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भारत गांवों का देश है, यहां का लोकजीवन खेती पर आधारित है। अच्छी कृषि उपज ही उसका सौभाग्य है और फसल नष्ट होना मृत्यु समान है। इसलिए वह सदैव अच्छी फसल की कामना करता है। इस बारे में लोक का अनुभव ही उसकी ज्ञान सम्पदा है। अनुभवी लोग इस बारे में जो कहते आए हैं, वह 'कहावत' के रूप में मान्य है।
कहावतें ग्राम्य-कथन या ग्राम्य-साहित्य नहीं है। ये लोक जीवन का नीतिशास्त्र हैं। संसार के नीतिसाहित्य का विशिष्ट अध्याय हैं। विश्व-वाङगमय में जिन सूत्रों को प्रेरक, अनुकरणीय तथा उद्घरणीय माना गया है, उनका सार तत्व प्रकारान्तर से इनमें मिल जायेगा। समान अनुभव से प्रसूत इन कहावतों के अधिकांश सूत्र सार्वभौमिक सत्य होते हैं। कुछ सूत्र स्थानीय या आंचलिक वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हैं।
कहावतें जनमानस के लिए आलोक स्तम्भ हैं। इनके प्रकाश में हम जीवन के कठिन क्षणों में, लोकानुभव से मार्गदर्शन प्राप्त कर सफलता का मार्ग ढूंढते हैं। वह चिनगारी हैं – जिसमें अनन्त ऊष्मा है, जो जनमानस को मति, गति और शक्ति प्रदान करती हैं। हम किसी भी प्रसंग की चर्चा छेड़ दें, उससे जुड़ी कहावतें लोगों की जुबान पर आ जाती हैं। यही इनकी लोकव्याप्ति का प्रमाण है। इनका साम्राज्य विस्तृत है। इन्हें पढ़कर इनको गढ़ने वालों की सूझबूझ, सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता तथा वाक्विदग्धता पर आश्चर्य होता है। वे सचमुच जीवनद्रष्टा थे।
कहावतें नदी के उन अनगढ़ शिलाखण्डों की तरह हैं जो युग-युगान्तर काल के प्रवाह में थपेड़े खा-खाकर शालिग्राम बन जाते तथा शिवत्व को प्राप्त करते हैं। इनमें लोक का बेडौलपन है, छन्दों की शास्त्रीयता नहीं है, तथापि इनमें काव्य का सा सहज प्रवाह है, वे सहज स्मरणीय हैं।
सर्वप्रथम कहावत शब्द पर विचार करना आवश्यक है। इसका संधि-विच्छेद है, कह+आवत – यानी कहते आते हैं। अर्थात परम्परा से कहते आये हैं। इससे मिलते-जुलते कुछ और भी शब्द हैं – सूक्ति, सुभाषित, लोकोक्ति और लोक सुभाषित। सूक्ति का अर्थ है, सु+उक्ति अर्थात सुन्दर कथन। सुभाषित का अर्थ है सु+भाषित अर्थात् सुन्दर रूप में कहा गया। यह भी सूक्ति का पर्यायवाची हुआ।
सूक्ति या सुभाषित प्राय: व्यक्ति या कृति विशेष का कथन होता है। जब यह कथन व्यक्ति की लेखकीय सीमाओं से ऊपर उठकर, पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित लोकानुभव तथा लोकज्ञान से परिमार्जित होता जाता है, काल की अग्नि में युग-युगों तक तपता है, तब कुन्दन बनकर इसका नाम हो जाता है- लोकोक्ति। इस प्रकार लोकोक्ति तथा कहावत समानार्थक हैं। लोक-सुभाषित भी इसी कोटि का शब्द है। लोक साहित्य के मनीषी डा. कृष्णदेव उपाध्याय ने कहावत, मुहावरा, पहेलियां, खुन्स तथा औटपाय नामक लोक विधाओं को लोक सुभाषित में ही परिगणित किया है।
इन कहावतों में सबकी पालनहार खेती को आजीविका का सर्वश्रेष्ठ साधन माना गया है। खेती-किसानी करने वाले को दत्तचित्त होकर खूब मेहनत करने की सलाह दी जाती है, आलस्य न होना उसका प्रमुख धर्म माना गया है। लोक ज्योतिष वर्षा को बहुत मान्यता देता है, कब किस ग्रह-नक्षत्र में क्या किया जाए कि अच्छी फसल हो, नुकसान (बरबादी) न हो!
कहावतों में पश्ुाओं के लक्षण तथा रखरखाव पर भी विचार किया गया है। इन सबका विचार कहावतों में व्यापक रूप से हुआ है। घाघ-भड्डरी जैसे ज्येातिषवेत्ताओं की भविष्यवाणी, लोक की थाती बन गई है। इन मामलों की चर्चा होते ही लोग घाघ-भड्डरी की बात करने लगते हैं। जिन कहावतों में घाघ-भड्डरी के नाम की छाप नहीं है, उन्हें भी उनका ही लिखा मानने लगते हैं। उनके 'बिना छाप' की उक्तियां लोक-साहित्य के अन्तर्गत गिनी जाने लगी हैं। इन कहावतों में विविधता है तथा रोचकता भी। लोग उन्हें चटखारे लेकर पढ़ते सुनते तथा सुनाते हैं। आइये, लोक-ज्ञान के इस सागर में डुबकी लगाएं –
उत्तम खेती मध्यम बान।
अधम चाकरी भीख निदान॥
सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय खेती (कृषि) है। मध्यम कोटि का व्यवसाय वाणिज्य (व्यापार) है। नौकरी अधम है। किन्तु भीख मांगना सबसे निकृष्ट कोटि का है।
भूमि न भुमियां छोडि़ये, बड़ौ भूमि कौ वास।
भूमि बिहीनी बेल जो, पल में होत बिनास॥
अपनी जमीन (आधार) नहीं छोड़नी चाहिये। भूमि पर वास का अपना बड़प्पन है। भूमि छोड़ देने वाली बेल का कुछ ही क्षणों में नाश हो जाता है।
खेती उत्तम काज है, इहि सम और न होय।
खाबे कों सबकों मिलै, खेती कीजे सोय॥
कृषि उत्तम कार्य है, इसके बराबर और कोई कार्य नहीं है। यह सबको भोजन देती है इसलिये खेती करनी चाहिये।
एक हर हत्या दो हर काज।
तीन हर खेती चार हर राज॥
एक हल की खेती करना अनार्थिक होता है, दो हल की खेती से काम चलाया जा सकता है तीन हल की खेती से किसानी का सुख मिलता है और चार हल की खेती करने वाला राजसी वैभव से रह सकता है। इसी बात को (खेती की अधिकता के सुख को) एक अन्य लोकोक्ति में इस प्रकार कहा गया है।
दस हल राव, आठ हर राना।
चार हलों का, बड़ा किसाना॥
खेती धन कौ नास, धनी न होवै पास।
खेती धन की आस, धनी जो होवै पास॥
खेती से धन की आशा तभी करनी चाहिये जब कृषि कार्य करने वाला स्वामी (धनी) पास में रहे अर्थात् स्वयं करे। यदि धनी पास में नहीं रहता है तो खेती से प्राप्य धन तो नष्ट हो ही जाता है, साथ में लागत भी नष्ट हो जाती है। इसकी एक अंतर्कथा भी है।
खेती तौ थोरी करै, मेहनत करै सवाय।
राम चहै बा मनुस खों, टोटौ कभऊन आय॥
जो व्यक्ति भले ही खेती थोड़ी भूमि पर करे किन्तु मेहनत सवाई (आवश्यकता से अधिक) करे ऐसे मनुष्य को कभी टोटा (नुकसान) नहीं होता है।
असाड़ साउन करी गमतरी, कातिक खाये, पुआ।
मांय बहिनियां पूछन लागे, कातिक कित्ता हुआ॥
आषाढ़ और सावन माह में जो गांव गांव में घूमते रहे तथा कार्तिक में पुआ खाते रहे (मौज उड़ाते रहे) वह माँ, बहिनों से पूछते हैं कि कार्तिक की फसल में कितना (अनाज) पैदा हुआ। अर्थात् जो खेती में व्यक्तिगत रुचि नहीं लेते हैं उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता है।
उत्तम खेती आप सेती, मध्यम खेती भाई सेती।
निक्कट खेती नौकर सेती, बिगड़ गई तो बलाय सेती॥
उत्तम खेती वह है जो स्वयं की जाय (स्वयं द्वारा सेवित हो), मध्यम खेती वह है जो भाई देखे, निकृष्ट खेती वह है जिसे नौकर देखें। जो बला की तरह की जाय वह खेती बिल्कुल बिगड़ जाती है।
नित्तई खेती दूजै गाय, जो ना देखै ऊ की जाय।
खेती करै रात घर सोवै, काटै चोर मूंड़ धर रोवै॥
नित्य ही खेती और गाय को जो स्वयं नहीं देखते हैं उसकी (खेती या गाय) चली जाती है। जो खेती करके रात्रि में घर पर सोते हैं- उनकी खेती चोर काट ले जाते हैं, और वह सिर पीटकर रोते हैं अर्थात् कृषि कार्य और गौ सेवा स्वयं करनी चाहिये, दूसरों के भरोसे नहीं। इसी को एक अन्य लोकोक्ति में कहा गया है-
खुद करै तौ खेती।, नईं तौ बंजर हेती॥
खेती उनकी कहें, जो हल अपने हांत गहें।
आदी खेती उनकी कहें, जो नित हल के संग रहें।
बयें बीज उपजै नईं तहां, जो पूंछें कै हर है कहां॥
जो स्वयं हल चलाकर खेती करते हैं उन्हें खेती का पूरा लाभ मिलता है। जो हल के साथ रहते हैं किन्तु हल दूसरों से चलवाते हैं उन्हें खेती का आधा लाभ मिलता है। किन्तु जिन्हें हल की स्थिति के बारे में ज्ञान नहीं होता है, उनके यहां खेती निष्फल होती है।
कच्चौ खेत न जोतै कोई।
नईं तो बीज न अंकुरा होई॥
कच्चा खेत किसी को नहीं जोतना चाहिये अन्यथा बीज अंकुरित नहीं होता है। कच्चे खेत से तात्पर्य फसल बोने के पूर्व की गयी तैयारी जैसे जोतना, गोड़ना, खाद मिलाने आदि मृदा-संस्कार
से है।
जरयाने उर कांस में, खेत करौ जिन कोय।
बैला दोऊ बैंच कें, करो नौकरी सोय॥
कंटीली झाडि़यों और कांस से युक्त खेत में खेती नहीं करनी चाहिये अन्यथा उससे क्षति होगी। इससे बेहतर है कि दोनों बैल बेचकर नौकरी करें और निश्चिन्त होकर सोवें।
ठांड़ी खेती, गाभिन गाय।
तब जानौं, जब मौं में जाय।
खेत में खड़ी फसल और गाभिन गाय का सुख तभी जानिये जब उनका परिणाम सामने आ जाय। खेत का अन्न और गाय का दूध मुंह में जाने पर ही सुख मानना चाहिये। इसके पूर्व इनके देखने भर का सुख है। अंग्रेजी में इसी कहावत को निम्न प्रकार कहा जाता है –
” ळँी१ी ं१ी ेंल्ल८ २'्रस्र२, ुी३६ीील्ल ू४स्र२ ंल्लि ३ँी '्रस्र२”.
अक्का कोदों नीम बन, अम्मा मौरें धान।
राय करोंदा जूनरी, उपजै अमित प्रमान॥
जिस वर्ष अकौआ, कोदों, नीम, कपास, और आम अधिक फूलें उस वर्ष धान राय करोंदा तथा ज्वार अधिक मात्रा में पैदा होते हैं।
आलू बोबै अंधेरे पाख, खेत में डारे कूरा राख।
समय समय पै करे सिंचाई, तब आलू उपजे मन भाई॥
आलू कृष्ण पक्ष में बोना चाहिये, खेत में कूड़ा, राख की खाद डालकर सिंचाई करनी चाहिये तब आलू भारी मात्रा में पैदा होता है।
गेंवड़े खेती, मेंड़ें महुआ।
ऐसौ है तो कौन रखउआ॥
गांव के निकट खेती और सीमा पर फलदार वृक्ष नहीं लगाने चाहिये। ऐसा करने पर रखवाली कौन करेगा? अर्थात् कोई नहीं।
हरिन फलांगन काकरी, पेंग, पेंग कपास।
जाय कहौ किसान सें, बोबै घनी उखार॥
हिरण की छलांग की दूरी पर ककड़ी बोनी चाहिये, किन्तु कपास कदम-कदम की दूरी पर बोना चाहिये। ऊख को घना बोना चाहिये। ऐसा किसान से जाकर कहना।
तिरिया रोबै पुरुष बिना, खेती रोवै मेह बिना॥
स्त्री पुरूष के बिना तथा खेती वर्षा के बिना रोती है, अर्थात् बरबाद हो जाती है।
कातिक मास, रात हर जोतौ।
टांग पसारें, घर मत सूतौ॥
कार्तिक के मास में खेत तैयार करने के लिये रात्रि में भी हल जोतना चाहिये। (उन दिनों) घर में टांग पसारकर घर में नहीं सोना चाहिये। अर्थात् रात-दिन का परिश्रम अपेक्षित हैं।
सावन में ससरारी गये, पूस में खाये पुआ।
चैत में छैला पूंछत डोलें, तुम्हरें कित्ता हुआ॥
कृषक होते हुए भी कृषि कार्य के प्रति उदासीनता पर यह एक करारा व्यंग्य है। कृषि कार्य के प्रमुख माह सावन में यदि कोई ससुराल जाय और पौष माह में मौज उड़ाता फिरे, तब चैत्र के महीने में वह छैला दूसरों से पूछता फिरता है कि उनके खेतों में कितनी उपज हुई। क्योंकि उसकी उदासीनता के कारण उसके अपने खेत में कुछ भी पैदा नहीं हेाता है।
अगहन बदी आठें घटा बिज्जु समेती जोय।
तो सावन बरसे भलौ, साख सवाई होय॥
अगहन बदी (कृष्ण पक्ष की) अष्टमी को काले बादलों की घटा हो और बिजली चमके तो सावन में पानी अच्छा बरसेगा और खेती सवाई हो जायेगी।
उत्तर उत्तर दैं गयी, हस्तगओ मुख मोरि।
भली बिचारी चित्रा, परजा लइ बहोरि॥
उत्तरा और हस्त नक्षत्रों में वर्षा न होने से कृषि कार्य होने में बाधा रही उन्हें चित्रा ही भली लगती है जिसके बरसने से खेती संभल गयी और प्रजा बच गयी।
चित्रा बरसें तीन भये, गोंऊसक्कर मांस।
चित्रा बरसें तीन गये, कोदों तिली कपास॥
चित्रा नक्षत्र में बर्षा होने से कोदों, तिली तथा कपास की फसल नष्ट हो जाती है। किन्तु गेहूं, गन्ना, दाल और में वृद्घि होती है।
चैत चमक्कै बीजली, बरसै सुदि बैसाख।
जेठै सूरज जो तपैं, निश्चै वरसा भाख॥
चैत्र में बिजली चमके, बैशाख के शुक्ल पक्ष में पानी बरसे तथा ज्येष्ठ में सूरज की गर्मी अधिक हो तो निश्चय ही अच्छी बरसात होगी।
चैत बदी, परमा दिवस, जो आवे रविवार।
वायु कोप होवै घनो, सह न सकै भू भार॥
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को रविवार हो तो वायु का भारी कोप होगा अन्धड़ आयेगा और जनजीवन अस्त व्यस्त हो जायेगा।
चौदस पूनों जेठ की बर्षा बरसें जोय।
चौमासौ बरसै नहीं नदियन नीर न होय॥
ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तथा पूर्णिमा को यदि पानी बरसे तो बरसात में पानी नहीं बरसेगा तथा नदियों में पानी नहीं होगा।
पंचमि कातिक शुक्ल की जो होवे शनिवार।
तो दुकाल भारी पड़े मचि है हा-हा कार॥
कार्तिक शुक्ल पंचमी को यदि शनिवार पड़े तो अकाल पड़ेगा और हा-हाकार मचेगा।
पुरुवा में जो पछुआ बहै,
हंस र्के नार पुरुष से कहै।
वो बरसै जो करै भरता,
सबै कहै यह अमिट विचार॥
पुरवाई बहते-बहते अचानक पछुआ बहने लगे, स्त्री हंसकर पर-पुरुष से बात करे तब यह सर्वमान्य विचार है कि वह (बादल) बरसेंगें तथा वह (स्त्री) पति वर लेगी।
मघा पूर्वा लागी जोर, उर्द मूँग सब धरो बहोर।
बऊत बनै तो बैयो, नातर बरा-बरीं कर खैयो॥
मघा तथा पूर्वा नक्षत्र में अधिक वर्षा होने पर कृषि का नाश हो जाता है, ऐसी स्थिति में उड़द तथा मूंग सब हिफाजत से रख लेना चाहिये। बोते बन सके तो बोना, अन्यथा इन्हीं उड़द मूंग की बड़ी-बरा खाकर संतोष कर लेना-क्योंकि अन्य उपज की आशा नहीं है।
माघ मास में हिम परै बिजली चमके जोय।
जगत सुखी निश्चय रहै वृष्टि घनेरी होय॥
माघ मास में बिजली चमके और ओले पड़ें तो घनी बर्षा होगी तथा समस्त संसार सुखी रहेगा।
मेघ करोंटा लै गओ, इन्द्र बांध गओ टेक।
बेर मकोरा यों कहें, मरन न दैहों एक॥
बेर तथा मकोरा कहते हैं कि भले ही बादल करवट ले लें तथा इंद्र टेक बांध लें (न बरसने की जिद करें) किन्तु हम किसी को मरने नहीं देंगे। अर्थात जलसिंचन के अभाव में भी बुन्देलखण्ड की धरती बेर तथा मकोरा पैदा करने में सक्षम है। जिससे मनुष्य के जीवन का गुजारा हो सकता है।
सावन में पुरवैया, भादों में पछयाव।
हरंवारे हर छांड़कें लरका जाय जिबाव॥
सावन में पूर्व की ओर से (पुरवाई) हवा चले तथा भादों में पश्चिम की ओर से (पछुआ) हवा चले तो अकाल पड़ने की सम्भावना होती है तब किसानों हल छोड़कर बच्चे जीवित रखने का अन्य साधन तलाशना चाहिए।
सांझें धनुष सकारें मोरा। जे दोनों पानी के बौरा॥
शाम को इन्द्रधनुष का दिखाई देना और प्रात: काल मोर का नाचना- दोनों पानी बरसने के संकेत हैं।
सावन सुकला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
तुम जैयो पिय मालवा , हम जैहैं गुजरात॥
सावन शुक्ला सप्तमी को यदि आधी रात्रि में बादल गरजे तो अकाल पड़ेगा। ऐसी स्थिति में घर में दाना नहीं बचेगा। तब हे! प्रियतम तुम मालवा चले जाना मैं गुजरात चली जाऊंगी।
सोम, सुक्र, गुरुवार कों फूस अमावस होय।
घर-घर बजें बधाइयां, दुखी न दीखै कोय॥
यदि पौष माह की अमावस्या, सोमवार गुरुवार या शुक्रवार को हो, तो सुकाल आयेगा, कोई दीन दुखी नहीं होगा और घर-घर बधाइयां बजेंगी।
मरखा बैल और टिमकुल जनी।
इनके मारें रोवैं धनी॥
मारने वाला बैल और तड़क-भड़क से रहने वाली स्त्री- ये दोनों स्वामी को पीड़ादायक होते हैं।
इसी कहावत को इस प्रकार भी कहा जाता है-
बैल लरखना, चमकुल जोय।
वा घर उरहन, नित्तई होय॥
इन कहावतों में लोकमान्यताओं, लोकविश्वास के साथ अनेक ऐसे तत्व मिलते हैं जिनसे लोकजीवन तथा संस्कृति की झलक मिलती है। * अयोध्या प्रसाद गुप्त 'कुमुद'
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