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बिहार में भाजपा की सफल रैलियों और ओवैसी की जनसभा से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के खेमे में बेचैनी बढ़ गई है। यदि माहौल ऐसा ही रहा तो इस बार बिहार में आश्चर्यजनक राजनीतिक परिवर्तन हो सकता है।
पटना से संजीव कुमार
भारतीय जनता पार्टी द्वारा 18 अगस्त को बिहार के सहरसा में आयोजित परिवर्तन रैली अभूतपूर्व रही। मूसलाधार बारिश के बावजूद लाखों लोग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सुनने के लिए पहुंचे थे। भारी बारिश के बीच रैली में इतनी भीड़ का जुटना एक मायने रखता है। कोसी क्षेत्र में प्रधानमंत्री की यह पहली सभा थी। उल्लेखनीय है कि आज ही के दिन 18 अगस्त, 2008 को कुसहा बांध के टूटने के बाद कोसी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आई थी। सहायता के रूप में पांच करोड़ की राशि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार सरकार को दी थी। लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह राशि नरेन्द्र मोदी को यह कहकर वापस लौटा दी थी कि उन्हें इस पैसे की जरूरत नहीं है। रैली में नरेन्द्र मोदी ने इस मुद्दे को उठाकर नीतीश कुमार के अहंकार को तोड़ने का प्रयास किया। आश्चर्यजनक रूप से प्रधानमंत्री के भाषण के पौन घंटा पहले वर्षा थम गई। बारिश थमते ही जन सैलाब पटेल मैदान की ओर उमड़ पड़ा। इस रैली से कोसी क्षेत्र में भाजपा मजबूत होती दिख रही है। उल्लेखनीय है कि गत लोकसभा चुनाव में कोसी और पूर्णिया प्रमण्डल के किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा और सुपौल लोकसभा क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार चुनाव हार गए थे। इन क्षेत्रों में मुसलमान मतदाताओं, खासकर बंगलादेशी घुसपैठियों की अच्छी-खासी संख्या है। किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार के कई विधानसभा क्षेत्र मुस्लिम-बहुल हैं।
प्रधानमंत्री की यह रैली आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी कारगर सिद्ध हो सकती है। इससे पहले मुजफ्फरपुर और गया में भी प्रधानमंत्री रैली कर चुके हैं।
इन रैलियों के सफल होने से नीतीश और लालू खेमे में घबराहट बढ़ने लगी है। इन दोनों की आस मुसलमान मतदाताओं पर टिकी हुई है, लेकिन इस बार मुसलमान मतदाताओं के कई दावेदार दिख रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख हैं मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमिन (ए.आई.एम. आई.एम.) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी। उन्होंने किशनगंज के रूईधांसा मैदान में 16 अगस्त को एक जनसभा को संबोधित किया। कहा जा रहा है कि सभा में 40 हजार से अधिक मुसलमान आए। इनमें युवाओं की संख्या अच्छी-खासी थी। उन्होंने सीमांचल के मुसलमान नेताओं को बंदर बताते हुए कहा कि यहां शेरों की जरूरत है, बंदरों की नहीं। उनका इशारा बार-बार दल बदलने वाले तस्लीमुद्दीन से लेकर तमाम मुसलमान नेताओं की ओर था। ज्ञात हो कि इस सभा का आयोजन कोचाधामन के पूर्व विधायक अख्तारूल ईमान ने किया था। अख्तारूल 2010 के चुनाव में राजद से विजयी हुए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व उन्होंने पार्टी बदल कर जदयू का दामन थामा था। जदयू ने उन्हें अपना प्रत्याशी भी बनाया था, लेकिन क्षेत्र में हो रहे विरोध के कारण उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया था। इस बात को लेकर जदयू की बड़ी किरकिरी हुई थी। बिहार में ओवैसी अपनी जमीन तलाश रहे हैं। संभवत: वे 24 से 25 उम्मीदवार खड़ा करने का मन बना रहे हैं। हालांकि जनता परिवार ने उनसे आग्रह किया है कि भाजपा को रोकने में जनता परिवार की राह में मुश्किलें खड़ी न करें। हालांकि ओवैसी ने स्पष्ट कहा है कि यह 2015 का दौर है जहां कोई भी मतदाता किसी की जागीर नहीं है।
बिहार में मुसलमानों की 16 प्रतिशत आबादी है। भले ही लालू प्रसाद अपने को मुसलमानों का रहनुमा कहते हों और 'माय' (मुसलमान-यादव) समीकरण का दंभ भरते हों, लेकिन मुसलमानों को लेकर उनकी नीतियों की समीक्षा करने से सब कुछ साफ हो जाता है। उन्होंने मुसलमानों को वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं समझा। जहां तक यादवों की बात है। इसमें में भी वे अपने परिवार तक ही सिमटे रहे। 1990 से लेकर 2005 तक बिहार की सत्ता के केंद्र बिंदु लालू प्रसाद ही थे। इन पंद्रह वर्ष में लालू प्रसाद ने मुसलमानों के लिए कोई ठोस काम नहीं किया। यादवों में भी कोई एक चेहरा उन्होंने उभरने नहीं दिया। कभी किसी को आगे बढ़ाते थे, तो कभी किसी को। लालू प्रसाद के इन्हीं रवैयों के कारण तस्लीमुद्दीन ने लालू प्रसाद को ढोंगी तक कहा था। जुलाई, 2015 में स्थानीय निकाय की 24 सीटों पर बिहार विधान परिषद् के लिए चुनाव हुआ। उस चुनाव में लालू प्रसाद ने राष्ट्रीय जनता दल की ओर से किसी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार तक नहीं बनाया था। मुस्लिम समुदाय में इस बात की कड़ी प्रतिक्रिया थी कि लालू प्रसाद ने अपने कोटे की 10 सीटों में किसी मुस्लिम को उम्मीदवार नहीं बनाया। प्रदेश के कई स्थानों पर इस संबंध में बड़े-बड़े पोस्टर भी लगे थे।
कमोबेश यही हाल लालू प्रसाद के 'छोटे भाई' नीतीश कुमार का भी है। हाल ही में मुसलमानों के एक प्रतिनिधिमंडल ने नीतीश कुमार से मिलकर यह मांग रखी थी कि मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुसार विधानसभा चुनाव में टिकट दिया जाए। नीतीश ने टका सा जवाब दिया था कि मुसलमान उम्मीदवार खड़ा करने पर हिन्दू मतदाता उन्हें वोट नहीं करेंगे। नीतीश ने मुसलमानों को सावधान करते हुए कहा कि विभिन्न चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में कई मुसलमान उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं जिस कारण से भाजपा चुनाव जीत जाती है। मुसलमानों का कहना है कि कथित सेकुलर नेता भाजपा का खौफ दिखाकर उनका एकमुश्त वोट तो ले लेते हैं, लेकिन सत्ता में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व नहीं देते हैं। राज्य में 30 ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमान मतदाता निर्णायक रहते हैं।
गत दो विधानसभा चुनावों के आंकड़े देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान विभाजित बिहार में कभी भी 20 से अधिक सीटें नहीं जीत पाए हैं। 2005 में 14 सीटों और 2010 में 19 सीटों पर मुसलमान उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। 2010 के चुनाव में कांग्रेस ने सर्वाधिक 46 मुसलमान उम्मीदवार खड़े किए थे, जिनमें से सिर्फ 3 चुनाव जीत सके। राजद ने 26, जदयू ने 14, लोजपा ने 10 तथा भाजपा ने 1 सीट पर मुसलमान उम्मीदवार उतारा था। इनमें राजद के 6, जदयू के 7, लोजपा के 2 तथा भाजपा का एक मात्र प्रत्याशी चुनाव जीत पाया था। अब वक्त बताएगा कि बिहार में ओवैसी की चालें नीतीश और लालू का कितना नुकसान कर पाती हैं। ल्ल
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