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सनातन संस्कृति के संवाहक

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Nov 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Nov 2015 12:52:50

जन्म उरुग्वे में, कुछ समय तक अमरीका में पढ़ाई और अब यूरोप में रिहाइश। नाम है गुरुविच, मार्टिन गुरुविच।
और यह मार्टिन गुरुविच स्वयं को किसी भी भारतीय से ज्यादा भारतीय और किसी भी हिन्दू से ज्यादा हिन्दू मानते हैं।
बेल्जियम में एक म्यूजियम ऑफ सैक्रेड आर्ट है-सेप्टॉन। मार्टिन गुरुविच यहीं मिलते हैं। और यहां से वे वह काम कर डालते हैं, जो कई और लोग नहीं कर सकते।
मार्टिन गुरुविच यहां हिन्दू धर्म के एक बेहद महत्वपूर्ण सांस्कृतिक पक्ष को संरक्षित रखे हुए हैं। हिन्दू मतावलंबी अपने देवी-देवताओं को या अपनी धार्मिक अवधारणाओं को जिस रूप में देखते हैं, या सही शब्दों में कहें, तो समझते हैं- मार्टिन गुरुविच उसकी जीवंत सचित्र प्रस्तुति संभाले हुए हैं।
कहा जाता है कि जो आपकी नियति में होता है, प्रकृति आपको उस राह पर तमाम बहाने गढ़ कर धकेल देती है। मार्टिन गुरुविच को देखिए। 1980 के दशक तक उनका भारत के साथ कोई संपर्क या संबंध नहीं था। वे उरुग्वे के प्रसिद्ध पेंटर जोस गुरुविच के पुत्र हैं और अमरीका के सायराक्यूज विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की शिक्षा ले रहे थे। तब अचानक उन्हें कोई दिव्य प्रेरणा हुई। उनके शब्दों में – 'मैंने भारत जाने की एक तीव्र इच्छा अनुभव की, जहां पहुंचकर मैं अपना आध्यात्मिक मार्ग खोजूंगा और आध्यात्मिक गुरु खोजूंगा, यह कुछ ऐसा था, जैसे मेरा घर मुझे पुकार रहा हो।'
भारत जाने के पहले वह लिथुआनिया में अपनी ननिहाल जाना चाहते थे, और ननिहाल जाने के रास्ते में वह कई स्थानों पर रुके। इनमें पेरिस भी था। पेरिस में, किसी दिव्य प्रेरणा से, वह हरे कृष्णा आंदोलन में शामिल हो गए। यहां से उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया। यह 1982 की बात है। उनके शब्दों में, 'शायद ऐसा होना नियति में ही था। हरे कृष्णा आंदोलन के सदस्यों का एक समूह था, जो सड़कों पर भजन गा रहा था और प्रसाद बांट रहा था। मैंने भी प्रसाद खाया, और यहां से मेरा जीवन हमेशा के लिए बदल गया।' इसके बाद क्या हुआ, उन्हें ज्यादा याद नहीं है। सिर्फ इतना याद है कि वह हरे कृष्णा आंदोलन (इस्कॉन) में शामिल हो गए थे।
लेकिन नियति इतने भर से संतुष्ट नहीं थी। मार्टिन गुरुविच इस्कॉन के किसी साधारण सदस्य से कहीं आगे गए। इस क्षण के बाद से भारत उनका दूसरा घर हो गया। कहते हैं कि मार्टिन गुरुविच ने भारत में इतनी यात्राएं की हैं , जितनी शायद ही किसी और भारतीय ने की होंगी। जानमाने पेंटर के पुत्र होने के नाते उनका स्वाभाविक झुकाव पेंटिंग शैली के प्रति था और वे भारत के चप्पे-चप्पे पर मौजूद आध्यात्मिक कला की गहराइयों को देखकर हैरान रह गए। हिन्दू फोरम (यूरोप) के सदस्य मार्टिन गुरुविच कहते हैं, 'मैं भारत में अनेक छोटे शहरों और कस्बों में गया हूं। जब भी मुझे पता चलता था कि कोई समकालीन कलाकार आध्यात्मिक कला का प्रयोग कर रहा है, तो मैं वहां चला जाता था।'
भारत के विभिन्न भागों में मार्टिन गुरुविच के भ्रमण का परिणाम मूर्तियों और पेंटिंग्स के एक समृद्ध संग्रह में निकला। उन्होंने इन्हें खरीदने के लिए अपनी जीवन भर की बचत खर्च कर दी। अब बारी थी इस आध्यात्मिक कला को दुनिया के सामने पेश करने की, ताकि दुनिया इसका लाभ उठा सके। 2010  में गुरुविच ने पवित्र कला संग्रहालय (मोसा) खोला। अपनी हाल की भारत यात्रा के दौरान मार्टिन गुरुविच ने लेखिका से कहा, 'संग्रहालय उन कला वस्तुओं को प्रस्तुत करने के उद्देश्य से खोला गया था जो हमें दिव्य शक्तियों से जोड़ती हैं, और कई तरीकों से हमें भौतिक जगत से ऊपर कर देती हैं।  यह बेल्जियम में एक इस्कॉन मंदिर- राधादेश में स्थित जरूर है, लेकिन यह विश्व भर में मोसा की तमाम शाखाओं में शानदार प्रदर्शनियों में योगदान देने का प्रयास करता है।'
भारत में गुरुविच के प्रयास
इस वर्ष के प्रारंभ में दिल्ली की ललित कला अकादमी में मोसा की पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी लगाई गई थी, और समूचे संग्रहालय को दो खंडों की एक कॉफी टेेबल बुक में संजोया गया था। इस पुस्तक का शीर्षक था- फॉमस ऑफ डिवोशन,स्प्रिचुअल इन इंडियन आर्ट। यह प्रदर्शनी दिल्ली के बाद थाइलैंंड पहुंच गई और वहां बैंकाक के चुलालॉंगकॉर्न विश्वविद्यालय में इन पेंटिंग्स को रखा गया।
गुरुविच का यह आध्यात्मिक कला संग्रह उन तमाम पौराणिक कथाओं को  एक नया सुर देता है, जिन्हें यह देश हजारों वर्षों से जानता आ रहा है। मार्टिन गुरुविच ने इस लेखिका से कहा है, 'मैं आशा करता हूं कि इस तरह का काम भारत की विशाल और विविध संस्कृति और मित्रता के बारे में और अधिक जागरूकता पैदा करेगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि यह आध्यात्मिक कला विभिन्न मतावलंबियों को अनेकता में एकता की भावना के अनुरूप एक साथ लाने में सहायक हो।'
भारत उन्हें कैसा लगता है
वर्तमान में भारत का महान योगदान इसकी उन्नत आध्यात्मिकता और समृद्ध संस्कृति का है। विश्वभर के लोग भारतीय आध्यात्मिकता के विभिन्न स्वरूपों – योग, अद्वैत वेदांत, भक्ति आदि से और कर्म, आत्मा, योग, भक्ति, चक्र, आयुर्वेद और धर्म जैसी अवधारणाओं और शब्दों से आकृष्ट होते हैं। भारत की आध्यात्मिकता और संस्कृति समावेशिता, सहिष्णुता और अहिंसा के मूल्यों में योगदान दे रही है, जिनकी विश्व को आवश्यकता है। 

-अर्चना खरे

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