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कुंभ से लौटकर श्रीश देवपुजारी
भारत की हिन्दू जनता के जो आस्था के विषय हैं उनमें एक है कुंभमेला। किन्तु सभी आस्थावानों को इस मेले मे सम्मिलित होने का सुअवसर कदिाचत ही प्राप्त होता है। मैंने भी अपने जीवन के 59 वे वर्ष में नासिक सिंहस्थ कुंभ में सम्मिलित होने का समय निकाला। इच्छा तो पहले भी थी, पर संयोग नहीं बन पाया था। इस बार तीन माह पूर्व आरक्षणादि कर यह सुनिश्चित कर लिया गया था कि अबकी बार कुंभ में सम्मिलित होना ही है।
पूर्व धारणाओं से प्राप्त अत:करण के साथ मैं 3 सितम्बर को 'कुंभ' पहुंचा। आठ-आठ दिन मिलाकर कुल 16 दिन के दो बार के वास्तव्य में मेले के कुछ अतरंग को जानना संभव हुआ। यह तो ध्यान में आया कि कुंभ पहुंचने की इच्छा मेरी आयु के आस-पास पहुंचे लोगों को ही अधिक होती है। जीवन की वास्तविकता से परिचित मन व्यर्थ की सांसारिक उलझनों से दूर कुछ समाधान की प्राप्ति हेतु कुंभ पहुंचता है। यहां हर दिन सायं 3 से 7 बजे तक कई खालसा या अखाड़ों में प्रवचन हुआ करते थे। जिन किन्हीं कथावाचकों के नाम पहले सुन रखे थे उनमें से कई कुंभ में उपस्थित थे इस कारण कथा में पहुंचने की इच्छा बलवती होती थी। एक-साथ कई कथावाचकों की वाणी का आस्वादन कर पाना यह दुर्लभ कार्य कुंभ में ही संभव है। स्थापित कथावाचकों के साथ-साथ नौसिखियों ने भी अपनी सेवाएं) प्रदान कीं।
विशेष कार्यक्रम
यह मेला कथाओं के साथ-साथ वेदों की किसी एक शाखा का पारायण, यज्ञ, रामलीला, कीर्तन, विविध प्रकार के सम्मेलन इत्यादि से व्याप्त था। सबके लिए पारलौकिक इच्छाओं की पूर्णता का यह सुनहरा अवसर था। किन्तु दक्षिण तथा पूर्व भारत की न्यून सहभिागता से कुंभ वंचित सा लग रहा था। क्या कारण रहे होंगे यह तो अन्वेषण का विषय है किन्तु कुछ विशिष्ट स्थापित सुकीर्तिमान महात्माओं, शंकराचायोंर् एवं संतों की कुंभ से दूरी अखर रही थी। हो सकता है अन्य कुंभ नगरियों की तुलना में नासिक नगरी में स्थान के अभाव के कारण ऐसा हुआ हो। आशा है उज्जैन में यह कमी पूरी हो जाएगी। सबको ज्ञात है कि अगले वर्ष सिंहस्थ कुंभ उज्जैन नगरी में सजने वाला है।
कथाओं का होना तो सामान्य जनों के लिए अनिवार्य है। किन्तु कुछ सम्मेलन तो साधुओं के लिए भी थे। जैसे विश्व हिन्दू परिषद् द्वारा आयोजित 6 सितम्बर का संत सम्मेलन। इसमें रामजन्मभिूम पर राम मन्दिर बनाने का संकल्प दोहराना तो स्वाभिावक ही था, किन्तु उसके लिए न्यायालय एवं केन्द्र सरकार इन दोनों की पहल की प्रतीक्षा करने का ही मानस प्रकट हो रहा था। इस कारण आदोलन की बात मुखर रूप से सामने नहीं आई। 'गोरक्षा'और 'जनसंख्या का असंतुलन' ये विषय उठाए गए और उन पर प्रस्ताव भी पारित हुए।
धर्माचायोंर् का संस्कृत के प्रति लगाव तो स्वाभिावक है। ऐसे में पू. जगदगुरु रामानुजाचार्य वासुदेवाचार्य 'विद्या भास्कर' जो कि स्वयं शास्त्रों के अध्येता एवं भाषा पर पूर्ण अधिकार रखने वाले हों तो वे संस्कृत सम्मेलन का आयोजन करने में क्यों पीछे रहते! उनके बुलावे पर 50-60 धर्माचार्य और 500 के लगभग संस्कृतानुरागी 16 सितम्बर को जुटे। किन्तु दुर्भाग्य से संस्कृत में बोलने में समर्थ वे अकेले धर्माचार्य ही थे। अन्य कुछ विरले संस्कृत-सम्भाषण-समर्थ आचार्य कुंभ में थे, किन्तु वे अपनी-अपनी व्यस्तताओं के कारण नहीं पहुंच पाए। 'नासिक'और 'त्र्यंबक' कुंभ के दो हिस्से थे। नासिक में जहां केवल वैष्णव आचार्यों के शिविर थे वहां त्र्यंबक में शैव आचार्य के। केवल वैष्णव आचार्य को संस्कृत सम्मेलन का निमंत्रण था। शैव आचार्य के बिना संस्कृत सम्मेलन अधूरा था। इसलिए उज्जैन के कुंभ में संस्कृत भारती को या उज्जैन स्थित 'संस्कृत अकादमी' अथवा 'संस्कृत विश्वविद्यालय' को आयोजन की पहल करनी चाहिए। महाराष्ट्र प्रांत के कोंकण हिस्से में स्थािापत पीठाधीश्वर पू. जगदगुरु शंकराचार्य नरेन्द्र महाराज (नाणिज) का शिविर धर्मजागरण के साथ-साथ राष्ट्रजागरण का कार्य भी कर रहा था। नारदीय कीर्तनकार चारुदत्त आफले (पुणे) के 24 कीर्तनों ने कुंभ मेले में राष्ट्रभक्ति का अलख जगाया। नरेन्द्र महाराज के सम्प्रदाय में दीक्षित राष्ट्र भक्तों की एक दिन प्रात: निकली शोभायात्रा ने तो सभी को विस्मित कर दिया। अनुशासित, सुव्यवस्था, गेरुए रंग में रंगी शोभायात्रा में एक लाख से अधिक नर-नारी सम्मिलित थे।
व्यवस्थाएं
नासिक कुंभ का सबसे आकर्षक हिस्सा था उसकी व्यवस्था। महाराष्ट्र के कबीना मंत्री श्री गिरीश महाजन, सभी सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी तथा महानगर निगम के पदाधिकारियों को साधुवाद। कु_ंभ क_ी स्वच्छता को देखकर तो स्वयं प्रधानमत्री भी प्रसन्न होते। 'स्वच्छ 'कुंभ','सुव्यवस्थित कुंभ' इत्यादि विशेषणों से इस कुंभ को नवाजा जाएगा।वैष्णव आचार्यों के सम्मेलन में गिरीश महाजन को सम्मानित किया गया। कुंभ की व्यवस्था में स्वच्छता के साथ-साथ मार्ग, आवागमन, सुरक्षा, जल इत्यादि पहलुओं पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया था। आने वाले कुंभों के लिए यह एक अनुकरणीय उदाहरण रहा। निासक के कुंभ में चार चांद लगा दिये अन्नक्षेत्रों ने। छोटे बड़े अन्नक्षेत्रों की सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं रही। बड़े आग्रहपूर्वक अल्पाहार, भोजन, चाय इत्यादि कराया जाता था। किसी के भूखे रहने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। उसमें उल्लेखनीय रहा गुजरात के संत बाप्पा का अन्नक्षेत्र।
वैसे इस्कॉन का अन्नक्षेत्र सुस्वादु भोजन के लिए प्रसिद्ध रहा। इन अन्नक्षेत्रों को महाराष्ट्र राज्य शासन ने राशन की दुकान वितरित किए जाने वाले धान्य के अनुदानित मूल्य में अनाज उपलब्ध करवाया था। नासिक कुंभ को यशस्वी बनाने में वातावरण का भी योगदान कम नहीं था। पूरे एक महीने भर उष्णता रहित स्वच्छ मौसम के कारण यात्रियों को कष्ट कम हुआ यद्यपि वर्षा काल था। फिर भी मेले के उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ में हल्की और बाद में तीव्र वर्षा हुई।
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