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अंग्रेजी में एक शब्द है ‘बार्क’, जिसका अर्थ होता है पेड़ की छाल। ‘बार्क’ का एक और अर्थ होता है कुत्ते का भौंकना। एक शब्द है ‘बो’ जिसका अर्थ है धनुष। धनुष हिंसा का साधन है। परन्तु वायलिन को बजाने के लिए भी ‘बो’होता है, जिस से मधुर संगीत निकलता है। ऐसे ही हिन्दी में कनक का अर्थ स्वर्ण भी होता है और धतूरा भी। खड़ी बोली में ‘बेर’ का अर्थ ‘बार’ (आवृत्ति) होता है और बेर एक फल भी है। भाव रूप में कितने अलग हैं एक ही शब्द के ये दो उपयोग। यानी सही ढंग से कहा-समझा न जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। दुनिया की प्रत्येक भाषा में इस प्रकार के सैकड़ों अनेकार्थी शब्द पाए जाते हैं, जिन्हें दैनिक जीवन में स्वीकारा और उपयोग किया जाता है। लेकिन भारत में विचारधारा विशेष वाला एक वर्ग है जो हिन्दू शास्त्रों को यह स्वाभाविक स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं होता। इस प्रकार अपने वितंडावाद के बल पर वे अर्थ का अनर्थ करते हैं, और प्राचीन ऋषियों के मुख में वे बातें डालने का प्रयास करते हैं जो कभी भी उनका अभिप्राय न था, न हो सकता था।
स्वार्थ प्रेरित यह काम यूरोप के उन तथाकथित विद्वानों ने शुरू किया था जिन्हें संस्कृत का सामान्य ज्ञान भी नहीं था, जिनकी अधकचरी व्याख्याओं को मैकाले और उसके उत्तराधिकारियों ने दुनिया के सामने ब्रह्मवाक्य बना कर प्रस्तुत किया। आने वाले समय में हिन्दू संस्कृति पर प्रहार करने की इच्छा रखने वालों ने इस छल का उपयोग शस्त्रों की तरह किया, वहीं दूसरी ओर कई प्रतिभावान संवेदनशील लोग भी इस वाग्छल का शिकार हो गए। संदर्भ वेद और गोरक्षा का है।
दरअसल वेदों में क्या है, इसे स्वयं पढ़कर जानने वाले लोगों की संख्या बहुत कम है। फिर भाषा की कुंजी सबसे बड़ी समस्या है। क्योंकि अनुवाद तो अनुवाद ही होता है। जब आप मूल पाठ का अनुवाद अथवा टीका पढ़ते हैं, तो स्वाभाविक रूप से अनुवादक या टीकाकार के विचारों को ग्रहण करने के लिए बाध्य होते हैं। इसलिए भ्रम फैल सकता है या फैलाया जा सकता है। इसलिए जब-जब गोरक्षा का प्रश्न उठता है तब-तब तथाकथित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अपनी विशिष्ट पोथियां ,वेदों की अपनी व्याख्याएं खोल कर बैठ जाता है और फिर ये लोग जान लड़ा देते हैं कि वेदों में गो-ह्त्या और गोमांस भक्षण का विधान है। मौके के अनुसार सेकुलर राजनीति के सूरमा भी कूद पड़ते हैं। टीवी बहसों में भी किसी वेद के जानकार या संस्कृत विद्वान को नहीं बुलाया जाता, बल्कि वामपंथी डेरों से पकड़कर लाए गए कलमनवीस मैक्समूलर और ग्रिफ्फिथ जैसे विदेशियों के उदाहरण देकर हमें वेद समझाते हैं। एक और षड्यंत्र जारी है-गोरक्षा के प्रश्न को हिन्दू समाज में अगड़ा बनाम पिछड़ा का मुद्दा बनाकर प्रस्तुत करने का।
वेद, गो और पशुबलि को लेकर समाज में जो भ्रांतियां फैलाने का प्रयास किया जा रहा है उसके पीछे के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। शुरुआत की पाश्चात्य विद्वानों ने, जिनमें मैक्समूलर, ग्रिफ्फिथ और विल्सन आदि ने यज्ञों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान बताया। ये लोग अपनी पाश्चात्य पृष्ठभूमि और भारत तथा संस्कृत के बारे में अपने अल्पज्ञान के चलते वेद आदि पर टीका-टिप्पणी करने में वैसे ही असमर्थ थे। रही-सही कसर उनके कुत्सित इरादों ने पूरी कर दी। मैक्समूलर (1823 से 1890), जिसे इंडोलॉजी का स्थापक और भारत का विशेषज्ञ माना गया, के अनुसार ‘अधिकांश वैदिक स्तोत्र बिल्कुल बचकाने, उबाऊ , छिछले और घिसे-पिटे हैं।’भारत के बारे में मैक्समूलर के मिशनरी दिमाग में कुछ योजनाएं थीं। वह कहता है कि ‘पुराना धर्म नष्टप्राय है। अब यदि ईसाइयत उसका स्थान नहीं लेती है तो यह किसका दोष होगा?’ जब ड्यूक आॅफ आर्गिल भारत का राज्य सचिव (सेक्रेटरी आॅफ स्टेट फॉर इंडिया) बना तब मैक्समूलर ने उसे पत्र लिखा-‘भारत एक बार (यूरोपीयों द्वारा सैनिक रूप से) जीता जा चुका है, परन्तु उसे दोबारा जीते जाने की आवश्यकता है। और यह दूसरी जीत शिक्षा के द्वारा होगी। भारत को अंग्रेजी सांचे में नहीं ढाला जा सकता, लेकिन इसे पुन: अनुप्राणित किया जा सकता है।’ इसके लिए मैक्समूलर की सोच थी कि पाश्चात्य विचारों को भारत की क्षेत्रीय एवं शास्त्रीय भाषाओं के माध्यम से फैलाया जाए ताकि नए प्रकार का राष्टÑीय साहित्य जन्म ले सके। अब ऐसे लोगों के भाषांतर के प्रकाश में वेदों को पढ़ा-पढ़ाया जाएगा तो उनके साथ कितना न्याय हो सकेगा?
भ्रान्ति का दूसरा कारण मध्य काल के कुछ आचार्यों, जैसे सायण, महीधर आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना है। सायण के भाई और शिष्यों ने भी सायण नाम से ही लिखा है। अर्थात सायण नाम से की गई टीकाएं संयुक्त कार्य हैं, जिस पर तत्कालीन समाज (चौदहवीं शताब्दी) की छाया है। ये वेदों पर की गई टीका है, जब समाज में पशुबलि प्रचलित हो चुकी थी। तीसरा कारण है, स्वतंत्रता पश्चात अंग्रेजों की मैकाले योजना के उत्तराधिकारी के रूप में वामपंथी जमात का आगे आना, जिसने इन गलत धारणाओं का निराकरण करने वाले तथ्यों और व्यक्तियों को कभी सामने ही नहीं आने दिया और बिना वैज्ञानिक अन्वेषण के पुरानी टेक को दुहराए चले गए, क्योंकि वे भ्रम उनके वैचारिक उद्देश्यों के मुफीद बैठते थे।
अब झांकते हैं कि इन भ्रांतियों में कितना तथ्य है। शुरुआत हिंसा-अहिंसा के प्रकरण से। अनेक वेद मन्त्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणी को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया है। जैसे-हे मनुष्यो! जो गो आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं-यजुर्वेद 1/1. जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणी मात्र को अपनी आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं-यजुर्वेद 40/7. हे दांतो, तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग हैं। तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो। अथर्ववेद6/140/2.
मूल रूप से वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा है। यज्ञ में पशुबलि का चलन मध्यकाल में हुआ। वैदिक काल में यज्ञों में पशु बलि आदि प्रचलित नहीं थे। पतन हुआ। गलत अर्थ किये गए और मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया। सायण और महीधर तत्कालीन वाममार्गियों के प्रभाव में थे जो प्राचीन तंत्र विज्ञान का भ्रष्ट रूप था। इसी प्रभाव और लोकोपवाद के चलते इनकी वेद की टीकाओं में मांसाहार, पशुबलि आदि का वर्णन मिलता है। इन्ही की टीकाओं को मैक्समूलर, विल्सन, ग्रिफ्फिथ आदि यूरोपीय शोधकर्ताओं ने मूल वेद के रूप में प्रस्तुत किया। वेदों का ये विकृत वर्णन ईसाई मिशनरियों को जमता था। इससे उन्हें भारतीय अध्यात्म परंपरा को चर्च द्वारा निंदित यूरोप और अमरीका की ‘पगान (पैगन) सभ्यताओं’ के समकक्ष रखने की सहूलियत मिलती थी। सो, इन विकृतियों को बाकायदा वैश्विक मान्यता दिलाई गई और इन्हें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया।
वेदों में अहिंसा की महिमा गाई गई है। यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मंत्रों में हुआ है जिसका अर्थ हिंसा रहित कर्म है। जैसे-हे ज्ञान स्वरूप परमेश्वर, तू हिंसा रहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते हैं।-ऋग्वेद1/1/4. चारों वेदों में यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग बार-बार किया गया है। इसी संदर्भ में कुछ और उदाहरण देखते हैं।
हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखें, मैं सब प्राणियों को मित्र की प्रेममय दृष्टि से देखूं। हम सब परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें।-यजुर्वेद 36/18
यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओं कि रक्षा करें।-यजुर्वेद 1/1 पति पत्नी के लिए उपदेश है कि पशुओं की रक्षा करें।-यजुर्वेद 6/11
क्या ये संभव है कि एक ओर प्राणी मात्र से प्रेम की बात करने वाले ऋषि दूसरी तरफ ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए किसी निरीह पशु की हिंसा का सुझाव देंगे? जिन्होंने वेदांत, सांख्य दर्शन और गीता का अध्ययन किया है वे जानते हैं कि हमारी अध्यात्म परम्परा के अनुसार हमारी आत्मा परमात्मा का ही अंश है, जो प्रत्येक जीव में विद्यमान है। वैदिक दृष्टि में परमात्मा किसी सुदूर कोने में बैठा अधिनायक नहीं है। वह घट-घट में व्याप्त है। ऐसे में सबके अंदर बसने वाला परमात्मा रक्त की मांग कैसे कर सकता है? वेद काव्यात्मक भाषा में लिखे गए हैं। इसलिए हर श्लोक को सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है। भ्रम पैदा हुआ वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध जैसे शब्दों से। क्योंकि मेध शब्द का एक अर्थ है मारना। इस एकमात्र अर्थ को मान लिया जाए तो फिर इसका अर्थ हुआ अश्व, नर, गो, अज (बकरा) आदि की हिंसा। परंतु मेध शब्द के दो अर्थ और हैं। एक, मेधा अथवा शुद्ध बुद्घि और दूसरा एकत्व का भाव। यदि मेध का अर्थ केवल हिंसा होता तो ‘मेधावी बालक’ का अर्थ ‘हिंसक बालक’होता। किसी लड़की का नाम ‘मेधा’ अथवा ‘सुमेधा’ भी न रखा जाता।
उदाहरण के लिए अश्वमेध यज्ञ को लें। अश्वमेध यज्ञ में पूजन करके एक घोड़ा छोड़ा जाता था। घोड़ा अपनी इच्छा से विचरण करने के लिए स्वतंत्र होता था। इस घोड़े की सुरक्षा के लिए उसके पीछे-पीछे योद्धा चलते थे। घोड़ा जिस-जिस राज्य में पहुंचता था वहां के शासक को या तो अश्वमेध करने वाले राजा के साथ युद्ध करना होता था या उसे अपना चक्रवर्ती सम्राट मानकर संधि करनी होती थी। स्पष्ट है कि शक्तिशाली सम्राटों द्वारा किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ रक्तपात को यथासंभव टालते हुए राष्टÑ की राजनैतिक एकता का आयोजन होता था। श्रीराम और युधिष्ठिर ने इसी प्रकार अश्वमेध और राजसूय यज्ञ किये हैं। इसलिए जैसा कि प्रचारित किया गया है कि अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व की बलि देना है, सर्वथा गलत है। वेदों की व्याख्या करने वाले प्राचीन ग्रंथ शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राष्टÑ के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कार्य अश्वमेध हैं।
ऐसे ही गोमेध का अर्थ यज्ञ में गो की बलि देना कतई नहीं है। गो शब्द का अर्थ शब्दकोष में खोजिए। आप ये अर्थ पाएंगे-गाय, रहस्य-संप्रदाय में मन की वृत्ति, आत्मा एवं इंद्रियां तथा मन। गो का अर्थ किरण अथवा प्रकाश भी कहा गया है। धरती को भी गो कहा गया है। धरती द्वारा गाय का रूप रखकर जगत पालक विष्णु के पास जाने का वर्णन भी मिलता है। शास्त्रीय व्याख्या के अनुसार गोमेध का अर्थ अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, धरती का शोधन अथवा स्वच्छता हुआ। न कि गाय की बलि देना। कोई यदि ये कुतर्क करना चाहे कि मेध का अर्थ मारने से भी क्यों न लिया जाए तो उसका भी उत्तर वेदों में है जहां गाय को ‘अघन्या’अर्थात वध न करने योग्य कहा गया है। कुतर्क करने वालों द्वारा ‘गोघ्न’ शब्द को गायों के वध करने का संकेत बतलाया जा रहा है। लेकिन ये भी अधूरा अर्थ है। गोघ्न शब्द में हन धातु प्रयुक्त हुई है। इसके दो अर्थ हैं। एक, हिंसा और दूसरा, गति। अब एक तरफ गाय को अवध्य बतलाकर दूसरी ओर हिंसा की बात तो नहीं की गई होगी न? गोघ्न से आशय गति अथवा ज्ञान के अर्थ में है। वेदों में ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने लिए भी किया गया है। जैसे-अथर्ववेद में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है। वहां भी ‘हन्’ धातु का उपयोग हुआ है। अब इसका अर्थ क्या करेंगे? पति को पत्नी की हिंसा करने को कहा जा रहा है?
इसी प्रकार मीडिया में एक तर्क खूब उछाला जा रहा है कि वैदिक काल में जब कोई विशेष अतिथि, जैसे कि राजा, दामाद वगैरह किसी के घर आता था तो गृहस्वामी अपने सर्वश्रेष्ठ गाय-बैल आदि को मारकर-पकाकर उसे खिलाता था। ये भी एक मिथ्या अवधारणा है। ऋग्वेद के मंत्र 10/68/3 में अतिथिनीर्गा का अर्थ अतिथियों के लिए गोहत्या बतलाया जा रहा है। जबकि अतिथिनी शब्द का अर्थ ऐसी गायों से है जिन्हें अतिथि को दान किया जाए। ऐसे ही गाय की तरह बैल को भी अवध्य बतलाया गया है। जैसे गाय के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द प्रयुक्त हुआ है उसी प्रकार से बैल के लिए ‘अघ्न्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
वेदों में वृद्ध या बांझ गोधन के लिए भी वध का निर्देश नहीं है, जैसा कि दुष्प्रचार किया जा रहा है। शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार बांझ गायों की अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया है। ये गलत अर्थ है। मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3/3 के अनुसार यह है कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते हैं। शतपथ 5/1/3 के अनुसार इसका अर्थ है पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य है ऐसे परमेश्वर को नमस्कार है। अर्थात उपरोक्त दोषपूर्ण अर्थ का कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों की गलत व्याख्या है। अजमेध का अर्थ बकरी आदि की यज्ञ में बलि देना नहीं है। बल्कि बीज, अनाज या धान आदि की उपज बढ़ाना है। ठीक ऐसे ही नरमेध का अर्थ मृत्यु उपरांत शरीर का वैदिक रीति से दाह-संस्कार करना है। मानव समुदाय को श्रेष्ठ कार्यों में नियोजित-प्रशिक्षित-प्रेरित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।
ये जो बातें इस लेख में आई हैं, कोई नव-रहस्योद्घाटन नहीं हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती और अनेक दूसरे विद्वानों ने इन विषयों को खूब विस्तार से लिखा है। जाहिर है आज समस्या ज्ञान की उपलब्धता की नहीं बल्कि उपलब्ध करवाने वालों की नीयत की है। अपने विशेष एजेंडे को लेकर काम कर रहे लोग सच नहीं सुनना चाहते। वे वेदों की गलत व्याख्या को लेकर कुतर्क करेंगे। गांधीजी और विनोबा भावे के नाम की दुहाई देंगे लेकिन इस बात को छिपा जाएंगे कि किस प्रकार इन दोनों ने गोरक्षा को अपना जीवन ध्येय बनाया हुआ था। वे अपनी विद्वत्ता की शेखी बघारेंगे लेकिन आदि शंकराचार्य की गो के प्रति भावना को लेकर चुप रहेंगे। समाज के वंचित-पिछड़े तबके की बात करेंगे लेकिन महर्षि वेदव्यास (जिनकी माता धीवर कन्या थीं) को बिसरा देंगे जिन्होंने गाय-बैल को जरा सा कष्ट देने को भी महान पाप कहा है।
गोहत्या जैसे गंभीर विषय पर पाखंड का आचरण कर रहे ऐसे सारे तथाकथित बुद्धिजीवियों को खुली चुनौती है कि वे गोसंरक्षण विषय पर दशम् गुरु गोविन्द सिंह जी, समर्थ गुरु रामदास, संत नामदेव, स्वामी दयानंद सरस्वती, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, मदनमोहन मालवीय, महर्षि अरविंद, भाईश्री हनुमान प्रसाद पोद्दार, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पुरुषोत्तमदास टंडन आदि को भी उद्घृत करके दिखाएं। मीडिया से भी अपेक्षा है कि इस संवेदनशील विषय पर ऋषि कपूर, शोभा डे और मार्कण्डेय काटजू के अलावा इन बड़े लोगों के विचारों को भी देश की जनता के सामने रखें। चलते-चलते बात मुद्दे के आर्थिक-सामाजिक पक्ष पर। 90 के दशक में हुए शोध से पता चला कि भारतीय गाय के दूध में पाए जाने वाले ए-2 प्रोटीन में ह्रदय रोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों से बचाने की क्षमता होती है, जबकि जर्सी गाय के दूध में पाए जाने वाले ए-1 प्रोटीन से ये बीमारियां पनपती हैं। आज न्यूजीलैंड, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में ए-2 प्रोटीन वाला दूध एक बड़ा व्यवसाय बन गया है।
एक अनुमान के अनुसार भारत में 19 करोड़ गाय हैं। गोबर गैस और उससे मिलने वाली खाद के बारे में हम सभी जानते हैं। 19 करोड़ गोधन के गोबर से प्रतिदिन मिल सकने वाली गोबरगैस, उससे मिल सकने वाली ऊर्जा और मुफ्त खाद के बारे में आपने कभी विचार किया है? महंगी रासायनिक खेती के कारण किसान आत्महत्या कर रहे हैं। भारत कैंसर रोगियों का देश बन रहा है। कीट-पतंगे-पक्षी नष्ट हो रहे हैं। क्या आपने गो आधारित सस्ती, स्वास्थ्यप्रद, पर्यावरण मित्र, गो आधारित जैविक कृषि पर विचार किया है? क्या आपने यूरोपीय वैज्ञानिकों के उस अध्ययन के बारे में पढ़ा है जिसमें बतलाया गया है कि ‘बीफ’ उद्योग के कारण धरती के पर्यावरण पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है? विचार कीजिए, आप पाएंगे कि गोरक्षा देश, समाज, संस्कृति और स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है। ये हर भारतवासी की भलाई से जुड़ी बात है। ये ‘बुद्धू बीफ’ जैसी कोई व्यर्थ की बहस नहीं है, जिससे देश को फुसलाने की कोशिश की जा रही है। प्रशांत बाजपेई
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