को एक इस्लामी झंडे के तले लाना है। इसका उद्देश्य एक ऐसी दुनिया बनाना है जहां इस्लाम के अलावा किसी और चीज को मान्यता नहीं होगी। जब कभी आतंकवाद पर बहस छिड़ती है, मीडिया में अनेक बुद्धिजीवी और मुस्लिम विद्वान प्रकट होते हैं और बयान देते हैं कि इस्लाम शान्ति का मजहब है और इस्लाम का इस्लाम का आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। हाल ही में भारत के भी अनेक मुस्लिम संगठनों ने इस्लामिक स्टेट का विरोध किया है, जो कि एक अच्छी बात है। लेकिन आवश्यकता इससे आगे जाने की है। जब तक मुस्लिम विद्वान एकजुट हो कर ये घोषणा नहीं करते और मुसलमानों में ये समझ पैदा नहीं करते कि इक्कीसवी सदी  में हथियारों द्वारा किया गया जिहाद अप्रासंगिक हो गया है, इस्लाम को न मानने से कोई काफिर नहीं हो जाता, इस्लाम का पालन न करने से कोई मुसलमान 'वाजिब-ए-कत्ल'(हत्या करने योग्य) नहीं हो जाता और किसी भी कीमत पर, किसी भी परिस्थिति में कानून हाथ में नहीं लिया जा सकता, तब तक ये खून-खराबा रुक नहीं सकता और नफरत की आग शांत नहीं हो सकती। जैसा कि प्रचार किया जा रहा है, ये अकेले अरब लोगों की समस्या नहीं है। ये वैश्विक मुस्लिम समस्या है जिसमें अरब प्रभाव आग में घी डालने का काम कर रहा है।  इस समस्या पर सीधी चर्चा करने के स्थान पर गोल-मोल बातें करना, टालमटोल करना, बहाने बनाना और बहाने उपलब्ध करवाना (जो वामपंथी बुद्धिजीविता का पसंदीदा शगल है) समस्या को और गंभीर बनाता जा रहा है।
 कुछ सामान्य बहाने इस प्रकार हैं-'ये तो पश्चिम की तेल की राजनीति है, मुसलमानों को आपस में लड़वाया जा रहा है। अमरीका ने ही तो अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट को खड़ा किया है' आदि। आधा सच पूरे झूठ से भी ज्यादा घातक होता है क्योंकि वह आपको हमेशा वास्तविकता से दूर रखता है और आप भ्रमित रहते हैं कि आपको पूरा सत्य पता है। पश्चिमी देश तेल की राजनीति कर रहे हैं तो क्या 'ओपेक देश' तेल की राजनीति नहीं करते? क्या चीन, रूस और ईरान तेल के खेल में नहीं उलझे हैं? अकेले अमरीका ने अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट को खड़ा                 नहीं किया।
सऊदी अरब, कतर, कुवैत और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम देशों ने इसमें बराबर की भूमिका निभाई है। जब ये जिहादी संगठन हाथ के बाहर चले गए तो अमरीका और पश्चिम ने इनके समर्थन से अपना हाथ पीछे खींच लिया। अमरीका 15 सालों  से तालिबान और अल कायदा से लड़ रहा है। फ्रांस, अमरीका, ब्रिटेन आदि इस्लामिक स्टेट पर हमले कर रहे हैं, लेकिन सऊदी अरब, कतर, तुर्की, पाकिस्तान और कई छोटे अरब देश आज भी इस्लामिक स्टेट की हर प्रकार से सहायता कर रहे हैं। हाल ही में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने इसी ओर इशारा किया था। रही बात मुसलमानों को आपस में लड़वाने की तो इस्लाम के विभिन्न सम्प्रदायों में 1400 सालों से खूनी संघर्ष चल रहा है। तब न तो अमरीका था, न सीआईए। फिर क्या पाकिस्तान सहित सुन्नी बहुल अरब देश और ईरान इतने भोले हैं कि अमरीका के बहकावे में आकर क्रमश: शियाओं और सुन्नियों की हत्या के लिए हर साल अरबों डलर खर्च कर रहे हैं? दुनियाभर के मुसलमानों को नफरत की आग में झोंकने वाले अरब देश पश्चिमी समाज के ईसाइयों को या भारत के हिन्दुओं को आपस में क्यों नहीं लड़वा पा रहे हैं? उनके निशाने पर भी तो इन समाजों के मुस्लिम ही हैं। एक और विचित्र तर्क चल रहा है कि श्रीलंका का बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष या बर्मा में रोहिंग्या समस्या बौद्ध समाज द्वारा की जा रही मजहबी हिंसा का उदाहरण है। ये एक भ्रामक बयान है। ये दोनों समस्याएं नस्लीय संघर्ष की समस्याएं हैं और श्रीलंका और बर्मा के बौद्धों का स्थानीय हिन्दुओं अथवा ईसाइयों से कोई संघर्ष नहीं है, जबकि इस्लामिक कट्टरपंथी हर एक के खिलाफ हैं-ईसाई, हिन्दू, बौद्ध, यहूदी, यजीदी, शिया-सबके। सबकी गर्दनें रेती जा रही हैं। अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा भी इसी बहानेबाजी को बड़ावा देते रहे हैं।
ओबामा ने ही सीरिया के राष्ट्रपति असद को हटाने के लिए  इस्लामिक स्टेट को खड़ा किया था। सत्ता में आने के चंद दिनों के अंदर जब उन्होंने मिस्र की राजधानी में मात्र एक भाषण दे कर (पता नहीं कैसे) नोबल पुरस्कार जीत लिया था, उसी दौरान वे वहां के कट्टरपंथी 'मुस्लिम ब्रदरहुड' की जड़ों को भी पोषित कर रहे थे।  फिर भी ओबामा का ये बयान स्वागत योग्य है कि मुस्लिम अभिभावकों को अपने बच्चों पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है कि वे जिहादी आतंकी सोच को न अपनाएं। दुनिया भर में हो रहे आतंकी हमलों में सगे भाइयों का शामिल होना ये बतलाता है कि ओबामा के बयान पर ध्यान दिया जाना चाहिए।  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्व समुदाय से बार-बार आतंकवाद की परिभाषा सुनिश्चित करने को कह रहे हैं। जी-20 की बैठक में उन्होंने फिर इस पर जोर दिया है। निश्चित रूप से ये बिल्कुल सही समय है, क्योंकि हाल ही में पश्चिम  ने 26/11 के मुंबई हमले के दर्द को बेहद करीब से महसूस किया है।   -प्रशांत बाजपेई

पेरिस हमले की योजना सीरिया में बनाई गई थी और तैयारी बेल्जियम में की गई थी। इसे फ्रांसीसी लोगों की मदद से हमारी धरती पर अंजाम दिया गया। आईएस को खत्म करने की जरूरत पूरी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से जुड़ी है।
– फ्रास्वां ओलांद, राष्ट्रपति, फ्रांस

आईएसआईएस शैतान का चेहरा है। हमारा आखिरी मकसद इस बर्बर आतंकी संगठन का खात्मा करना है। दुनिया भर के मुस्लिम नेताओं को खुद से गंभीर सवाल पूछने चाहिए कि आखिर ऐसी कट्टरपंथी और अतिवादी विचारधाराएं जन्म कैसे ले रही हैं।
-बराक  ओबामा, राष्ट्रपति, अमरीका

आईएस को 40 देशों से आर्थिक मदद मिलती है। इनमें जी-20 के कुछ सदस्य देश भी शामिल हैं। आईएस तेल का गैरकानूनी कारोबार करता है, जिसे तत्काल खत्म करने की जरूरत है।
-व्लादिमीर पुतिन, राष्ट्रपति, रूस

जी-20 देशों के नेता इस बारे में ठोस कदम उठाएं। आतंकवादियों की फंडिग बंद करने, हथियारों की आपूर्ति रोकने और आतंकियों की आवाजाही प्रतिबंधित करने के लिए पुराने जमाने के कानून से काम नहीं चलेगा। मजहबी नेताओं, विचारकों को एकजुट कर आतंकवाद के खिलाफ सशक्त सामाजिक अभियान छेड़े जाने की जरूरत है।    
    -नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री, भारत 

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