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श्रीलंका चुनाव -महिन्दा को हरा फिर सत्ता में आए रानिल

by
Aug 22, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Aug 2015 11:54:28

 

9 साल श्रीलंका के राष्ट्रपति रहने के बाद गत जनवरी माह में गद्दी से उतरे महिन्दा राजपक्षे की प्रधानमंत्री के तौर पर सत्ता में लौटने की कोशिशें आखिरकार धराशायी हो गईं। 17 अगस्त को वहां हुए संसदीय चुनावों में उनके प्रतिद्वंद्वी और मौजूदा प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने बहुमत के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर फिर से अपनी दावेदारी साबित कर दी। उनकी पार्टी, यूनाइटेड नेशनल पार्टी 225 में से 106 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी थी। महिन्दा की पार्टी यूनाइटेड पीपुल्स फ्रीडम अलायंस को 95 सीटें ही मिल पाईं। अंतर ज्यादा नहीं था, पर सरकार के गठन में रानिल को दिक्कतें नहीं आईं, क्योंकि कई छोटे राजनीतिक दल जैसे, तमिल नेशनल अलायंस उनको समर्थन दे रहे थे। इस तरह 20 अगस्त को रानिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व में नई सरकार ने पदभार संभाल लिया।
भारत के लिए उसके हर पड़ोसी देश में सामाजिक-राजनीतिक बदलाव मायने रखते हैं। बौद्ध धर्म के जिस मार्ग पर श्रीलंका का बहुसंख्यक समाज बढ़ रहा है उसका मूल भारत में होने के कारण वहां के समाज के मन में भारत के प्रति एक विशेष अनुराग रहा है। इन सब बातों के आलोक में श्रीलंका में घटे इस राजनीतिक घटनाक्रम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वहां जिस प्रकार चीन अपना दबदबा बढ़ाने की फिराक में रहा है, उसके बंदरगाहों के निर्माण में आर्थिक सहायता देता आ रहा है उसे देखते हुए रणनीतिक रूप से भारत को श्रीलंका पर खास नजर रखनी ही होगी। श्रीलंका चुनावों के संदर्भ में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्री शशांक का कहना है कि राजपक्षे वहां के सिंहली मूल के लोगों की नजरों से पहले ही उतर गए थे, उनकी हार के पीछे यह भी एक बड़ा कारण रहा है। वहां के तमिलों और मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर रानिल को वोट किया। श्री शशांक के अनुसार, श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरीसेना और विक्रमसिंघे के विचारों में तालमेल रहा है जबकि सिरीसेना महिन्दा की पार्टी में रहे, उनकी सरकार में मंत्री रहे, लेकिन दोनों में विरोध जगजाहिर है। हालत तो यहां तक खराब थी कि कुछ ही दिन पहले सिरीसेना ने पूर्व राष्ट्रपति महिन्दा को एक कड़ा पत्र लिखकर कहा था कि भले उनकी पार्टी चुनाव जीत जाए, वे (सिरीसेना) उनको (महिन्दा) प्रधानमंत्री पद पर नहीं बैठने देंगे।     
दूसरी तरफ रानिल और सिरीसेना का मेल भारत की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण रहने वाला है, क्योंकि दोनों ही राजनेता भारत के साथ प्रगाढ़ संबंधों के हिमायती रहे हैं। जल्द ही श्रीलंका-भारत संबंधों में अब नयापन देखने में आएगा। नई सरकार का रुख, खासकर तमिलों के संदर्भ में सहानुभूति वाला रहने वाला है। जबकि महिन्दा के काल में तमिल बहुल उत्तरी प्रांत अशान्त ही रहा था। तमिल समुदाय को नई रानिल सरकार से अपनी समस्याओं के समाधान की पूरी उम्मीद है।
चीन के श्रीलंका पर प्रभाव के संदर्भ पर पुन: गौर करें तो श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिन्दा राजपक्षे चीन के साथ अपनी अभिन्न मित्रता का दम भरा करते थे। श्री शशांक का कहना है कि चीन उनकी मित्रता की आड़ मंे इस इलाके में अपनी पैठ बढ़ाने में लगा रहा था। वह उन क्षेत्रों पर अपना प्रभाव स्थापित कर रहा था जिनसे भारत के लिए संकट उत्पन्न हो सकता था। अब चीन की उस कोशिश में कुछ कमी आने की संभावना है। असल में चीन अन्तरराष्ट्रीय संबंधांे के नाम पर श्रीलंका की आर्थिक मदद करता था। इसी मदद की एवज में वह अपना हित भी सुनिश्चित कर लेता था। हालांकि इसके चलते श्रीलंका को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आलोचना भी झेलनी पड़ती थी। ये उन दिनों की बात है जब श्रीलंका चीन को अपना दोस्त समझता था, राजपक्षे का झुकाव बराबर चीन की ओर रहता था। रानिल विक्रमसिंंघे के नेतृत्व में नई सरकार बनने के बाद चीन की वर्तमान में श्रीलंका में चल रहीं परियोजनाएं बंद तो नहीं होंगी लेकिन उनकी चाल हल्की जरूर पड़ सकती है।
रानिल उदारमना और सबके हित की बात करने वाले नेता माने जाते हैं। उनकी नीतियों में विकास और सहयोग जैसे मूलभूत गुण उनको सबका प्रिय बनाते हैं। भारत की कूटनीति में श्रीलंका का रणनीतिक महत्व है ही और चीन की बहुचर्चित 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स'नीति यानी भारत को चारों ओर से घेरने की गुपचुप कोशिशों में श्रीलंका एक प्रमुख पक्ष रहा है। इस दृष्टि से भारत के विदेश नीति निर्धारकों को वहां की नई सरकार के साथ मिलकर इस क्षेत्र को चीन के दबदबे से मुक्त रखने संबंधी प्रयासों के बारे में चर्चा करनी चाहिए। तमिल चीतों यानी लिट्टे के खात्मे के बाद संभलने की कोशिश करते उत्तरी प्रांत में शान्ति बहाली और विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जो राजपक्षे की कई नीतियों से नाराज था। श्रीलंका की दिशा का निर्धारण तो सरकार के आगामी एजेंडे से हो ही जाएगा, क्षेत्र के रक्षा विशेषज्ञों का कहना है देश को विकास के मार्ग पर बढ़ाना जरूरी है लेकिन कोई आर्थिक मदद के नाम पर अपना गुप्त एजेंडा चलाने की सोचे तो उसे गंभीरता से देखना चाहिए।      
 पाञ्चजन्य ब्यूरो

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