विमर्श - इस्लामवाद का हत्यावाद
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विमर्श – इस्लामवाद का हत्यावाद

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Oct 12, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2015 11:45:20

हाल ही में 1,070 से अधिक भारतीय इस्लामी विद्वानों और मजहबी नेताओं ने आईएस के खिलाफ फतवा जारी किया, इस संगठन की सोच को 'गैर इस्लामी तथा अमानवीय' करार दिया। फतवे पर इमाम बुखारी और अजमेर शरीफ, हजरत निजामुद्दीन संस्था, जन्नते उलेमा हिंद, जमीयते अहले हदीस (मुंबई), मोइनुद्दीन कचहचा शरीफ, रजा एकेडमी समेत कई बड़ी इस्लामिक संस्थाओं ने अपनी राय प्रगट की है। फतवे में मुंबई की इस्लामिक संस्था के मंजर हसन खान अशरफी मिस्बाही ने कहा कि आईएस द्वारा जो गतिविधियां चलाई जा रही हैं उनका न तो इस्लाम से कोई संबंध है और न ही उनका समर्थन किया जा सकता है। कुछ अर्से पहले दुनिया के 126 मुस्लिम मजहबी विद्वानों और बुद्धिजीवियों ने खलीफा बगदादी को खुली चिट्ठी लिखकर आईएस की करतूतों की कड़ी निंदा की थी। इससे पहले मिस्र की एक प्रमुख मस्जिद के इमाम भी उसे मुस्लिम विरोधी बता चुके हैं।
 लेकिन आईएस के वीडियो, उसकी पत्रिका दबिक और अन्य प्रचार साहित्य को पढ़ने पर एक बात उभरती है कि इन मौलवियों की बातों में जरा भी दम नहीं है। आईएस को गैर इस्लामिक कहना पांखड है। आईएस एक वहाबी आंदोलन है जो शुद्ध इस्लाम या इस्लाम के मूल स्वरूप पर विश्वास करता है। उसका मानना है कि इस्लाम के चौदह सौ साल पहले की पहली पीढ़ी के यानी मोहम्मद और उनके साथियों की सोच और  तरीके ही शुद्ध इस्लाम है। इसमें किसी तरह का संशोधन करने का मतलब है कि आप इस्लाम के मूल स्वरूप की शुद्धता पर विश्वास नहीं करते। यह मजहब से द्रोह है इसके लिए इस्लाम में एक ही सजा है-मौत। आईएस का मानना है कि बाद की पीढि़यों में शुद्ध इस्लाम में बाहरी प्रभावों की मिलावट हो गई। अपने इस नजरिये के कारण आईएस लोकतंत्र, समाजवाद फासीवाद आदि आधुनिक विचारधाराओं को नकारता है। उसका मानना है कि इस्लाम की पहली पीढ़ी ने जो व्यवस्थाएं पैदा कीं वे ईश्वरीय हैं जबकि अन्य व्यवस्थाएं  मानव निर्मित हैं। वह इन मानव निर्मित व्यवस्थाओं को पूरी तरह से नकारता है। यही वजह है कि वह उन इस्लामवादी दलों को भी  गुनहगार मानता है जो चुनाव में हिस्सा लेते हैं। वह जिस मोहम्मदी इस्लाम में विश्वास करता है, उसके दो स्तंभ हैं खिलाफत और शरिया कानून, जिसे वह ठीक उस तरह लागू करना चाहते हैं जैसे मोहम्मद और उनके साथियों ने अपने समय में लागू किया था। वैसे आईएस इस धारणा को खत्म करना चाहता है कि इस्लाम शांति का मजहब है। उसका कहना है कि इस्लाम से शांति आएगी मगर इस दुनिया के दारुल इस्लाम बन जाने के बाद। जब बाकी सारे मत खत्म किया जा चुके होंगे।
आईएस के खिलाफ इन मौलवियों के बयानों को उदारवादी मुसलसानों के उग्रवादी मुसलमानों के खिलाफ अभियान के तौर पर पेश किया जा रहा है। ऐसे में, जब इस्लाम के नाम पर आतंकवाद का कहर बरपाया जा रहा है, हमारा मुख्यधारा का मीडिया, अकादमिक विद्वान और सरकार हमें बता रही है कि 'आतंकवादी और जिहादियों का अपनाया इस्लाम वास्तविक इस्लाम नहीं है। इस्लाम में कुछ भी बुरा नहीं है लेकिन जिहादियों ने इसका अपहरण कर लिया है। उनका अपना एजेंडा है, उसका वास्तविक इस्लाम से कोई वास्ता नहीं है।' बाद में थोड़ा स्पष्ट करते हुए यह भी कहा जाता है कि 'इस्लाम में उदारवाद और उग्रवादी इस्लाम हैं। इसमें से पहला अच्छा और सच्चा है, जिसे बहुसंख्य मुस्लिम मानते हैं। दूसरा इस्लाम का विकृत रूप है जिसे थोडे़ मुस्लिम मानते हैं।' लेकिन आखिरकार इस्लाम के संदर्भ में इन 'दोनों इस्लामों' का मतलब क्या है? क्या दोनों अलग अलग पैगंबरों को मानते हैं? क्या दोनों अलग मजहबी किताबों को मानते हैं? क्या दोनों मजहबी नजरिए से वैध हैं? यह आखिरी सवाल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि 'इस्लाम अल्लाह और पैंगंबर शब्दों के ईद-गिर्द घूमने वाली मजहबी जीवन पद्धति' है ।
दरअसल उदारवादी और उग्रवादी, यह शब्दावली इस बात पर निर्भर करती है कि कोई उसमें दिए निर्देशों का कितना पालन करता है। लेकिन दोनों में फर्क केवल मात्रा का है, गुणात्मक रूप से कोई फर्क नहीं है, क्योंकि दोनों एक ही मोहम्मद और उनके द्वारा निर्देशित कुरान और हदीस को ही मानते हैं। फिर किसी को उदारवादी और किसी को उग्रवादी कैसे कहा जा सकता है?
कुछ समय पहले केन्या के वेस्टगेट हत्याकांड के बारे में वहां की मस्जिद के मौलवी ने कहा था-'मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा 67 लोगों की हत्या जायज है। कुरान के मुताबिक, मजहब के मुताबिक यह100 प्रतिशत जायज है।' बाद में उसने कहा, उग्रवादी इस्लाम उन लोगों का ईजाद किया हुआ है जो इस्लाम में विश्वास नहीं करते। हमारे यहां तो न उग्रवादी इस्लाम है, न ही उदारवादी इस्लाम। इस्लाम एक ही मजहब है उन लोगों का जो कुरान और सुन्नाह का पालन करते हैं। गौरतलब है कि, जो उसने कहा कि-उग्रवादी इस्लाम उन लोगों की ईजाद है जो इस्लाम में विश्वास नहीं करते। उनका स्पष्ट इशारा पश्चिमी देशों की ओर है, जिन्होंने उग्रवादी इस्लाम शब्द ईजाद किया है।
इस सारे संदर्भ में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि मीडिया और बुद्धिजीवियों द्वारा उग्रवादी बनाम उदारवादी इस्लाम की जो छवि बनाई गई है उसमें कितनी सच्चाई है। हमें इस्लाम के बारे में बताया जाता है कि 'कुरान अल्लाह द्वारा मोहम्मद के जरिये भेजी गई वाणी है।' यह बात तो सारे इस्लामी विश्व में मानी जाती है। यह अगर सही है तो हर मुसलमान जो अच्छा मुसलमान बनने के लिए इसका पालन करता है वह इस्लाम की असली विचारधारा का प्रतिनिधि माना जा सकता है। इसके अलावा अगर हम इस्लाम के इस दावे को भी सही मान लें कि 'कुरान अल्लाह की वाणी से बनी है' तो मनुष्य को दुनिया के रहने तक कुरान का अनुकरण करना है। और 'अल्लाह के नियमों में की परिवर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि अल्लाह  पूर्ण है और उसके द्वारा दिया गया ज्ञान भी दिव्य और परिपूर्ण है इसलिए उसकी वाणी मानव इतिहास में हमेशा प्रासंगिक होगी'। वास्तव में मोहम्मद ने कहा भी है कि 'मुसलमानों को कुरान और हदीस का अनुकरण करना चाहिए।' इस जानकारी के मुताबिक अच्छा मुस्लिम वह है जो इस वाणी का पूरी तरह पालन करता है। इन मान्यताओं और कसौटियों के आधार पर वास्तविक इस्लाम का प्रतिनिधित्व करने वाला सच्चा मुस्लिम वह है जो अल्लाह की वाणी (कुरान) का पालन करता है। इसी आधार पर जो भी इन नियमों की उपेक्षा करता है उसे इस्लाम का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। उसे सच्चा मुस्लिम या  केवल मुस्लिम भी नहीं कहा जा सकता। इस तर्क पद्धति के जरिये उग्रवाद और उदारवाद का द्वैत खत्म हो जाता है। इसके आधार पर आईएसआईएस का बगदादी हो या अल कायदा का लादेन या तालिबान का मुल्ला उमर या बोको हराम का शेकू, वे उग्रवादी मुस्लिम हैं, 'वे कुरान और अल्लाह के मजहबी, राजनीतिक और सामाजिक कानूनों को शब्दश: मानते हैं'। भले ही उन्होंने मानवता के खिलाफ अपराध किए हों, वे 'सच्चे मुस्लिम और इस्लामी विचारधारा, कुरान के शब्दों का, मोहम्मद की शिक्षा का प्रतिनधित्व करने वाले' माने जाते हैं, क्योंकि वे इस्लाम के नियमों का पालन करते हैं। जिन्हें उदारवादी मुस्लिम कहा जाता है वे भी इसी कुरान और हदीस के निर्देशों का पालन करना अपना फर्ज समझते हैं। जब दोनों एक ही झरने का पानी पी रहे हैं तो एक उग्रवादी और दूसरा उदारवादी कैसे हुआ?
कुल मिलाकर बात यह है कि यदि इस्लाम कहता है, जिहाद करो और कोई मुस्लिम वह करता है तो उसे उग्रवादी या उदारवादी के खांचे में कैसे डाला जा सकता है? यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि इस्लाम की शिक्षा उग्रवाद की है इसलिए मुस्लिम को वैसा होना पड़ता है। लेकिन अगर कोई मुस्लिम इस्लाम की शिक्षाओं को नहीं मानता है तो उसे उदारवादी नहीं कहा जा सकता, वह अल्लाह के निर्देशों का पालन नहीं कर रहा इसलिए यह कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि वह मुस्लिम है ही नहीं।
इसलिए अब समय आ गया है जब हम इस बात को समझें कि उग्रवादी और उदारवादी इस्लाम की सोच पश्चिमी देशों की सेकुलर सोच की उपज है। यहां सवाल उठता है कि मुस्लिम यदि अल्लाह का निर्देश मानते हैं तो सभी मुस्लिम सारे गैर मुसलमानों के साथ जिहाद की घोषणा क्यों नहीं कर देते? उसका एकमात्र जवाब यह है कि उनमें आयतों में दिए निर्देशों का पालन करने की  क्षमता नहीं है और इस्लाम उन्हें इस बात की इजाजत भी देता है कि ऐसी क्षमता प्राप्त होने तक निर्देश में दी गई जिम्मेदारी टाल सकते हैं। वैसे ऐसा करना मूर्खतापूर्ण और आत्मघाती भी होगा। यदि सऊदी अरब कल घोषणा कर दे कि दुनिया के बाकी लोग या तो इस्लाम कबूल करें या जजिया दें, पर उसे लागू कराने की अभी उसमें क्षमता उसमें नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं हैं कि जब उसमें क्षमता आ जाएगी तो वह ऐसा नहीं करेगा।
 एक यूरोपीय लेखक डेनियल ग्रीनफिल्ड ने 'फ्रीडम आउटपोस्ट' पर अपनी पोस्ट में लिखा है-'11 सितंबर के बाद से मैं उदारवादी इस्लाम को खोज रहा हूं। लेकिन लेकिन मुझे वह न मस्जिद में मिला, न मक्का में। आपको वह न कुरान में मिलेगा न हदीस में मिलेगा। यदि आप उदारवादी इस्लाम को खोजना ही चाहते हैं तो किसी आतंकवादी हमले के बाद अखबारों के संपादकीयों को खंगाल लीजिए। उदारवादी इस्लाम आपको ईरान और सऊदी अरब में भी नहीं मिलेगा। लेकिन वह आपको टीवी चैनलों की अनंत बहसों, पत्रिकाओं के लेखों और पुस्तकों में मिल सकता है। आपको उदारवादी इस्लाम का स्वर्ग न पूर्वी देशों में मिलेगा न पश्चिमी देशों में बल्कि हर दंतकथा की तरह वह किस्सागोई करने वालों के दिमागों में मिलेगा। उदारवादी इस्लाम वह नहीं है जिस पर मुस्लिम विश्वास करते हैं वरन् उदारवादी इस्लाम वह इस्लाम है जिसके बारे में 'लिबरल' बुद्धिजीवी यह सोचते हैं कि मुसलमानों को इस इस्लाम पर विश्वास करना चाहिए। पश्चिम की नजर में उसके बहुसांस्कृतिक समाज की जो पांथिक किताबें हैं वही उदारवादी इस्लाम हैं।' ग्रीनफील्ड कहते हैं-'दरअसल उदारवादी इस्लाम नाम की चिडि़या भले ही अस्तित्व में न हो लेकिन यदि उदारवादी इस्लाम नहीं होगा तो बड़ी तादाद में आव्रजकों को बसाने की समाजवादी परियोजना ढह जाएगी। अमरीका का आतंक के खिलाफ युद्ध आईएस के खिलाफ अंतहीन उबाऊ  युद्ध बन जाएगा। बहुसंस्कृतिवाद, उत्तर राष्ट्रवाद के मिथक चरमराकर ढह जाएंगे। उदारवादी मुस्लिमों का मिथक नहीं होगा तो राष्ट्रवाद लौट आएगा और सीमाएं सील करनी होंगी। दक्षिणपंथ जीत जाएगा, यही उनकी चिंता है। यदि उदारवादी मुस्लिम, उदारवादी इस्लाम, उदारवादी मोहम्मद और उदारवादी अल्लाह का मिथक नहीं होगा तो यूरोप के उदारवादी राज्य इतिहास के कूड़ेदान में चले जाएंगे।'
उदारवादी इस्लाम एक अजीब किस्म का मजहब है। उस पर विश्वास करने के लिए हमें तेरह सौ साल के प्रामाणिक दस्तावेजों से युक्त इतिहास को भुलाना होगा। आपको जिहाद के नाम पर किए गए जघन्य अत्याचारों को भुलाना होगा, क्योंकि वे बहुसंख्य मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे थे। इसके बावजूद वे वास्तविक इस्लाम के बारे में कुछ भी जाने बगैर उस पर भाषण देने को तैयार रहते हैं। उनका इस्लाम मोहम्मद, कुरान, हदीस, खलीफाओं या सऊदी अरब, पाकिस्तान, ईरान, इराक और इंडोनेशिया में उनके हम-महजहबियों द्वारा माना जाने वाला मजहब नहीं है। उनका इस्लाम वह इस्लाम है जिसका अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन फिर भी विश्वास करते हैं कि उसका अस्तित्व है, क्योंकि उसके बगैर उनका जीवन डूब जाएगा। ये लोग मुस्लिम नहीं हैं। उनका अल्लाह और कुरान में कोई विश्वास भी नहीं है। लेकिन उनका इस्लाम की अच्छाई पर विश्वास है, जो बिना मजहबी किताबों के अस्तित्व में है। जब अमरीकी और यूरोपीय नेता पुरजोर तरीके से यह बात कहते हैं कि मुस्लिमों द्वारा पालन किए जाने वाले मजहब का आज के जिहादियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों से कोई ताल्लुक नहीं है, तब वे काल्पनिक इस्लाम की बात कर रहे होते हैं जिसके बारे में मानना है कि मुसलमानों को ऐसे मजहब का पालन करना चाहिए। क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनके अपने सारे विश्वास टूट जाएंगे।
जैसे पश्चिमी देशों में उदारवादी इस्लाम के पैरोकार 'लिबरल', वामपंथी या बहुसंस्कृतिवादी लोग हैं, वैसे ही भारत में सेकुलर, गांधीवादी, वामपंथी और समाजवादी लोग हैं जिन्होंने कसम खा रखी है कि वे इतिहास से कुछ नही सीखेंगे। वे भी उदारवादी और उग्रवादी इस्लाम की बात करते हैं। आईएस ने अपने प्रभाव वाले इलाके में गुलामी की व्यवस्था को पुनर्जीवित किया। मुस्लिम काल में भी गुलामी की व्यवस्था खूब पनपी थी। आईएस गैर मुस्लिमों पर जजिया लगा रही है, मुस्लिम शासन के दौरान भी जजिया लगाया गया था। नरसंहार आईएस के लिए आम बात है। भारत में मुस्लिम काल में सिर कलम करना आम बात थी। जबरन कन्वर्जन आईएस भी कर रही है और मुस्लिम काल में भी यह होता था। इसलिए आईएस जो कर रही है उससे कहीं गुना ज्यादा हिंसा भारत ने मुस्लिम शासनकाल के दौरान देखी थी। कुछ वर्ष पहले तालिबान ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी थीं तो भारत में मुस्लिम शासन के दौरान हजारों मंदिर तोड़ दिए गए थे। तो इनमें से आप किसे उदारवादी और किसे उग्रवादी कहेंगे? दरअसल जिन किताबों से प्रेरणा लेकर उग्रवादी आतंक फैला रहे हैं उन्हीं किताबों पर आम मुसलमान भी विश्वास करता है। जिहाद में जीतने वाले को गाजी मानता है, जिहाद करने वाले को मुजाहिद। वह मानता है कि जिहाद करने वाले को तुरंत जन्नत नसीब होती है। हमारे देश के एक मुस्लिम पत्रकार ने अपने लेख में लिखा था-पाकिस्तान में मांएं अपने बेटों को आतंकवादी या जिहादी बनने को भेजती हैं ताकि जन्नत में उनकी जगह पक्की हो जाए। तसलीमा नसरीन की पुस्तक 'लज्जा' में एक जगह जिक्र है-'फैजुल की मां अक्सर उससे कहती, मौलवी बुलाती हूं, कलमा पढ़कर मुसलमान हो जाओ। माया के पिताजी को भी समझाओ।' तो लोगों को मुसलमान बनाने का भूत सुल्तानों और बादशाहों पर ही नहीं आम मुसलमान पर भी सवार रहता है। लव जिहाद उसकी मिसाल है।
भारत में कई बार देखा गया है कि उग्रवादी इस्लाम और उदारवादी इस्लाम एक ही हैं। 1920 में केरल के आम मोपला मुसलमानों ने हजारों हिन्दुओं की हत्या की, हजारों का कन्वर्जन किया। यह सब उस समय हुआ जब भारत में हिन्दू और मुसलमान मुस्लिम खिलाफत के लिए आंदोलन चला रहे थे। जिस उत्तर भारत में 'गंगा-जमुनी संस्कृति' की बात चलती थी वहीं से पाकिस्तान की मांग उठी। भारत में बहुसंख्य मुस्लिम सूफी या बरेलवी हैं, जो बहुत उदारवादी और बहुलतावादी माने जाते हैं। वही पाकिस्तान के आंदेलन में सबसे आगे थे। देवबंदी तो पाकिस्तान के खिलाफ थे, क्योंकि वे राष्ट्र पर यकीन ही नहीं रखते। जिन्होंने पाकिस्तान के लिए सैकड़ों दंगे किए, 'डायरेक्ट एक्शन' जैसा हिंसक आंदोलन किया। विभाजन के दौरान लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा। वे सब तथाकथित उदारवादी सूफी ही तो थेे। भारत में यूं तो कई मुस्लिम संप्रदायों के लोग आए लेकिन धीरे-धीरे उदारवादी सूफीवाद को मानने वाले मुख्यधारा बन गये। और ऐसा था उनका उदारवाद। इनमें शेख अहमद सरहिन्दी, शाह वलीउल्लाह, सैयद अहमद बरेलवी, करामत अली, सर सैयद अहमद खान, अल्लामा इकबाल, ये सभी बरेलवी यानी सूफी परंपरा के समर्थक थे। अकबर के शासनकाल में सूफी शेख सरहिन्दी ने समकालीन हिन्दू संतों के खिलाफ अभियान चलाया और हिन्दुओं पर से जजिया हटाये जाने का विरोध किया। जब जहांगीर ने सरहिन्दी के तेवर में बगावत देखी तो उसे ग्वालियर में गिरफ्तार करवा दिया। सरहिन्दी की ही तरह नक्शबंदी समुदाय के दूसरे आलिम शाह वलीउल्लाह ने हिन्दूद्रोही अभियान चलाया। शाह वलीउल्लाह 18वीं सदी में मराठों और जाटों के बढ़ते प्रभाव से क्षुब्ध थे। उन्होंने 1750 के दशक में इस्लाम की रक्षा के लिए अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली को दिल्ली पर कब्जा करने का निमंत्रण दिया था। सैयद अहमद बरेलवी ने गैरमुस्लिम  शासकों के खिलाफ इस्लामी जिहाद शुरू किया। शाह वलीउल्लाह और वहाब की विचारधारा के आधार पर देवबंद की नींव पड़ी। एक तरह से पाकिस्तान सूफी बरेलवी आंदोलन से उपजा देश था, लेकिन वहां हिन्दू, सिख और ईसाई अल्पसंख्यकों का क्या हश्र हुआ? उदार सूफियों के सत्तारूढ़ होने के बावजूद हिन्दू और सिख पाकिस्तान में खत्म हो गए। बंगलादेश में हिन्दुओं की संख्या आधी रह गई। यह बताता है कि मुस्लिम सेकुलर होते ही नहीं। वे पूरी दुनिया को दारुल इस्लाम बनाने पर तुले हैं।
जाने-माने लेखक सलमान रुश्दी कहते हैं-'मुसलमान जब अल्पसंख्यक होते हैं तब वे सेक्युलर होने का दिखावा करते हैं, लेकिन जब वे बहुसंख्यक हो जाते हैं तब वे तमाम गैर-मुसलमानों को मौत के घाट उतार देते हैं। दुनिया में 56 मुस्लिम बहुसंख्यक देशों में से एक भी सेक्युलर नहीं है, सभी इस्लामिक हैं।'इन देशों में संविधान हंै मगर उनके ऊपर शरिया होता है और संविधान की जो बातें शरिया के अनुरूप नहीं होतीं उन्हें खारिज मान लिया जाता है। शरिया आईएस ने भी लागू किया है। पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में, जहां शरिया लागू करना संभव नहीं है वहां मुसलमानों ने अपने कई क्षेत्रों को 'शरिया शासित क्षेत्र' घोषित कर रखा है। आखिर हम किसे उग्रवादी और किसे उदारवादी कहें?   -सतीश पेडणेकर

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