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कांग्रेस अध्यक्ष का कहना है कि भाजपानीत केंद्र सरकार हवाबाज है। कोई काम नहीं कर रही। सोनिया गांधी का ऐसा बयान केंद्र सरकार द्वारा पूर्व सैनिकों के लिए एक रैंक एक पेंशन (ओआरओपी) को मूर्त रूप देने की घोषणा के तीन रोज बाद आया। पूर्व सैनिकों के लिए सरकार के किसी कदम को राजनीतिक लाभ के उपाय के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। परंतु, इस घोषणा के बाद जिस तरह अन्यान्य बातों को गिनाते हुए कांग्रेस की खीझ फूटी है उससे लगता है कि दर्द की वजह ओआरओपी ही है। यह ऐसा बड़ा मुद्दा है जो 25-30 लाख लोगों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। आर्थिक रूप से देखा जाए तो यह चुनौती हर बीतते वर्ष के साथ अपना आकार बढ़ा रही थी। ऐसा मुद्दा, जिसे चार दशक पहले ज्यादा सरलता से हल किया जा सकता था, लेकिन हल नहीं किया गया, अब यह ऐसा रूप ले चुका था जिसके परिणाम झटकेदार होने ही थे। सैन्यबलों की सेवा शतार्ें में समता और गरिमा से जुड़ा यह मुद्दा संवेदनशील था। इसे राजनीतिक नहीं होना था, किन्तु इसे राजनीतिक रस्साकशी में घसीटने का अपराध कांग्रेस ने किया है।
इस बात के तीन साफ उदाहरण हैं। पहला, 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले सैन्य हितैषी दिखने की हड़बड़ी भरी कोशिश। संप्रग सरकार ने ओआरओपी की डोंडी जरूर पिटवाई मगर सिर्फ 500 करोड़ रुपए रखकर। जिस काम को करने में दस हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा खर्च बैठना है उसके लिए कुल जरूरी राशि का सिर्फ बीसवां हिस्सा निकाला गया। जाहिर है, सत्ता तक पहुंचने के लिए प्रचार की इस जुगत में पूर्व सैनिकों की इच्छाएं पूरी करना प्राथमिक उद्देश्य नहीं था।
दूसरा, कांग्रेस उपाध्यक्ष की हरकत। मुद्दे को रंग पकड़ता देख कांग्रेस के बाहें चढ़ाते युवराज खुद को इस मुद्दे से जोड़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। स्वतंत्रता दिवस के ठीक पहले उन्होंने जंतर-मंतर पर पूर्व सैनिकों के मंच पर चढ़ने की कोशिश की। किस्मत ने राजनीतिक हसरतों का साथ नहीं दिया और युवराज बैरंग लौटा दिए गए।
तीसरा, इस मुद्दे पर अगस्त के दूसरे पखवाड़े से शुरू हुई कांग्रेस प्रवक्ताओं की लगातार बयानबाजी। पूर्व सैनिकों की भावनाओं को उकसाते इनकी आड़ लेते बयानों में संप्रग को श्रेय और राजग को दोष देने की भारी अकुलाहट थी।
गौरतलब है कि पूर्व सैनिकों की इस मांग को पूरा करने के लिए जिस राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार थी कांग्रेस ने कभी उसका परिचय नहीं दिया। इंदिरा-राजीव राज से चली आ रही प्रशासकीय ठिठकन यदि संप्रग राज में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को पूर्व सैनिकों के पदक लौटाने पर भी नहीं टूटी तो इसका जिम्मेदार कौन है? वैसे यह सैनिकों के सम्मान और समान अधिकारों से जुड़ा इकलौता मामला नहीं है जहां दशकों के अन्याय का अंत हुआ हो।
देश को सैन्यबलों के समर्पण से परिचित कराने वाले राष्ट्रीय सैन्य स्मारक के निर्माण का फैसला पिछले वर्ष ही हुआ है। इसके लिए एक अरब रुपए का बजटीय प्रावधान भी हो चुका है। इसके अलावा, पिछले वर्ष सैनिकों को उनकी तैनाती के स्थान पर ही मतदान करने का अधिकार देने वाला फैसला भी ओआरओपी जितना ही अहम था। 1971 में सवार्ेच्च न्यायालय के निर्देशानुसार सैन्यकर्मियों और अर्धसैनिक बलों में कार्यरत जवानों का मतदाता पंजीकरण सामान्य मतदाताओं की ही तरह किया जा सकता था, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा था। एक ही जगह तीन वर्ष तक कार्यरत रहने और परिजनों का पंजीकरण भी मतदाता के तौर पर वहीं होने की शर्त इन जवानों पर थोप दी गई। यह ऐसी शरारत थी जिसने लाखों लोगों को निर्वाचन प्रकिया से दूर कर दिया था। यह अड़चन भी गत वर्ष ही हटी है।
ओआरओपी का मुद्दा मोटे तौर पर सुलझ चुका है, समाप्त हो चुका है। यह सुलझन सेना के प्रति युवाओं के आकर्षण को दोबारा जगाएगी, ऐसा लगता है। नई सरकार का नया रुख ताजा बात है, लेकिन देरी और अनिर्णय के अध्याय दशकों पुराने हैं। ये ऐसे पन्ने हैं जो पहली नजर में पढ़ेे नहीं जा सकते। इन पन्नों का पलटा जाना कुछ लोगों में बौखलाहट भर रहा है। सो, कांग्रेस अध्यक्ष ने फौरी तौर पर सरकार पर आरोपों के जो भी तीर चलाए हों, इसके मूल में राजनैतिक तौर पर पीछे छूटने की हताशा ही थी। पूर्व सैनिकों के लिए जहां राहत की बयार बयालीस बरस बाद आई है, वहीं राजनीति की लंबी कतार में पांचवां दशक छूते कुछ 'युवा' और हैं। यह छटपटाहट सेना के 'जवानों' की बजाय कुनबे के युवा को लेकर देखी जानी चाहिए। बिहार चुनाव का बिगुल बजते-बजते राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद की कमान थामने से फिर इनकार कर दिया है। ओआरओपी पर फजीहत के बाद नतीजों को लेकर डर गहरा है। जमीन पर चीजें ठोस आकार ले रही हैं…इसे हवाबाजी कहकर अपना डर घटाने की कोशिश कोई करता है तो करता रहे।
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