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शक्ति (बल या सामर्थ्य) मानव जीवन के लिए सदा से अत्यंत अपेक्षित रही है। शक्ति के बिना जीवन-यात्रा संभव ही नहीं। हां, एक ओर शारीरिक शक्ति होती है, तो दूसरी ओर मानसिक शक्ति। इन दोनों से भी बढ़कर होती है आत्मिक-शक्ति। संघषार्ें से जूझने के लिए चाहिए शक्ति। पर केवल मात्र शारीरिक बल ही जीवन में आगे बढ़ने के लिए, अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता। मानसिक बल अर्थात् ओज, उत्साह, आशावाद सब जरूरी होते हैं बाहर-भीतर के अवरोधों को जीतने के लिए। जीवन में आने वाले तरह-तरह के अवरोध हमें हतोत्साहित कर देते हैं। ऐसे में ही मानसिक दृढ़ता की आवश्यकता होती है। तन-मन दोनों के समन्वित बल से पर्याप्त सीमा तक लक्ष्य प्राप्ति संभव हो पाती है, परंतु एक ऐसी स्थिति भी जीवन में आ जाती है जब हम इन सबके बावजूद निराशा में घिर जाते हैं। आत्मविश्वास डोलने लगता है। महसूस होता है कि अब हम कुछ नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में हमें 'आत्मशक्ति' बटोरनी पड़ती है। आत्मविश्वास जम जाए तो आत्मशक्ति ऊर्जावान बना देती है। यह अनन्त ऊर्जा एक शारीरिक रूप से शक्तिहीन या मानसिक बल से रहित व्यक्ति को भी आगे बढ़ने की राह सुझाती चलती है। वास्तव में 'शक्ति' के सभी आयाम अपने आपमें महत्वपूर्ण हैं। चिर-प्राचीन वैदिक युग में लौटें तो पाएंगे वहां शक्ति शब्द का उल्लेख भले ही न हो, परंतु 'बल' के 28 पर्याय उपलब्ध हैं। निघंटु (2़ 9) में ये नाम गिनाए गए हैं। ये हैं-ओज, पाज, शव, तव, सर, त्वक्ष, शर्ध, बाघ, नृम्णम् तविषी, शुष्मम्, शुष्णम् दक्ष:, वीलू, प्योत्नम् शुषमम् सह: आदि। बाद के संस्कृत साहित्य में और आज हिन्दी में भी इनमें से बहुत से शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है। लेकिन मूल-भावना तो 'शक्ति' की है ही।
शक्तिवाचक शब्दों से बने विशेषण
वेद में उपर्युक्त कहे गए शब्दों से बने विशेषण देवों के संदर्भ में खूब प्रयुक्त हुए हैं जो शक्ति की महत्ता व्यक्त करते हैं। ऋग्वेद में अग्नि को सहसिन् (ऋग्वेद 4़11़1) या सहसावन्त (ऋग्वेद 1़ 91़ 23) कहा गया है जिसका भाव उनके शक्तिशाली होने में ही है। वैदिक ऋषि या कवि यद्यपि मनीषा से युक्त थे पर सामाजिक एवं राजनीतिक प्रक्रिया में बल की विशिष्टता को स्वीकार करते थे। देवताओं को भी वे बलवान और सहस्वान मानते थे। भावार्थ यही है कि बल का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त था। इंद्र की शक्ति की प्रशंसा में अनेक विशेषणों का प्रयोग हुआ है। उसकी शक्ति को परम अप्रतिरुद्ध ( तविषी मही अधृष्टा) कहा गया है। इन्द्र की हिंसा कोई नहीं कर सकता क्योंकि अपने अत्यधिक बल के कारण वह अहिंस्य है। बल के द्वारा ही वह वृत्रावध करने में समर्थ होता है।
शक्तिवर्धन के लिए प्रार्थनाएं
बलवर्धन के लिए शक्ति या सामर्थ्य-वृद्धि के लिए 'सोमपान' करना भी इन्द्र की विशेषता रही है। ऋग्वेद (10़ 83़ 5) में 'बलदेय' शब्द का प्रयोग दर्शाता है कि वैदिक ऋषि देवताओं से बल प्राप्ति की, शक्ति प्रदान करने की प्रार्थनाएं किया करते थे। ऋग्वेद में यूं बल की महिमा व्यक्त करने वाले मंत्र अनेक हैं। ऋग्वेद (3़ 53़18) में कहा गया है
बलं धेहि तनुषु नो बलमिन्द्रा नडुत्सु न:।
बलं तोकाय तनयाय जीवसे त्वं हि
बलदा असि॥
अर्थात् हे इन्द्र! हमारे शरीर में बल धारण करवाओ। वृषभों में भी बल दो। हमारे शिशुओं और सन्ततियों में जीवनार्थ बल दो। तुम ही बल देने वाले हो। स्वाभाविक है यहां शारीरिक बल की याचना है। कारण वैदिक ऋषि की मान्यता है कि 'बलहीन' कुछ नहीं पा सकता है। फिर 'बल' जहां होता है वहां वर्चस् या तेज होता है। सामाजिक-संरचना में क्षत्रियों में 'क्षत्र' ब्राह्मणों में 'ब्रह्म' बल रहता है। 'क्षत्र' के प्रयोग राजनीतिक प्रक्रिया के द्योतक हैं, तो 'ब्रह्म' के प्रयोग ज्ञान के। दोनों के समन्वित होने से ही व्यक्तित्व का विकास होता है।
शक्ति-आराधना
नवरात्रों में देवी की जो आराधना की जाती है उसका रूप बिल्कुल अलग है। वास्तव में वेदों में 'बल' या 'शक्ति' एक भावरूप में चर्चित हुआ है वह अमूर्त है-मूर्त नहीं। जबकि नवरात्रों मे पूजित 'दुर्गा' के नवरूप-अष्टभुजारूप और अन्य कथानक जिनमें दुर्गा महिषासुर का वध करती हैं सब 'शक्ति' के ही मूर्तरूप हैं। वह शक्ति जो वैदिक काल में अमूर्तरूप में थी पर जिसकी प्राप्ति के लिए प्रार्थनाएं की जाती थीं, सोमपान किया जाता था, वह शक्ति वास्तव में सभी के द्वारा काम्य थी। आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि उस काल में भी शक्ति के वर्धन में गीतों का भी योगदान रहता था – स्पृणवाम रण्वभि: शविष्ठम् ( ऋ ग्वेद 5़ 44़10)। अर्थात् हम बल को सुंदर स्तोत्रों मधुर गीतों से प्राप्त करना चाहते हैं।' हम सब जानते हैं आज अनेक मनोवैज्ञानिक और मनश्चिकित्सक सर्वेक्षणों के माध्यम से सिद्ध कर चुके हैं कि अच्छा संगीत व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ाता है। देखा जाए तो वैदिक युग में इसी रूप में शक्ति-आराधना प्रचलित थी।
शक्ति का मानवीकरण
शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाली 'देवी' के विभिन्न रूप भी यहां वर्णित हैं। यद्यपि देवों की तुलना में 'देवियों' की संख्या नगण्य है, परंतु फिर भी दिति, अदिति, श्रद्धा, उषा, इन्द्राणी और वाग्देवी जैसी देवियां स्वयं में भावात्मक होते हुए भी अत्यंत शक्तिशालिनी हैं। उषा प्राकृतिक-सौन्दर्य की सम्राज्ञी हैं जो सबको तेज-प्रकाश से तेजस्वी बनाती हैं। शक्ति का महत्व ऋग्वेद में सुंदरता से व्यक्त हुआ है 'शची' के रूप में। इन्द्र को 'शचीपति' कहा गया है। एक संपूर्ण सूक्त (10़159) में शची का गौरव वर्णित है। इस सूक्त के निम्न मंत्र में शची का आत्मगौरव अप्रतिम है
अहं केतुरहं मूर्धहमुग्रा विवाचनी।
ममेदनु क्रतुं पति:, सेहानाया उपाचरेत्॥
( ऋग्वेद 10़159़ 2)
अर्थात् 'मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूं केतु या ध्वजा की तरह, मैं स्त्रियों में मूर्धन्य हूं। शिर के तुल्य हूं। मैं प्रबल तीक्ष्ण, बोलने वाली हूं। विजयिनी हूं, मेरी ही बुद्धि के अनुसार मेरा पति आचरण करे।' इस प्रकार से इन्द्र की शक्ति 'शची' के सभी विशेषण उसे 'शक्ति का अवतार' ही सिद्ध करते हैं।
ऊपर वर्णित वैदिक देवियों में एक और महत्वपूर्ण नाम है 'अदिति' का। वह 'देवमाता' है तथा अखण्डनीयता का प्रतीक है। वह स्वयं मुक्त है, बंधनविहीन है। पापरहित है तथा सबको मुक्त करने वाली है। विश्व प्रकृति से तादात्म्य-रूप में वह माता पिता, पुत्र जो कुछ भी है सबका कुल रूप है। ऋग्वेद में ही नहीं अन्य वेदों में भी 'अदिति' के हस्तिबल की कीर्ति वर्णित है तथा अपेक्षित है कि वह महाबल मुझे प्राप्त हो
हस्तिवर्चसं प्रथतां बृहद् यशो आदित्य यत् तन्व: संबभूव।
तत् सर्वे समदुर्मह्यम्॥
देवी भगवती शक्तिरूपिणी
आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि शक्तिरूपिणी देवी के लिए 'सुभगा' विशेषण अथर्ववेद में प्रयुक्त हुआ है जो 'भगवती' का ही सूचक है। इसी सूक्त का प्रथम मंत्र देखें
सिंहे व्याघ्र उत या पृदाकौ
त्विषिरग्नौ ब्राह्मणे सूर्ये वा।
इन्द्रं या देवी सुभगा जजान
सा न ऐतु वर्चसा संविदाना॥
अर्थात् 'सिंह में, व्याघ्र में, चीते में, ब्राह्मण में, सूर्य में जिस स्वाभाविक शक्ति का प्रकाश हो रहा है; वही मेरे अन्दर भी हो। जिस (शक्तिरूपिणी) देवी भगवती ने इन्द्र (तक) को प्रकट कर रखा है वह तेजपुञ्ज को साथ लिए हमें भी कृतार्थ करे। इस मंत्र को टी़ एच.ग्रिफिथ ने भी बहुत सुंदरता से अंग्रेजी में अनूदित किया है-
What energy the lion hath, the tiger, adder and burning fire, Brahmana or Surya and the blest goddes who gave birth to Indra, come unto us conjoined with strength and vigour.
इस मंत्र तथा आगे के अन्य तीनों मंत्रों की टेक यह अर्धऋचा है-
इन्द्रं या देवी सुभगा जजान,
सा न ऐतु वर्चसा संविदाना॥
वास्तव में विश्व की हर जड़चेतन वस्तु में स्वाभाविक शक्ति है हाथी, सुवर्ण, जल, गायों, पुरुषों यहां तक कि रथ में, अस्त्रों में, बैलों में, वायु में, मेघ में, दुन्दुभि में, अश्वादि में यह सब बल मानो देवी भगवती में साकार हो उठा है। तभी वह 'इन्द्र' जैसे शक्तिशाली देव को उत्पन्न कर सकती है जो अपनी शक्ति से 'वृत्र' का वध कर देता है।
शक्ति पूजा का मूल
पौराणिक शक्ति-पूजा का मूलाधार वैदिक है, यह इस विवेचन से स्पष्ट हो जाता है। दुर्गा की अष्टभुजाएं, देवों द्वारा अपना-अपना तेज प्रदान करना, शुम्भ-निशुम्भ और रक्तबीज जैसे राक्षसों का नाश करना ये सब कथानक-देवी शक्ति के विविध आयाम हैं। शक्ति की आराधना के लिए ही व्रत उपवास किए जाते हैं। हमारे शरीर के यंत्र को स्वस्थ एवं ऊर्जावान् रहने के लिए बीच बीच में 'शोधन' की ज़रूरत होती है। 'उपवास' की भूमिका यही है।
आज के शक्ति-पर्व में बहुत से कर्मकांड जुड़ गए हैं जो हमें शक्तिशाली नहीं, अपितु अस्वस्थ करते हैं। रात्रि-जागरण में यदि माइक और तेज शोर का बोल-बाला रहे तो 'ध्वनि प्रदूषण' से शक्ति क्षीण होती है। इसी प्रकार 'उपवास' कर गरिष्ठ भोजन, तरह-तरह के तले-भुने व्यञ्जन खाए जाएं तो फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है।
तो आइए, शक्ति की आराधना करें, प्रार्थना करें, ऊर्जस्वी बनें, जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति में जुट जाएं। राम को भी रावण वध के लिए 'शक्तिपूजा' करनी पड़ी थी। देवी दुर्गा को सभी देवों के तेज को पुञ्जीभूत रूप में अपनाना पड़ा था तभी 'राक्षस-वध' संभव हुआ। इन्द्र को शक्तिशाली शची ने बनाया तभी 'वृत्रवध' हुआ। आधुनिक युग में हमारे सबसे बड़े शत्रु हैं- 'भ्रष्टाचार' और 'प्रदूषण'। इनके नाश के लिए हम सबको पुञ्जीभूत शक्ति जुटानी होगी तभी सबका कल्याण होगा और इस 'पर्व' का वास्तविक लक्ष्य पूर्ण होगा।
डॉ. प्रवेश सक्सेना
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