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1965 युद्ध के 50 वर्ष
-प्रशांत बाजपेई
पाकिस्तान में यह आम बात है। एक स्वघोषित रक्षा विशेषज्ञ और तथाकथित 'थिंक टैंक' विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच भाषण दे रहा है कि '1965 की जंग पाकिस्तान की तारीख का वो मुकाम है, जब सारी मुसलमान कौम सीसा पिलाई दीवार बन कर हिन्दुस्तान की फौज के सामने खड़ी हो गयी थी । जब लाहौर और सियालकोट की गलियों में हमलावर हिन्दुस्तानी सैनिकों को पाकिस्तानी शहरी हाकी, डंडे और घरेलू किस्म के हथियार ले कर खदेड़ रहे थे। जब अल्लाहो अकबर के नारे के साथ पाकिस्तानी फौज तोपें दागतीं तो गोले अपनी क्षमता से कई किलोमीटर आगे जा कर गिरते।' वक्ता आगे बताता है कि 'हिन्दुस्तान ने बड़ी तैयारी के साथ हमला किया था, पाकिस्तान पर भारी खतरा था। ऐसे समय पाकिस्तान के किसी शायर किस्म के पीर ने सपना देखा कि पैगम्बर मोहम्मद जंगी लिबास में बेचैन होकर टहल रहे हैं और कह रहे हैं कि पाकिस्तान पर हमला हुआ है, पाकिस्तान का दिफा करना है।' वक्ता के अनुसार 'ऐसे समय अल्लाह की तरफ से मदद आई। जब दुश्मनों की फौजें आगे बढ़ रही थीं तब अल्लाह ने धुंध भेज दी। पकड़े गए एक हिन्दुस्तानी फाइटर पायलट ने बताया कि उसे रावी नदी पर बने पुल को तोड़ने के लिए भेजा गया था। लेकिन जब उसका प्लेन रावी तक पहुंचा तो उसे एक की जगह कई पुल दिखाई देने लगे।' हांक यहीं पर खत्म नहीं होती। इस्लाम के किले पाकिस्तान की तरफ से मोहम्मद खुद युद्घ के मैदान में उतर आये थे, यह जतलाते हुए कहा जाता है कि 'हिन्दुस्तान के पकड़े गए सैनिक पाक फौज के अफसरों से पूछते थे कि आपकी वो वाली फौज कौन सी थी जो घोड़ों पर सवार थी और जिनकी तलवारों में से शोले निकलते थे?' वक्ता अपनी बात को सत्य सिद्घ करने के लिए पाकिस्तान में प्रसिद्घ साहित्यकार और सितारा-ए-इम्तियाज से पुरस्कृत मुमताज मुफ्ती की रचनाओं- 'अलखनगरी' और 'तलाश' की मिसाल देता है। आपको यह हास्यास्पद और अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन पाकिस्तान में इतिहास इसी प्रकार से सुना-सुनाया जाता है।
आज से 10 साल पहले सोशल मीडिया के एक प्लेटफार्म पर एक पाकिस्तानी युवक से भेंट हुई। वह कई भारतीय युवकों से बहस में उलझा था और पाकिस्तान की दरियादिली की तारीफ में जमीन आसमान एक कर रहा था कि 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान ने भारत का आधा भूभाग जीतने के बाद लौटा दिया था। स्वाभाविक है कि उसका मजाक बन रहा था, लेकिन वह डटा हुआ था। कारण साफ था कि पाकिस्तान में इतिहास को लेकर झूठी आत्मप्रवंचना और आत्मछल की होड़ लगती आयी है। परन्तु
जिज्ञासा जाग गयी कि पाकिस्तान की इतिहास की किताबों और साहित्य में झांका जाए। विशेष रूप से इतिहास की किताबों में। जो सामने आया वह सामान्य बुद्घि के मापदंडों पर बेहद फिसड्डी किस्म का था। यह सफेद झूठ जो पाकिस्तान के तानाशाहों ने अपने नागरिकों से बोला है वह पाकिस्तान के समाज और सत्ता के बारे में बहुत कुछ बतलाता है। इसलिए इसे जानना जरूरी है।
1964 का साल। फौजी तानाशाह जनरल अयूब खान के माथे पर बल पड़े हुए थे। परेशानी की कई वजहें थीं। मात्र 16 बरस का पाकिस्तान जर्जर हो चला था। पंजाब की तानाशाही से तंग आ चुके बंगाली पूर्वी पाकिस्तान में बगावत पर उतारू थे। सीमांत में कैद खान अब्दुल गफ्फार खान ने पाकिस्तान के सत्ता तंत्र को भेडि़या करार दे दिया था। बलूच पाकिस्तान का जुआ अपने कंधे पर रखने को तैयार नहीं थे। सिंध में सिंधी और उर्दू के बीच जंग छिड़ी थी, जो केवल शब्दों तक सीमित नहीं थी।
मुहाजिरों के हाथ से सियासत की लगाम छुड़ाने के लिए अयूब खान पाकिस्तान की राजधानी कराची से उठाकर पंजाब के इस्लामाबाद ले आए थे। पाकिस्तान अब पंजाबी फौज की मुट्ठी में कैद था। डिक्टेटर के लिए चुनाव के वादे पर अमल करना जरूरी हो गया था। लेकिन अयूब खान के सामने चुनाव लड़ने खड़ी थीं मोहम्मद अली जिन्ना की बेटी फातिमा जिन्ना। भयभीत अयूब खान ने खुफिया एजेंसियों को 'चुनाव ड्यूटी' पर तैनात कर दिया था। तनाव बढ़ता जा रहा था। अयूब खान पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप भी थे। ऐसे में कराची में विरोध प्रदर्शन कर रही भीड़ पर खान के दो लड़कों ने गोली चला दी। 30 लोग मारे गए, कई घायल हुए। 1965 में अयूब खान के एक और बेटे ने पश्चिम पाकिस्तान के पुलिस महानिरीक्षक की बेटी का अपहरण कर लिया। अयूब खान ने अपने मंत्री कालाबाग के नवाब को अपने बेटे के खिलाफ कार्यवाही करने से रोका, तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। अयूब की अपनी कैबिनेट में ही उनके खिलाफ असंतोष फैल गया। पाकिस्तान में अयूब खान की छवि तेजी से गिर रही थी। अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए और लोगों का ध्यान भटकाने के लिए अयूब खान ने कश्मीर का कार्ड खेला। 'हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिंदुस्तान', पाकिस्तान में प्रचलित ये जुमला समय-समय पर सियासी नारा भी बनता आया है। कश्मीर को हड़पकर पाकिस्तान का सितारा और मुस्लिम जगत का नेता बनने की फंतासी से जिन्ना से लेकर परवेज मुशर्रफ तक कोई नहीं बच पाया। उनके अति-महत्वाकांक्षी विदेशमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने उनके दिमाग में यह बात बिठा दी थी कि जम्मू-कश्मीर को लेकर सैनिक हस्तक्षेप की स्थिति बनी तो भी भारत की सेनाएं सीमा पार नहीं करेंगी। जुलाई 1965 में सेवानिवृत्त हुए पाकिस्तान वायुसेना के प्रमुख असगर खान ने पाकिस्तानी चैनल एक्सप्रेस न्यूज को दिए अपने साक्षात्कार में कहा है – 'भारत के साथ हुई चारों जंगें हमने शुरू की हैं, हिन्दुस्तान ने कभी पहला हमला नहीं किया। जहां तक 1965 की बात है, अयूब खान ने फैसला किया और विदेश मंत्रालय ने उनको सलाह दी कि हम आसानी से जम्मू-कश्मीर पर सैनिक नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। कश्मीर घाटी की मुसलमान आबादी हमारा साथ देगी। मैं 15 जुलाई,1965 तक पाकिस्तानी वायुसेना का प्रमुख था, लेकिन मुझे भी इस हमले का इल्म नहीं था। मुझे अखबारों से पता चला कि जम्मू के अखनूर में हमने टैंक भेजे हैं। मुझे लगा कि हिन्दुस्तान जवाबी हमला करेगा। मैं अयूब खान से मिलने गया और उनसे कहा कि जम्मू-कश्मीर के जवाब में हिन्दुस्तान लाहौर सेक्टर पर हमला करेगा। अयूब खान बोले कि मुझे विदेश मंत्रालय ने भरोसा दिलाया है कि हिन्दुस्तान हमला नहीं करेगा। मैंने कहा, कमाल की बात है! क्यों नहीं करेगा? 3 सितम्बर को हमारी यह बात हुई है, 6 सितम्बर को हिन्दुस्तान ने हमला बोल दिया। बेहद अहमकाना सोच थी। खुदा का शुक्र है कि पाकिस्तान बच गया।' कहा जाता है कि आईएसआई और मिलिट्री इंटेलिजेंस भी भुट्टो और अयूब खान के फैसले से सहमत नहीं थे, लेकिन सबको दरकिनार कर लड़ाई की तैयारियां की गयीं। पाकिस्तानी फौजियों के मन में बिठाया गया कि एक मुसलमान दस काफिरों पर भारी होता है और हिन्दुओं में पाकिस्तानियों से लड़ने का माद्दा नहीं है।
अयूब खान ने खुराफात की शुरुआत गुजरात के कच्छ के रण से की। आजादी के बाद भारतीय नेतृत्व ने गुट-निरपेक्षता के नाम पर पश्चिम विरोधी रुख अपनाया, तो पाकिस्तान ने मौके को ताड़ते हुए अपनी भू-सामरिक स्थिति को मोल-तोल का आधार बनाकर पश्चिमी खेमे से लाभ हासिल किये। पाकिस्तान को सीटो (साउथ एशिया ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) और सेंटो (सेंट्रल ट्रीटी आर्गेनाइजेशन) में प्रवेश दिलवाया गया। इस बढ़ी हुई हैसियत के कारण पाक फौज को अमरीका और दूसरी पश्चिमी ताकतों से आधुनिक हथियार प्राप्त होने लगे। भारत अभी 1962 के युद्घ से उबर रहा था। भारत का नेतृत्व प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में था, जो दुनिया के लिए अल्पज्ञात थे और अयूब खान उन्हें भीरु प्रवृत्ति का मान कर चल रहे थे। हिन्दुस्थान को परखने के लिए कच्छ के रण की खारी धरती अयूब खान को उचित स्थल लगी। संभवत: अयूब यह भी सोच रहे थे कि भारत की सैनिक ताकत को कच्छ के रण में केंद्रित करवा कर जम्मू-कश्मीर पर चौकाने वाला हमला किया जाए, लेकिन अमरीकी हथियारों के साथ इस दलदली इलाके में फौज भेजकर पाकिस्तान के पांव खुद ही कीचड़ में फंस गए, क्योंकि पाकिस्तान ने अमरीकी हथियारों का उपयोग भारत के खिलाफ न करने की शर्त का उल्लंघन किया था। फलस्वरूप भविष्य में मिलने वाली अमरीकी सहायता रोक दी गयी। और पाकिस्तान का यह ऑपरेशन डेजर्ट हक भविष्य की योजनाओं के लिए आत्मघाती सिद्घ हुआ। उस एक तरफा युद्घ विराम की घोषणा करनी पड़ी।
इस्लामी सैनिक अभियानों के इतिहास में सातवीं शताब्दी में स्पेन में अरब हमलावरों का प्रवेश एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस हमले में तारिक इब्न जियाद के नेतृत्व में मुस्लिम फौज यूरोप के दक्षिण पश्चिमी कोने में स्थित जिब्राल्टर की चट्टान पर इकट्ठा हुई थी और अगले 700 वर्ष तक स्पेन के इलाकों पर अरबों का प्रभुत्व रहा। पाकिस्तान के सैनिकों को जोश दिलाने के लिए और उनमें इस्लामिक जिहाद का जुनून पैदा करने के लिए जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने में घुसपैठ की योजना बनाई गई और इसको नाम दिया गया ऑपरेशन जिब्राल्टर। इसके लिए तीस हजार से अधिक रजाकार और मुजाहिद प्रशिक्षित किये गए। इन्हें 120 लड़ाकों की छोटी-छोटी टुकडि़यों (यूनिट) में बांटा गया। हर टुकड़ी का व्यवस्था क्रम इस प्रकार था- एक कैप्टन, तीन जूनियर कमीशंड अफसर, छ: नॉन कमीशंड अफसर, 35 फौज के जवान, स्पेशल सर्विस ग्रुप से 3-4 लोग और 70 रजाकार या मुजाहिद। पहचान छिपाने के लिए सभी गैर सैनिक वेशभूषा में थे। ऑपरेशन जिब्राल्टर की योजना यह थी कि इन घुसपैठियों की टुकडि़यां 5 अगस्त,1965 को अलग-अलग स्थानों से युद्घ-विराम रेखा और अंतर्राष्ट्रीय सीमा को पार कर कश्मीर में प्रवेश करेंगी और 8 अगस्त,1965 को होने वाले पीर दस्तगीर साहिब के मेले की भीड़ में घुलमिल कर घाटी में प्रवेश कर जाएंगी। अगले दिन, 9 अगस्त को शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी की प्रथम वर्षगांठ को उनकी पार्टी बड़े पैमाने पर जुलूस और विरोध प्रदर्शन करके मना रही थी। जिब्राल्टर फोर्स के हमलावरों को इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल होकर घाटी के लोगों को भारत के विरोध में उकसाना था। और फिर अपने साथ लाये गए भारी मात्रा में हथियार और गोला बारूद लेकर महत्वपूर्ण स्थानों जैसे रेडियो स्टेशन हवाई अड्डा रणनीतिक महत्व के स्थानों आदि पर कब्जा करना था और कश्मीर घाटी को भारत से जोड़ने वाले सड़क तंत्र को ध्वस्त करना था। इसके बाद घाटी में एक 'रिवोल्यूशनरी काउंसिल' के नाम से कार्यवाहक सरकार बनाने की योजना भी थी। घुसपैठ का षड्यंत्र सफल होने पर यह सरकार कश्मीर की वैधानिक सरकार होने का दावा प्रस्तुत करती और दुनिया के सारे देशों विशेषकर पाकिस्तान से मान्यता देने की मांग करती। कुल मिलाकर योजना शानदार थी , लेकिन अयूब खान के मंसूबों पर पानी फिर गया जब पाकिस्तानी घुसपैठिये किसी महत्वपूर्ण ठिकाने में कब्जा करने में नाकाम रहे। वे स्थानीय आबादी को प्रेरित भी ना कर सके और स्थानीय लोगों से ही उलझ पड़े । आगजनी की घटनाएं होने लगीं और लोगों ने इन मुजाहिदीनों को पकड़कर सेना और पुलिस के हवाले करना शुरू कर दिया। इसके पहले 5 अगस्त को ही एक गडरिये ने भारतीय सेना को गुलमर्ग क्षेत्र में घुसपैठियों के देखे जाने की खबर दी। सेना ने हमला किया और घुसपैठिये भारी मात्रा में हथियार पीछे छोड़कर भाग खड़े हुए। इसी तरह श्रीनगर के पास भारत के जवानों ने दो पाकिस्तानी कप्तानों को धर-दबोचा। इन दोनों से हुई पूछताछ में सारे षड़यंत्र का पर्दाफाश हुआ। भारत को पाकिस्तानियों की योजना का पता चल चुका था।
घुसपैठियों की टुकडि़यां जगह-जगह पर छापामार हमले कर रही थीं। पूरी घाटी में सेना से उनकी झड़पें जारी थीं। पाकिस्तान का प्रचार-तंत्र इसे कश्मीरियों की बगावत बता रहा था। प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने सेना को पूरी छूट दी और सेना ने घुसपैठियों की रसद आपूर्ति रोकने और पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में संचालित हो रहे उनके शिविरों को ध्वस्त करने के लिए नियंत्रण रेखा पार की। भारत की संसद ने एक होकर पाकिस्तानियों को कड़ा सबक सिखाने की मांग की। सेना ने पाकिस्तान के रणनीतिक महत्व के ठिकानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इसमें पाकिस्तान की सीमा के आठ किलोमीटर अंदर स्थित बेहद महत्वपूर्ण हाजीपीर का दर्रा भी शामिल था। घुसपैठियों के पांव उखड़ने लगे। ज्यादातर ने समर्पण कर दिया।
कश्मीर में भेजे गए घुसपैठियों (जिब्राल्टर फोर्स) के दूसरे चरण के रूप में पाकिस्तान ने अपरेशन ग्रैंड स्लैम शुरू किया। इसमें जम्मू-कश्मीर के छम्ब और जोडि़यां क्षेत्र पर भारी हमला किया गया। योजना थी कि छम्ब पर कब्जा कर के रावी नदी पार की जाए और अखनूर पर कब्जा कर के जम्मू हथिया लिया जाए। इससे कश्मीर घाटी भारत से अलग-थलग हो जाती। और घाटी में घुसपैठियों से लड़ रही भारतीय सेना पाकिस्तानी फंदे में फंस जाती। हाजीपीर के दर्रे तक घुस आई भारतीय सेना पाकिस्तानियों में खौफ पैदा कर रही थी कि भारत पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर को मुक्त करवाने के लिए भी आगे बढ़ेगा, इसलिए भी यह हमला किया गया था। भारत ने पाकिस्तान के मंसूबों को नाकाम किया और कश्मीर को घुसपैठियों के पंजों से बचाया, लेकिन इसमें हमारी कई कमियां भी उभरकर सामने आयीं। जैसे कि सटीक खुफिया जानकारियों का अभाव, कुछ स्थानों पर समायोजन का अभाव आदि।
छम्ब सेक्टर में पाकिस्तान की बढ़त को रोकने के लिए भारतीय सेनाओ ने लाहौर सेक्टर पर तीव्र आक्रमण किया। पाकिस्तानी सकते में आ गए और कुछ ही घंटों के अंदर पाकिस्तान ने छम्ब क्षेत्र से अपने हथियार और सैनिकों को हटाकर पंजाब की तरफ भेजना शुरू कर दिया। भारतीय हमले का आधा दिन बीतते-बीतते भारतीय सेनाएं पाकिस्तान के लिए अति महत्वपूर्ण शहर लाहौर की सुरक्षा की महत्वपूर्ण सुरक्षा पंक्ति इच्छोगिल नहर तक पहुंच चुकी थीं। अयूब खान की जीवनी लिखने वाले अल्ताफ गौहर के अनुसार भारत के इस कदम से सबसे अधिक हैरान अगर कोई था तो वह थे अयूब खान। लाहौर हवाई अड्डा भी भारतीय सेना की मार की जद में था। भारत को उलझाने के लिए पाकिस्तान ने अमृतसर के निकट खेमकरन क्षेत्र पर अमरीका से मिले अत्याधुनिक पैटन टैंकों की भारी तादाद के साथ हमला किया। इस लड़ाई में खेमकरण क्षेत्र पाकिस्तान के इन पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बन गया। भारतीय सेना के इस जवाबी आक्रमण का नाम था असल उत्तर। द्वितीय विश्वयुद्घ के बाद ये सबसे बड़ा टैंक युद्घ था। भारतीय सैनिकों ने सौ के लगभग पैटन टैंक नष्ट किये थे। पाकिस्तान की कमर टूट चुकी थी। पाकिस्तान की सेना के पास केवल 40 दिनों की लड़ाई का गोल-बारूद बचा था जबकि भारत 90 दिनों तक लड़ने की स्थिति में था। यह बेहद निर्णायक बढ़त थी। 22 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दोनों देशों द्वारा तत्काल युद्घ विराम करने सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया। लगातार पतली होती हालत से घबराए पाकिस्तानी जनरलों के लिए यह प्रस्ताव एक वरदान था। भारत ने भी युद्घ विराम को स्वीकार कर लिया। यदि लड़ाई कुछ दिन और खिंचती तो पाकिस्तान घुटनों पर आ जाता। तब बातचीत की मेज पर उससे बहुत कुछ हासिल किया जा सकता था। युद्घ विराम के समय भारत के कब्जे में पाकिस्तान की 3,885 वर्ग किलोमीटर की जमीन थी, जबकि पाकिस्तान के पास भारत की 648 वर्ग किलोमीटर जमीन थी। रूस ने मध्यस्थता की। वार्ता के लिए शास्त्री जी ताशकंद गए लेकिन लौटकर उनकी पार्थिव देह ही आ सकी। 1965 के युद्घ ने भारत को बदल दिया। 1962 की विनाशकारी भूल की धूल झाड़ दी गयी। भारत ने सैनिक तैयारियों के महत्व को समझा और छह साल बाद ही युद्घ में पाकिस्तान आधा रह गया। ताशकंद से लौटे अयूब खान और जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी नाक बचाने के लिए जंग में पाकिस्तान की शानदार जीत का ढोल पीटा और पाकिस्तान को नए सिरे से नफरत की आग में झोंक दिया। 1962 के बाद 1971,और 1971 के बाद 1991, पाकिस्तान के दुस्साहसों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। आत्मछल और फरेब की राह पर चलता हुआ पाकिस्तान जिहादी आतंकवाद की फैक्ट्री बन गया। पाकिस्तानी समाज का विघटन भी दिनों-दिन बढ़ता ही गया। 40 लाख बंगालियों की हत्या और 4 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार कर आधा पाकिस्तान गंवाने वाला 'पंजाबी-मुस्लिम इस्टैब्लिशमेंट' जहर बोता ही चला गया।
बंगालियों के बाद नंबर आया अहमदियों का, फिर शियाओं का। हिन्दू और ईसाई तो कभी पाकिस्तानी थे ही नहीं। इतिहास के साथ किया गया यह छल पाकिस्तान का खुद के साथ किया गया सबसे बड़ा धोखा साबित हो रहा है। पाकिस्तानी समाज बारूद के ढेर पर बैठा है और पाकिस्तान की सर्वशक्तिमान फौज आग से खेल रही है। 65 की जंग के आईने में पाकिस्तान का यह चेहरा पाकिस्तान को ही दिखाई देना जरूरी है। ल्ल
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