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मुजफ्फर हुसैन
जगत की सबसे महान और दयालु माता केवल और केवल धरती माता है। जिस माटी में इंसान पैदा होता है, अपने जीवन की समस्त क्रीड़ाएं करके पंच महाभूत में विलीन हो जाता है। इंसान को पैदा करने वाली माता की जान माटी है। इसलिए हम बोलचाल की भाषा में कह देते हैं कि दुनिया इसी धूल में जन्मी है और एक दिन इसी में समा जाने वाली है। सामान्यतया हमारे इस नश्वर संसार के लिए एक बात कही जाती है कि जो यहां आया है वह एक दिन जाएगा। तब यह बात हमारे मन मस्तिष्क को झिंझोड़ देती है कि क्या ये पंचतत्व भी एक दिन समाप्त हो जाएंगे? यदि यह सच है तो फिर एक दिन न तो पानी रहेगा और न हवा…. न आग होगी और न यह धरातल जिसकी आत्मा माटी है। हम यह तो जानते थे कि हममें से यहां कोई नहीं रहेगा! लेकिन इस पर कभी विचार नहीं किया कि जिस मिट्टी में सब मिल जाने वाले हैं वह माटी भी नहीं रहेगी! जब माटी ही नहीं होगी तो हम अनाज किससे पैदा करेंगे? माटी की महिमा तो तब से है जबसे यह दुनिया बनी है। माटी है तो कृषि है, खेती नहीं तो अनाज नहीं! शास्त्रों में प्रलय की बात तो पढ़ने को मिलती है लेकिन आज तक यह नहीं पढ़ा कि माटी ही सबसे पहले इंसान की मिट्टी पलीद करने वाली है। हमारे धर्मशास्त्र कुछ भी कहते रहें लेकिन वर्तमान खोज यह बतलाती है कि माटी ही सबसे पहले इस चलती-फिरती दुनिया की लीला से समाप्त होने वाली है। वह किसी को समाप्त करने का इरादा नहीं रखती है, लेकिन जब वह स्वयं ही समाप्त होने जा रही है तो किसी अन्य को सुरक्षा देने की गारंटी भला किस प्रकार दे सकती है?
हमारी आज की दुनिया में हर दिन किसी न किसी रूप में या किसी के नाम से मनाए जाने का फैशन चल पड़ा है। कभी मातृ दिवस तो कभी महिला दिवस। इसी परम्परा में पिछले दिनों राष्ट्र संघ ने 'इंटरनेशनल ईयर ऑफ सोइल' यानी माटी दिवस मनाया। यह विचार पहली बार सामने आया। इस अवसर पर वैज्ञानिकों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि 2075 तक दुनिया से मिट्टी का खात्मा हो जाएगा! यानी जिस मिट्टी में हम और आप खेले हैं वह इस जमीन से विदा हो जाएगी। न केवल उसका खात्मा हमारी सड़कों पर देखने को मिलेगा, बल्कि वह हमारे खेत और खलिहान में भी देखने को नहीं मिलेगी। यह कोई छुपी बात नहीं कि इस मिट्टी को फलदायी बनाने के लिए किसान इसमें खाद मिलाता है और फिर बीज डालकर उसे पानी से सींचता है जिसमें फसल लहलहाती है, जो मनुष्य के जीवन का आधार है। लेकिन जब माटी ही नहीं होगी तो फिर बीज किसमें पनपेगा? लाख टके की बात है कि आदमी ही नहीं पशु, पक्षी और करोड़ों प्रकार के जीव जंतु किसमें पैदा होंगे? तब लाचार होकर दुनिया कबीरदास की उस पंक्ति को दोहराएगी जिसमें उन्होंने कहा है… 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंधे मोहि,' एक दिन ऐसा आएगा मैं रोंधंूगी तोहि। लेकिन यहां तो सवाल यह है कि जब माटी ही नहीं होगी तो बनाने और मिटाने का सवाल ही कहां खड़ा होगा?
पिछले दिनों ब्रिटिश लेखक जॉर्ज जोशुआ ने जब अपना यह विचार दैनिक गार्जियन में कलमबद्ध किया तो सारी दुनिया पढ़कर सहम गई। माटी के नाम में ही जादू है। वह अपने आपमें एक वरदान है। यह कायाकल्प करने वाली ऐसी प्रणाली है जो सम्पूर्ण जगत में हाहाकार मचाने वाला एक भारी भरकम चिंतन है। लगभग 1500 ईसा पूर्व का संस्कृत में लिखा एक वाक्य पढ़ने को मिलता है जिसमें कहा गया है कि एक मुट्ठी भर माटी में हमारा जीवन सिमटा हुआ है। इसे देखभाल कर खर्च करोगे तो खाना, ईंधन और रहने के लिए स्थान मिलेगा। इसका दुरुपयोग करोगे तो वह तुम्हारा साथ ही नहीं छोड़ देगी बल्कि तुम्हारा जीवन भी ले लेगी। लगता है मानव जाति ने उसका संदेश नहीं सुना है इसलिए अब उसका दंड भोगने का समय आ गया है यानी मानव जीवन के अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है।
इस कड़वे सच का सामना करने का समय आ गया है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है और कौन इस अपराध का भागीदार? लेकिन एक बात सच है कि आदमी नामक प्राणी के जीवन का ही अंत नहीं बल्कि समस्त सृष्टि के अंत की घंटी बज चुकी है। हमारी दुनिया का इंसान इसे चाहे जिन शब्दों में व्यक्त कर सकता है। उसे वह चाहे तो कयामत का नाम दे सकता है, चाहे तो प्रलय कह सकता है और चाहे तो बाइबिल के आधार पर 'डे ऑफ जजमेंट' की संज्ञा दे सकता है। यानी उसकी यह गिनती 2075 से प्रारम्भ हो जाने वाली है।
क्या कभी हमने सोचा इसके लिए उत्तरदायी कौन है? हम और आप अपनी उंगली किसी अन्य के सामने उठा सकते हैं लेकिन एक उंगली जब किसी एक की ओर उठती है तो चार उंगलियां अपने आप हमारी ओर उठ जाती हैं। दुनिया में चारों ओर धरती हड़पो आन्दोलन चल रहा है। कोई अपनी सेना के बल पर अन्य देश की सीमाओं में घुसपैठ करके पड़ोसी देश की जमीन को हड़प करना चाहता है तो कोई अपने पड़ोसी के घर की सीमाओं में घुसकर अतिक्रमण करना चाहता है। खेत खलिहान हो या फिर जागीर जायदाद अपनी ताकत के अनुसार घुसपैठ करना चाहता है। हम देखते हैं कि इन दिनों सबसे मूल्यवान वस्तु कोई है तो केवल जमीन का टुकड़ा है। इसलिए शोषण का कोई शिकार है तो बस जमीन का टुकड़ा है। भूस्वामियों ने 'जमीन हड़पो' आन्दोलन चला रखा है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य एवं कृषि विभाग के शोध के अनुसार खेती के योग्य जमीन को देखते हुए जहां अन्न पैदा किया जा सकता है व भूमि का क्षेत्रफल केवल 60 लाख हेक्टेयर यानी डेढ़ करोड़ एकड़ नई खेती योग्य भूमि की आवश्यकता है। इसके विपरीत प्रतिवर्ष तीन करोड़ एकड़ खेती की भूमि की माटी लुप्त हो जाने अथवा बिगड़ जाने के कारण कम होती जा रही है। यानी वह भूमि इतनी ऊसर और बंजर होती चली जा रही है कि जगहों पर फसल तो बहुत दूर जंगल के कांटेदार वृक्ष भी नहीं उग सकते हैं। वहां आंधियों के झक्कड़ तो चल सकते हैं लेकिन पानी की बूंदें नहीं बरस सकती हैं।
किसान अपनी जमीन पर जब खेती करता है तो स्वयं अपनी जमीन की मिट्टी की सुरक्षा करता है। लेकिन जब मुनाफा प्राप्त करने के लिए उसे ठेके पर दे दिया जाता है तो फिर उसके खेत की मिट्टी की क्या हालत हो जाती है उस पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है। क्योंकि मिट्टी से जुड़े तत्वों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता है। आज दुनिया में कितने लोग हैं जो माटी के विज्ञान से परिचित हैं। 'साइंस ऑफ सोइल' कहां पढ़ाया जाता है! कितने विश्वविद्यालय और कितने निष्ण्णात हैं जो माटी के बारे में जानते हैं। खेती के नाम पर व्यक्ति बीज के सुधार के प्रयोग धड़ल्ले से होते हैं लेकिन उस माटी के प्रयोग कोई नहीं पूछता है जिसमें बीज जन्म भी लेता है और साथ ही उस माटी में मिल भी जाता है। विचारणीय है कि जो अपनी माटी ही खराब करना चाहता है तो फिर उसके भ्रूण की चिंता कौन करेगा? युद्ध और महामारी के पश्चात सब कुछ ठीक किया जा सकता है लेकिन मिट्टी खराब हो जाने पर उसमें सुधार पैदा कर देने वाला कोई डॉक्टर और कोई वैज्ञानिक नहीं दिखलाई पड़ता। कई स्थानों पर सिद्धहस्त किसान 'जीरोटॉलरेंस' के साथ सफल प्रयोग में जुटे हैं। बिना जुताई वाली खेती के इस प्रयोग को 'कंजरवेशन एग्रीकल्चर' का नाम दिया गया है।
हमारी फलदायी माटी को समुद्र में धकेलने का सबसे बड़ा काम नदियों ने किया है। इसलिए बांध बनाकर उसे रोकने का प्रयास किया जाता है लेकिन उक्त माटी निरन्तर पानी में डूबी रहने के कारण या तो अवसर आने पर उसके बह जाने का खतरा बना रहता है या फिर पानी में डूबे रहने के कारण निरन्तर वह अपनी ताकत खो देती है।
माटी के निरन्तर बनने की कोई प्रकिया नहीं है इसलिए वह इस समय जितनी मात्रा में है उसे बचाना ही हमारा धर्म और कर्म होना चाहिए। भूकम्प कुछ मात्रा में यह काम करते हैं लेकिन इस तुलना में वे नुकसान अधिक पहुंचाते हैं। इसलिए न तो माटी का मोल आंका जा सकता है और न ही उसका कोई विकल्प ढूंढा जा सकता है।
माटी को बचाएंगे तो कृषि बचेगी वरना इंसान और उसकी संस्कृति इसी मिट्टी में मिल जाने वाली है।
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