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1969 में स्थापित जवाहरलाल नेहरू केन्द्रीय विश्वविद्यालय (जेएनयू) को जब वर्ष 2012 में राष्ट्रीय आकलन एवं अधिमान्यता परिषद् (नैक) ने देश के शिक्षण संस्थानों में सबसे ऊपर रखा तो ज्यादा चर्चा नहीं हुई। या कहिए, जेएनयू इससे ज्यादा और अलग प्रकार की चर्चाओं का अभ्यस्त है। विडंबना है कि आमतौर पर देश के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की चर्चा शिक्षा और इसके स्तर के कारण नहीं होती।
देश की राजधानी में मुनीरका के खांटी देसी और वसंतकुंज के संभ्रांत नकचढ़े माहौल से घिरे इस परिसर की पहचान अलग है। विवाद और खास रंग की विचारधारा इस विश्वविद्यालय की पहचान के पर्याय हैं। किसी शिक्षण संस्थान की यह पहचान सही है या गलत, इस पचड़े में पड़े बिना भी, यह सच है कि इस पहचान को समय-समय पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रशासनिक प्रश्रय मिलता रहा है। सवाल है कि इस प्रश्रय ने विश्वविद्यालय की साख को बढ़ाया या बट्टा लगाया? शिक्षा संस्थान की स्थापना के उद्देश्य से जुड़ा यह प्रश्न ऐसा है जो केवल एक परिसर तक सीमित नहीं है। इस प्रश्न में गंभीर सामाजिक और राष्ट्रीय चिंताएं जुड़ी हैं।
ऐसा नहीं है कि चिंताएं सिर्फ बाहर ही हैं। ये सवाल जेएनयू को भीतर ही भीतर मथ रहे हैं। विश्वविद्यालय की साख ठीक करने या फिर जैसे भी हो ढहता वैचारिक मंच संभाले रखने की रस्साकशी छात्र संगठनों के बीच तेज है। एक ओर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का उभार है, तो दूसरी तरफ वामपंथी राजनीति के 'स्पष्ट ठप्पे' से बचने का इन्टरनेशनल स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईएसए) का तकनीकी पैंतरा। छात्र राजनीति के स्वरूप और मिजाज में हाल के वर्षांे में दिखी उथल-पुथल को यदि संकेतक माना जाए तो पता चलता है कि विश्वविद्यालय की स्थापित वैचारिक छवि अब यहां के छात्रों में ही बेचैनी भर रही है। वैसे, संस्थान की साख में सुराख पैदा करने वाले कारण भीतर से ही दूर हों, यह पहल जरूरी है, क्योंकि प्रश्न परिसर के भीतर से ही खड़े हुए।
दुर्गा पूजा के दिनों में पंडाल पर त्योरियां चढ़ाने वाले प्रशासनिक अधिकारी जब अफजल या याकूब मेमन जैसे आतंकियों के पक्ष में निकाले जा रहे मशाल जुलूसों और मातम से आंखें मूंद लेते हैं तो सवाल खड़े होते हैं।
विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित खानपान महोत्सव में कश्मीर का एक अलग देश के तौर पर खोमचा लगाने की कोशिश की जाती है और प्रशासन द्वारा देश तोड़ने का एजेंडा चलाने वालों को समय रहते दंडित नहीं किया जाता है तो सवाल खड़े होते हैं।
परिसर के भीतर बहुसंख्यक छात्रों की आस्था को ठेस पहुंचाने वाले आयोजनों को रोकने का प्रयास नहीं होता तो सवाल खड़े होते हैं।
यकीनन इन सबके लिए विश्वविद्यालय के पूरे तंत्र को आरोपित नहीं किया जा सकता, लेकिन ये जेएनयू से इस देश और समाज के कुछ कड़वे सवाल हैं।
जेएनयू का जिक्र छिड़ते ही मीडिया, गैरसरकारी संगठन और राजनीतिक दलों सहित कई पक्ष बहस में कूद पड़ते हैं। कुछ के लिए यह गुजरी हुई यादों को ताजा करने का बहाना है, कुछ के लिए प्रतिष्ठा का ऐसा बिल्ला जिसे वे सीने से हटा नहीं सकते और कुछ के लिए वैश्विक तौर पर मरती हुई विचारधारा का ढहता हुआ किला थामे रहने की छटपटाहट। किसी के लिए जेएनयू के मायने चाहे जो हों, चाहे जितने धुंधले या उजले हों, देश और समाज के लिए किसी शिक्षा संस्थान के उद्देश्य साफ स्पष्ट होने ही चाहिए। इस कसौटी पर कितना खरा उतरता है जेएनयू? सो, इस बार की आवरण कथा जेएनयू के नाम। उस परिसर के नाम जिसे पूरी तरह शिक्षा के लिए समर्पित होना था, लेकिन जहां विचार, विद्वेष और विभाजन के अखाड़े खोदे जाते रहे। चारदीवारी के भीतर बहुत कुछ ढह चुका है, ढह रहा है, लेकिन आज भी कुछ सवाल हैं जो सुलग रहे हैं।
विवाद और वाम वैचारिक आंच में झुलसे शिक्षा के इस सपने को आप किस नजर से देखते हैं, हमें बताइएगा।
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