संथारा साधना के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय का फैसलामोक्ष मार्ग की ओर...
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संथारा साधना के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय का फैसलामोक्ष मार्ग की ओर…

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Sep 4, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Sep 2015 12:28:52

रिखब चन्द जैन             
सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार 31 अगस्त को जैन पंथ में प्राचीन काल से प्रचलित संथारा साधना के पक्ष में फैसला देते हुए इस पर राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई रोक हटा दी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस प्रथा को जारी रखने की अनुमति देकर जैन समाज में संतोष की बयार बहा दी। इसके साथ ही जैन समाज आंदोलन की राह से अब पीछे हटा है। लेकिन दरअसल राजस्थान उच्च न्यायालय ने इसके खिलाफ फैसला क्यों दिया था और असल में यह साधना मार्ग है क्या इस पर एक नजर डालना समीचीन होगा। जैन दर्शन में अहिंसा, संयम और तप, काया-क्लेश का महत्व है और कायोत्सर्ग को मोक्ष का द्वार बताया गया है। मोक्ष यानी इच्छाओं से मुक्ति, पुनर्जन्म से मुक्ति, 84 लाख जीव योनियों (जीव प्रकार) से मुक्ति, आत्मा का परमात्मा के स्वरूप से बंधना ही मोक्ष है। गीता की तरह जैन दर्शन में कर्मफल, पुनर्जन्म अनासक्ति योग, मुक्ति के लिए, मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक सूत्र बताये गए हैं।
भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार, जीवात्मा 84 लाख जीव योनियों में भटकती रहती है। इन सब जीव योनियों में मनुष्य जीवन सर्वश्रेष्ठ होता है। यहां तक कि देव गति भी मनुष्य गति से निम्न है। देवता को भी मनुष्य रूप में पुनर्जन्म लेकर मोक्ष पाने के लिए तप, आराधना करनी पड़ती है। समाधि, संथारा संलेखना, पंडितमरण, मृत्युवरण, इन सभी का लक्ष्य सभी कषायों को छोड़कर, संयम द्वारा इन्द्रियों को विजय कर, आत्मा को तप से निर्मल कर, शरीर को तप के द्वारा क्रमश: कंकाल मात्र बनाकर, शुद्ध चेतना के साथ मुक्ति के लक्ष्य को रखते हुए पुनर्जन्म के चक्कर को खत्म करने के लिए, धर्म-आराधना के साथ निमार्ेही, निष्कामी, अनासक्ति के साथ आत्मा शरीर के चोले को छोड़कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने के लिए महाप्रयाण करती है। इस पद्धति में जीवात्मा संथारा संलेखना की स्थिति में पहुंचने से पहले ज्ञान अर्जित करती है। व्यक्ति दर्शन, मनन, चिंतन द्वारा आध्यात्मिक साधना पथ पर आगे बढ़ता है। इन्द्रियों के विषयों को जीतकर जितेन्द्रीय बनता है। राग एवं द्वेष से हटकर वीतरागी बनने के प्रयास में रत रहता है। ज्ञान से उत्पन्न प्रज्ञा द्वारा सम्यक चरित्र के माध्यम से जीवन के अंतिम छोर, मृत्यु के समय अपने मन के भाव सभी सांसारिक तत्वों से निमार्ेही बनाता है। अपने स्वयं के शरीर के प्रति मोह छोड़ता है जोकि दुनिया में सबसे कठिन काम है। तब कहीं जाकर वषार्ें की सफल साधना के बाद संथारा का अवसर पुण्य के प्रारब्ध से शायद उपस्थित    होता है। भारतीय दर्शन के प्रत्येक पंथ और प्रत्येक अवधारणा में किसी न किसी रूप में जैन संथारे के अनुरूप वैकल्पिक मृत्युवरण के प्रचलित मार्ग हैं। रामायण में महासती सीता धरती में समा गई थीं। महाभारत में भीष्म पितामह बाणों की मृत्यु शैया पर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हैं। महर्षि दधीचि ने देहदान किया। क्या इन्हें आत्महत्या कहेंगे? कदापि नहीं। देश के प्रत्येक कोने में, प्रत्येक जिले में जल समाधि और भूमि समाधि लेने वाले सिद्ध संतों के अनेक समाधि स्थल दिखते हैं। वे स्थान श्रद्धा के साथ पूजे जाते हैं, प्रेरणा स्थल बन जाते हैं। पाकिस्तान में भी परमहंस महात्मा सिद्ध बाबा का इस्लामाबाद के पास डोली गांव में 1919 ई़ में स्थल बना।  गीता, जैन, इस्लाम और अन्य मतों का विशेष अध्ययन करने वाले विनोबा भावे जी ने भी संथारा संलेखना का अवसर अपने अंतिम समय में भाव शुद्धि के लिए प्राप्त किया।
उत्कृष्ट साधना
राजस्थान उच्च न्यायालय ने सती प्रथा की तरह संथारा को प्रचलित 'कुरीति' बताया। जैन पंथ और दर्शन में नारी का उत्थान, दास-प्रथा की समाप्ति और सामाजिक सुधार प्रमुख दृष्टिकोण रहे हैं। संथारा त्याग, तपस्या करते हुए जीवन के अन्तिम समय में शरीर को स्वेच्छा से छोड़कर परमात्मा प्राप्ति के लिए सवार्ेच्च, सर्वश्रेष्ठ साधना माना गया है। यह मृत्यु को कष्टदायी न समझते हुए, मृत्यु के समय पर ही कुछ घंटे, कुछ दिन पहले मृत्यु का स्वागत करने के लिए, मन को कष्ट रहित बनाने के लिए, मन को निर्मल करते हुए प्रभु के ध्यान में संलग्न करते हुए शरीर से जो नाता छूटने वाला है उसे कष्ट ना समझते हुए अपने आपको पंचतत्व के चोले को छोड़ने के लिए तैयार करना मात्र है।
प्रत्येक जैन श्रावक और जैन संत की नित्य प्रति प्रार्थना में यह कामना की जाती है कि मेरे अन्तिम समय में, जब भी वह आये, मुझे सभी सांसारिक बातों को त्याग कर प्रभु भक्ति में तल्लीन होकर संथारे साधना के साथ प्राण त्यागने का सुअवसर मिले ताकि मुझे मोक्ष मिले। मोक्ष नहीं तो अगला जन्म हमें अच्छी मनुष्य गति, अच्छा परिवार मिले। धर्म आराधना का अवसर उस जन्म में भी मिले और मेरी मुक्ति का मार्ग बाधारहित बने। जैन पंथ में हिंसा का कोई स्थान है ही नहीं। सती प्रथा, गर्भपात, भ्रूणहत्या, शिशुमर्दन (जन्म होते ही बच्चों को मार देना) हिंसा है। सभी तरह की कुरीतियों से परहेज करना जैन पंथ की पहली शिक्षा है।
जैन आस्था के अनुसार आमरण अनशन भी हिंसाजनक है। इसमें आग्रह रहता है। दुराग्रह भी रहता है। हठ रहता है। कभी-कभी आमरण अनशन करने वालों की मौत भी हो जाती है। किसी आग्रह के लिए आत्मदाह करना भी पाप है। इन प्रवृतियों को, आमरण अनशन को, आत्महत्या के प्रयास नहीं कहा जा रहा है तो संथारे में, जहां कोई आग्रह नहीं, कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं, कोई दुर्भावना नहीं, उसे कैसे आत्महत्या का प्रयास कह सकते हैं?

स्वेच्छा संलेखना
संथारा में स्वेच्छा मृत्यु नहीं है अपितु मरण का समय आने पर छूटते हुए शरीर को निमार्ेही भाव से छोड़ा जाता है। असाध्य रोग और जीवन  को सही तरह के जीने की सम्भावना न होने पर कई देशों में इच्छा मृत्यु कष्टहरण के रूप में कानूनी तौर पर स्वीकार्य है। भारत में भी इस पर विचार चल रहा है। इस तरह की 'मर्सी किलिंग' या इच्छामृत्यु कष्ट दूर होने, पीडि़त को दर्द से बचाने के लिए की जाती है। इसमें कोई धर्म साधना नहीं है।  
राजस्थान उच्च न्यायालय में आरोप लगाने वाले पक्ष ने कहा कि कई बार जबरन संथारा करवा दिया जाता है। धर्म संयत संथारा पद्धति में कहीं जबरदस्ती का प्रश्न ही नहीं है। साधक स्वेच्छा से, परिवार, समाज, धर्मगुरु की आज्ञा से अन्तिम घड़ी जानकर, मृत्यु का समय नजदीक आया जानकर, अपने अन्तिम क्षणों में भाव शुद्धि के लिए संथारा व्रत साधना करता है। इसकी संकल्प विधि में छूट रहती है कि अगर अन्तिम समय की निकटता का गलत अनुमान लगा हो और व्यक्ति की भावना बदल जाये तो वह अन्न, जल ग्रहण कर सकता है। कोई भी काम जबरदस्ती, भय से करवाना अपराध समझा जाता है। जैन पंथ की किसी भ्ी पांथिक क्रिया में किसी भी तरह का दबाव, जबरदस्ती करने का कोई प्रावधान नहीं है।  अनेक लोगों का मानना था कि राजस्थान उच्च न्यायालय के माननीय जज महोदय ने कुछ सही-गलत परोसी गई सामग्री के आधार पर ही, बिना आवश्यक शोध किए, बिना आवश्यक तथ्यों को जाने, हड़बड़ी में अपना अभिमत दे दिया। संथारे की भावना के पीछे संयम, साधना, तप और सद्लक्ष्य की तरफ ना देखते हुए, बिना किसी ठोस कारण के उसे आत्महत्या के बराबर बता दिया, जिससे समाज और राष्ट्र में अनिश्चितता और हंगामा खड़ा हो गया था।
भगवत् प्राप्ति की साधना
आत्महत्या जघन्य अपराध है। भारतीय दंड संहिता और प्रत्येक भारतीय पंथ में इसे अपराध, पाप ही मानते हैं। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अनेकानेक कारणों से अज्ञानी, क्रोधमय, अभावग्रस्त, पीडि़त, हताश, निराश हो सकता है। आत्महत्या में व्यक्ति को अपराध बोध तो होता ही है। संथारा संलेखना की तैयारी सम्यक ज्ञान के साथ धर्म के ज्ञान, दर्शन, चरित्र एवं संयम साधना के साथ शुरू होती है। वषार्ें तक यह भावना तीव्र होती जाती है। संथारा सिर्फ जीवन के अंतिम छोर पर ही धर्मगुरु की आज्ञा और परिवारजन, समाज की आज्ञा अनुमोदना से ही की जाती है। व्यक्ति स्वयं की इच्छा से संथारा संकल्प नहीं कर सकता है। कुछ विशेष  परिस्थिति को छोड़कर। आत्महत्या में तो कोई न आज्ञा लेता है, न कोई दे सकता है। आत्महत्या में दुराग्रह होता है। समाधि, संथारा संलेखना के कायोत्सर्ग में मोक्ष प्राप्ति या ईश्वर प्राप्ति, सिद्ध स्थान प्राप्ति और कम से कम अगले जन्म में अच्छी मनुष्य जीव योनी की सद्-स्वेच्छा रहती है। अत: समाधि-मरण की सभी विधियों में, सभी विकल्पों में जैन पद्धति विवेकपूर्ण और सवार्ेत्तम शुद्धभावना के साथ संचालित होती है।
भारतीय संविधान की धारा 25 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को अपने मत की मान्यता के अनुसार व्यवहार करने का अधिकार प्राप्त है। संथारा जैन पंथ की सवार्ेत्कृष्ट, शुद्ध, पवित्र साधना है, जिसके माध्यम से जन्म-जन्मांतर के बंधन से छुटकारा पाया जा सकता है। शास्त्रों और इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं। प्रतिवर्ष जैन समाज के महापर्व पर्युषण और दस लक्षण पर धर्म आराधना में वर्णन आता है कि प्राचीन काल में भगवान कृष्ण के राज्य में उनके परिवार के सदस्यों द्वारा तप करते हुए अपने शरीर को कृष करने के बाद संथारा संलेखना की। इस काल में जैन व्रत रखते हैं। अपने शरीर की योग्यता के अनुसार तथा शास्त्रों में वर्णित तप और साधना का अन्तिम छोर संलेखना होती है। इनसे संथारा साधना की भावना उत्पन्न होती है। अगर ऐसा अवसर मिले तो प्रत्येक जैन अपने आपको धन्य समझता है। उस दिन को धन्य समझता है जिस दिन ऐसा संयोग उसे मिलेगा।
भारतवर्ष के महान जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने अन्तिम समय में संथारा संलेखना की। कन्नड़ और तमिल साहित्य में श्रवण बेलगोला, गंगा साम्राज्य के महाराज नरसिम्हा ने अपने धर्मगुरु अजीत सेन भट्टारक जी के सान्निध्य में संथारा साधना की। आचार्य सुमन्तभद्र, जर्मन जैन विद्वान हरमन जेकोबी, उमास्वास्ति द्वारा लिखित तत्वार्थ सूत्र तथा कुदकन्दा शास्त्रों में अनेकानेक प्रमाण संथारा साधना के हैं। इस तरह यह कहना कि जैन पंथ की धर्म-साधना में संथारा कोई आवश्यक प्रक्रिया नहीं, सिर्फ तथ्यों की अज्ञानता का द्योतक है। संथारा संलेखना जैन आस्था की सवार्ेच्च मोक्ष प्राप्ति साधना बताई गई है।

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