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केन्द्रीय उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण मंत्री और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे श्री शांता कुमार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पुनर्गठन पर सुझाव देने वाली उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष के नाते सरकार को अनाज के उचित भंडारण और कृषि में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिए हैं। इस संदर्भ में प्रस्तुत हैं पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी और श्री शांता कुमार के बीच हुई बातचीत के प्रमुख अंश।
खेत सिमटते जा रहे हैं और शहर फैलते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण क्या है?
खेत और खेत पर काम करने वाले किसान भी घटते जा रहे हैं। इसका एक कारण है बढ़ता औद्योगिकीकरण और उसके लिए जमीन का अधिग्रहण। साथ ही जनसंख्या विस्फोट भी हो रहा है। आज जनसंख्या पर लगाम लग जाए तो बहुत सी समस्याएं सुलझ जाएंगी। गांवों से लोगों का शहर की ओर पलायन रोकना बहुत जरूरी है। स्मार्ट सिटी के बनने से छोटे शहर कहीं स्लम में न बदल जाएं, इसकी हमें चिंता करनी होगी।
लेकिन उन किसानों का क्या जो खेती में घटते मुनाफे और पल्ले से लगते पैसे से तंग आकर शहर में मजदूरी करने लगे हैं?
आजादी के बाद, दुर्भाग्य से सबसे महत्वपूर्ण व्यवसाय खेती आज तक सबसे उपेक्षित ही रही। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि अभी तक 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। मैं बधाई देना चाहता हूं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोेदी को, जिनकी पहल पर 45 साल बाद हमने (ओआरओपी लागू करके) जय जवान के नारे को सार्थक किया। लेकिन अभी जय किसान नारे को सार्थक करना बाकी है। हालांकि खेती किसानी के हित में कुछ प्रयास तो शुरू हुए हैं पर वे काफी नहीं हैं। जब तक जय किसान नारा सार्थक नहीं होगा भारत की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होंगी।
सकल घरेलू उत्पाद में खेती की घटती हिस्सेदारी पर क्या कहेंगे?
बहुत कम। विश्व भर में यह मान लिया गया है कि खेती का व्यवसाय लाभप्रद नहीं है। लेकिन खेत के बिना जीवन भी नहीं है इसलिए बहुत से देश किसान को खेत से जोड़े रखने के लिए उसे प्रत्यक्ष आय की सुविधा देते हैं। अमरीका में महज 25 लाख किसान हैं, पर उनको प्रति किसान 70 लाख रु. प्रतिवर्ष प्रत्यक्ष आय सहायता दी जाती है। प्रधानमंत्री ने हमारी जो कमेटी बनाई थी उसमें हमने सुझाव दिया था कि भारत सरकार 70 हजार करोड़ रु. उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी के तौर पर देती है, लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियां झूठे कागजों के बल पर उसका बड़ा हिस्सा हथियाती हैं। हमने कहा था कि यह 70 हजार करोड़ रु. की सब्सिडी सीधे किसान के खाते में प्रत्यक्ष आय सहयोग के तौर पर जमा करानी चाहिए। इससे एक किसान के खाते में हर साल 10 हजार रु. आ जाएंगे। किसानों को संबल मिलेगा, वे खुदकुशी नहीं करेंगे।
जैविक खेती की दिशा में क्या सुझाव दिए गए?
समिति का सुझाव है कि उर्वरक सब्सिडी बंद होने से बहुत से किसान जैविक खेती की ओर आकर्षर्ित होंगे। साथ ही, जैसे पेट्रोल पर अधिभार लगाकर हमने योजनाओं के लिए पैसे निकाले उसी तरह किसानों की खातिर कोई वैसा ही प्रत्यक्ष अधिभार लगाकर वह पैसा सिंचाई पर लगाना चाहिए। उससे खेत को पानी पहंुचना चाहिए। दुर्भाग्य से हमने खेती की उपेक्षा की, लेकिन उधर चीन खेती को प्राथमिकता पर रखकर हमसे बहुत आगे बढ़ गया।
ल्ल तो क्या किसान क्रेडिट कार्ड, फसल बीमा योजनाएं किसानों की भलाई के लिए काफी नहीं हैं?
काफी तो हैं, पर फसल बीमा योजना ने अभी गति नहीं पकड़ी है। जिन देशों में यह योजना कामयाब हुई है वहां 60-70 फीसदी प्रीमियम राशि तो सरकार देती है। क्या भारत का गरीब किसान प्रीमियम चुका सकता है? नहीं। इसलिए हमारे यहां यह योजना तभी कारगर होगी जब प्रीमियम का 50 फीसदी केन्द्र सरकार दे, 25 फीसदी राज्य सरकार और किसान से सिर्फ 25 फीसदी लिया जाए। कृषि के लिए बजट में और पैसा देना होगा।
अनाज की कमी है, फिर भी लाखों टन अनाज हर साल सरकारी गोदामों में सड़ जाता है। कोई ध्यान क्यों नहीं देता?
दिक्कत है बफर स्टॉक के नियमों में। इसकी सीमा कम है जबकि गोदामों में उससे ज्यादा अनाज पड़ा रहता था। मैं जब खाद्य मंत्री था तब हमने गोदामों में बफर स्टॉक से ऊपर अनाज रखना बंद कर दिया था। तब अतिरिक्त अनाज प्रदेशों में फूड फॉर वर्क योजना में इस्तेमाल करने को भेजा जाता था। अंत्योदय अन्न योजना शुरू की गई। करोड़ों गरीब परिवारों को सस्ते दाम पर अनाज उपलब्ध कराया गया। अटल जी की सरकार ने कितने ही गरीब परिवारों को 10 किलो अनाज हर महीने मुफ्त दिया था। बचे अनाज को निर्यात करते थे।
क्या हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठीक से काम कर रही है?
योजना आयोग की रपट है कि इसमें 40-50 प्रतिशत अनाज तो चोरी हो जाता है। एक रु. का अनाज उपभोक्ता तक पहुंचाने के लिए सरकार 3.65 रु. खर्च करती है। एक ही उपाय है, उपभोक्ता के खाते में 3 रु. सीधे जमा करा दिए जाएं। इससे 40 हजार करोड़ रु. की बचत होगी। यह पैसा सिंचाई की व्यवस्था में लगाया जा सकता है। एफसीआई तंत्र में भ्रष्टाचार समाया हुआ है। हैरानी की बात है कि जिन लोगों को हम सस्ता अनाज देते हैं उनमें से 60-70 प्रतिशत छोटे किसान हैं जिनके अपने खेतों में थोड़ा-बहुत अनाज होता है। वह अपना अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेच देते हैं और अपने लिए अनाज 2 रु. किलो में लेते हैं तो हम उनको एक तरह से बेईमानी ही सिखा रहे हैं।
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