|
विषय का केन्द्र है फादर जूनीपेरो सेरा, जिस पर अमरीका में नरसंहार का आरोप है। फिर भी उसे पोप फ्रांसिस ने ‘संत’ का पद दिया। इसलिए अमरीका में उन की अत्यंत आलोचना हो रही है।
15वीं सदी में अमरीका में कोलंबस के आने के बाद जिन यूरोपीय मिशनरियों ने वहां के स्थानीय समुदाय के लोगों को अत्याचार, कन्वर्जन एवं नरसंहार के माध्यम से इस किनारे से उस किनारे तक पीछे हटाया और हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि पर अपना वर्चस्व बनाया, ऐसे एक मूल स्पेनिश मिशनरी को ‘संतई’ प्रदान करने के पोप फ्रान्सिस की अगुवाई में हुए कार्यक्रम के कारण अमरीका तथा दुनिया में भी आलोचनाओं की बौछार हो रही है। अर्थात् यहां ऐसे मामले बार-बार होते रहते हैं। विश्व के 125 देशों में मिशनरियों और यूरोपीय देशों ने इसी तरह साम्राज्य फैलाया है। इसलिए उन देशों के स्थानीय लोगों में नाराजगी तो होगी ही। लेकिन अब वे संगठित हो रहे हैं। अभी वेटिकन प्रमुख पोप फ्रान्सिस पांच दिन के अमरीका दौरे पर थे। अनेक राजनीतिक कार्यक्रमों में सहभागी होने की दृष्टि से उनका यह अमरीकी दौरा हुआ था। इस दौरे में उन्होंने अमरीकी राष्टÑपति बराक ओबामा से मुलाकात की। इससे पूर्व वे साम्यवादी वर्चस्व वाले देश क्यूबा जाकर वहां के तानाशाह शासक कास्त्रो से मिल आए थे।
संयुक्त राष्टÑ संघ की 70वीं वर्षगांठ चल रही है और इस उपलक्ष्य में 70 से ज्यादा देशों के प्रतिनिधि अमरीका में हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ भी इसमें शामिल हो चुके हैं। इस दौरान पोप द्वारा 19वीं शताब्दी में यूरोपीय सेना की मदद से स्थानीय लोगों का नरसंहार करने के आरोपी फादर जूनीपेरो सेरा को संतई प्रदान की गई है। किसी व्यक्ति को जब संत पद प्रदान किया जाता है तब आमतौर पर यह देखा जाता है कि उसके द्वारा क्या जनसेवा की गई है। लेकिन यहां तो कसौटी इसकी की गई कि उसकी नरसंहार करने और कन्वर्जन करवाने की क्षमता कितनी है। अमरीका में इस कार्यक्रम के बाद से अनेक देशों के नेताओं ने, अपने-अपने देश में पोप द्वारा किस-किस को संतई दी गई है, इस पर चर्चा शुरू की है। भारत में सेंट जेवियर ने नरसंहार के माध्यम से कन्वर्जन किया। अन्य 125 देशों का लगभग वैसा ही इतिहास होने के कारण, वहां भी जेवियर जैसे व्यक्ति को ही ‘संत’ बनाने से अमरीका में फादर जूनीपेरो सेरा को इस तरह महिमामंडित करने के मुद्दे को अंतरराष्टÑीय महत्व मिला है। ईसाइयत में संतई के मुद्दे को अचानक एक भारतीय ‘एंगल’ मिला है। यह भारतीय कोण यह है कि अमरीका के मूल 500 में से 250 समुदाय, जो खुद को गर्व से ‘इंडियन’ कहलाना पसंद करते हैं, उन्होंने ही इस मुद्दे पर अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए मोर्चा खोला है।
पोप द्वारा किसी मिशनरी को संतई प्रदान करना जबकि उसकी पृष्ठभूमि वहां हुए यूरोपीय आक्रमण को मदद करने वाली होना, इस पर आज भी गंभीरता से विचार होने की आवश्यकता है। कभी अमरीका, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में अंधाधुंध ईसाईकरण करने वाले ईसाई मिशनरियों द्वारा ‘21वीं शताब्दी में पूरे एशिया, खासकर भारत को ईसाई बनाएंगे’ की घोषणा किए जाने से साफ होता है कि वे गोवा में जेवियर और कैलिफोर्निया में जूनीपेरो के इतिहास की ही पुनरावृत्ति करने के उद्देश्य से आएंगे। भारत जैसे देश को इस पर गंभीर नजर डालने की आवश्यकता है। इस बारे में अमरीका की आज स्थिति यह है कि 500 वर्ष पूर्व कोलंबस के अमरीका पहुंचने के बाद ही वहां अलग-अलग देशों के मिशनरियों और सैनिकों ने एक-एक समुदाय को पीछे धकेलना शुरू किया था। पिछले 500 वर्ष का उनका इतिहास यह है कि उन्होंने स्थानीय समुदायों को पराजित करने के लिए सतत मुहिम चला रखी थी । दुर्भाग्य से वह मुहिम आज भी चालू है। लेकिन पिछले 500 वर्षों में, कन्वर्जन, आक्रमण, अलग-अलग प्रदेश कब्जे में लेना, उनको लूटना और जो प्रतिकार करें उनका सीधे-सीधे नरसंहार करना, इसके कारण ही आज पूरी दुनिया अमरीका-यूरोप के अधीन दिखती है। 500 वर्ष पूर्व वाला समुदाय आज 500 जनजातियों में विभाजित हो चुका है। आज उनका विभाजन ‘नोटिफाइड’ और ‘अंननोटिफाइड ट्राइब’ के नाम से किया गया है। उन्हें केवल शराब के अड्डे चलाने, जुए के अड्डे चलाने जैसे काम दिए जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में उनकी अगली पीढ़ी शिक्षित हो चुकी है, लेकिन उन पर दबाव का तंत्र आज भी जारी है। भारत में भी ब्रिटिश हुक्मरानों ने उनका विरोध करने वाली जातियों को चोर, डकैत जातियां करार दिया था। इसमें गंभीरता से देखने वाली बात यह है कि सारी दुनिया में जहां मिशनरियों का अथवा अथवा यूरोपीय देशों का वर्चस्व है, वहां हर एक देश में कम-अधिक रूप में यह चीज समान है। इसमें संतोष की बात यह है कि यह पूरा समुदाय अब संगठित हो रहा है। अब से पांच वर्ष बाद जब जूनीपेरो सेरा जैसे कथित नरसंहार रचाने वाले मिशनरी को ‘संत’ का रूप दिया जाएगा तो उसी स्थान पर उस नरसंहार का जान की बाजी लगाकर विरोध करने वाले उन देशों के भगतसिंह जैसों को ‘मार्टियर आॅफ ह्यूमेनिटी’ जैसे तमगे दिए जाएंगे।
24 नवम्बर,1713 के दिन स्पेन में जन्म लेने वाले जूनीपेरो सेरा के नाम पर अमरीका में कैथोलिक पंथ की स्थापना करने का सेहरा बांधा जाता है। कैलिफोर्निया में शुरू हुए 21 में से 9 स्पेनिश मिशन्स की स्थापना उसने की थी। अमरीका में यद्यपि कोलंबस पहले पहुंचा था, लेकिन बाद में ब्रिटिश लोगों द्वारा बढ़त लेने के कारण वहां प्रोटेस्टेंट पंथ की ही वृद्धि हुई। उस अवसर पर जिन्होंने कैथौलिक पंथ की वृद्धि की उन्हें उसका ईनाम संतई प्रदान करके दिया जाता है। कैलिफोर्निया में उसका विशेष कार्य है, फिर भी मेक्सिको में उसने मिशनरियों के अनेक कार्यों की शुरुआत की इसलिए इस हिस्से को न्यू स्पेन का ही नाम दिया गया। इसमें चौंकाने वाली बात यह है कि इन स्पेनिश मिशनरियों की अगुआई में कुछ ‘इंक्विजीशन’ भी रचे गए थे। ईसाई लोगों का कहना है कि विश्व में किसी को भी तारने की क्षमता और अधिकार केवल ईसाई मत-प्रचारकों को ही है। विश्व के किसी भी अन्य मत में किसी का भी उद्धार नहीं होता। इतना ही नहीं, यदि कोई व्यक्ति ईसाई मत की ‘कृपा’ नहीं स्वीकारता हो तो उसे दंड देने का अधिकार उस स्थान के डायोसिस को है। यह दंड जान लेने से लेकर उसका एक एक अंग निकालने, आंख निकालने तक का हो सकता है। इसके यहां उल्लेख कारण यह है कि ये ‘इंक्विजीशन्स’ भारत में ही बड़े पैमाने पर हुए हैं। ये चाहे भारत में हों अथवा अमरीका या अफ्रीका में, वहां लाखों लोगों का नरसंहार, कन्वर्जन और अगली अनेक सदियों के लिए गुलामी लादने का ही हर तरफ इतिहास है।
सारी दुनिया से अधिक अमरीका में एक चमत्कार यह है कि वहां रहने वाले यूरोपीय लोगों को अमरीकी कहते हैं और भारतीय मूल के लोगों को ‘इंडियन’ कहते हैं। स्थानीय लोगों का उल्लेख ‘इंडियन’ के तौर पर करना केवल कागजातों तक सीमित नहीं है। सरकारी दफ्तरों में भी यही उल्लेख होता है, स्कूली पाठ्यक्रमों में भी यही उल्लेख है और इतिहास के ग्रंथों में भी यही उल्लेख है। एशिया महाद्वीप के ‘इंडिया’ से ये ‘इंडियन’ अमरीका में कब आए, इस पर अभी भी विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोगों का कहना है कि सन् 1492 में कोलंबस अमरीका में आया तब उसे पूरा अमरीका ‘इंडिया’ ही लगा था।
फिलहाल अमरीका में अहलोन समुदाय की ओर से अमरीका में अलग-अलग स्थानों पर प्रदर्शन जारी हैं। उनका कहना है कि 500 वर्ष पूर्व कैलिफोर्निया और आसपास के हिस्सों में 50 जिलों से अधिक क्षेत्र में अहलोन समुदाय बहुसंख्यक था। 18वीं सदी में स्पेनिश मिशनरियों के आक्रमण से यह योद्धा समुदाय जबरदस्त रूप से पराजित हुआ था। अब यह समुदाय केवल 10 प्रतिशत बचा है। इस समुदाय के प्रतिनिधियों का आरोप है कि इन पोप की कथनी और करनी अलग-अलग है। पिछले 500 वर्षों में मिशनरियों ने ईसाईकरण करते हुए जिन लोगों पर अन्याय किया हो, उनके बारे में पोप ने सारी दुनिया से माफी मांगी। यदि वह दिल से ऐसा कर रहे थे तो फिर एक तरफ माफी मांगना और दूसरी तरफ नरसंहार करने वाले को ‘संत’ घोषित करना, यह बात वे विश्व के सामने रखने वाले हैं। दूसरी बात यह कि संत घोषित करने की प्रक्रिया में आवश्यक बातों को इस बार छोड़ दिया गया था। यानी किसी व्यक्ति को ‘संत’ के तौर पर घोषित करने का निर्णय होने पर उस पर लोगों से आपत्तियां मंगाई जाती हैं एवं ‘वह’ व्यक्ति संत पद के लायक नहीं है, यह साबित करने वाली आपत्तियां आने पर उन पर गौर करने की एक स्वतंत्र कार्यपद्धति होती है। लेकिन इस मामले में इस प्रक्रिया को भी ताक पर रखा गया।
विश्व के नजरिए से इसमें गंभीर बात यह है कि जिन 125 देशों में पिछले 300 से 500 वर्षों के दौरान यूरोपीय लोगों ने गुलामी बरपाई थी उसके पीछे फादर जूनीपेरो सेरा जैसे इंक्विजीशन करने वाले मिशनरियों का हाथ था। बीती पांच शताब्दियों में उन देशों में कितने बली चढ़े, कितनी लूट हुई और कन्वर्जन के कारण वहां कितना वर्ण संकरीकरण हुआ, इसका कोई हिसाब नहीं था। तब केवल मिशनरियों को दोष देकर बैठ जाना पड़ता था। आज यूरोपीय आक्रमणों के समय में विश्व की हर तरह की हानि का अध्ययन करने वाले गुट पूरी दुनिया में बन गए हैं और जिन पर अयाचार हुए वे भी संगठित होने लगे हैं। यह मामला और भी सुनियोजित पद्धति से हो तो एक दिन पूरे यूरोप को अपने पिछले 500 वर्षों के पाप का हिसाब देना पड़ेगा।
मोरेश्वर जोशी
टिप्पणियाँ