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महर्षि अरविन्द का जन्मदिवस और भारत का स्वतंत्रता दिवस का एक ही दिन होना अद्भुत सुयोग है। एक बार स्वतंत्रता दिवस पर दिए अपने सन्देश में इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने स्वयं कहा था कि अगस्त 15, 1947 स्वतंत्र भारत का जन्मदिवस है। अगस्त 15 मेरा भी जन्मदिवस है और स्वाभाविक रूप से यह मेरे लिए संतुष्टिदायक है कि इस दिन ने इतना व्यापक महत्व ग्रहण कर लिया है। मैं इस सुयोग को एक आकस्मिक संयोग के रूप में न लेकर उस दिव्य शक्ति के अनुमोदन और मुहर के रूप में लेता हूं जो मेरे कदमों का पथ प्रदर्शित करती है, उस कार्य के लिए जिसके साथ मेरे जीवन की शुरुआत हुई, उस कार्य की पूर्ण सफलता के प्रारम्भ के रूप में।'
महर्षि अरविन्द, लोकमान्य तिलक के साथ भारत के उन राजनीतिक नेताओं और क्रांतिकारियों में से थे जिन्होंने भारत की पूर्ण स्वंत्रता की मांग की थी। उनसे पहले के राजनेता ब्रिटिश सरकार में भारतीयों के लिए प्रशासन में हिस्सेदारी और नौकरियों की मांग कर रहे थे। कुछ नेताओं का यह भी मानना था कि भारतीय अभी राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से स्वयं के शासन के लिए तैयार नहीं हैं। कुछ तो यहां तक मानते थे कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए अच्छा है और हमें उसके अंतर्गत ही रहना चाहिए। लेकिन महर्षि अरविन्द को भारत की शक्ति और भारतीयों के सामर्थ्य पर कोई शंका नहीं थी। उनका मानना था कि यह शक्ति और सामर्थ्य सुप्त है, उसे जागृत भर करना है। उनका मानना था कि भारत की स्वतंत्रता केवल भारत के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए आवश्यक है। स्वतंत्र भारत, जिसके पास अपने स्वधर्म को सिद्ध और प्रकाशित करने की स्वतंत्रता होगी, विश्व के मानव को एक ऐसी आध्यात्मिक दिशा दे सकता है जिसे देने में केवल वही सक्षम है।
भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के आदर्श को 1906 में बिपिन चन्द्र पाल द्वारा स्थापित बंगला समाचार पत्र 'वंदेमातरम्' में अपने लेखों के माध्यम से महर्षि अरविन्द ने वैचारिक स्पष्टता दी, अपने राजनीतिक-क्रांतिकारी कायोंर् से बंगाल की भूमि पर इस आदर्श को राजनीतिक शक्ति प्रदान की। बंगाल का जनमानस तीव्र गति से उनसे प्रभावित होने लगा, वह ब्रिटिश राज के साथ सीधे टकराव में भी आ गया। उनके प्रभाव से भयभीत हो ब्रिटिश सरकार ने वंदेमातरम् को नोटिस दिए और 16 अगस्त 1907 को महर्षि अरविन्द को गिरफ्तार कर लिया। इस गिरफ्तारी और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ उनकी सीधी और निर्भीक टकराहट ने पूरे देश में हलचल मचा दी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था,'हे अरविन्द, रवीन्द्रनाथ तुम्हें नमन करता है! हे मित्र, मेरे देश के मित्र, हे स्वतंत्र भारत की आत्मा की मूर्तरूप अभिव्यक्ति! तेजस्वी संदेशवाहक, भगवान के प्रकाश के साथ आ गए हैं। हे अरविन्द, रवीन्द्रनाथ तुम्हें नमन करता है।' सरकारी वकील महर्षि अरविन्द के विरुद्ध प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके और न्यायालय द्वारा उन्हें बरी कर दिया गया। लेकिन ब्रिटिश सत्ता उन पर लगातार नजर रखने लगी और उन्हें पुन: गिरफ्तार करने का बहाना ढूंढने लगी। 30 अप्रैल 1908 को अलीपुर बम कांड हुआ जिसमें 33 लोगों को गिरफ्तार किया गया जिनमें महर्षि अरविन्द भी एक थे। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर उन्हें एकांत कारावास में डाल दिया गया। उन पर एक वर्ष तक मुकदमा चला और तब तक वे कारावास में ही रहे।
महर्षि अरविन्द का यह एक वर्ष का कारावास भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर सुगठित करने और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत करने का हेतु बना। कारावास में महर्षि अरविन्द अपना अधिकांश समय गीता और उपनिषदों के अध्ययन, गहन ध्यान और योगाभ्यास में लगाते थे। उन आध्यात्मिक अनुभवों ने, जो कि पहले भी उनमें निरंतर अपने परिमाण और सार्वभौमिकता में बढ़ रहे थे, अब उन्हें पूर्ण रूप से आप्लावित कर दिया। इस दौरान उन्हें दिव्य सत्ता के सार्वभौमिक अस्तित्व की प्रमुख सिद्धि प्राप्त हुई। अपने प्रसिद्ध उत्तरपाड़ा भाषण में इसका उल्लेख करते हुए हुए उन्होंने कहा, 'मैंने देखा की जेल की ऊंची दीवारों में, जिन्होंने मुझे मानव जाति से अलग कर रखा था, मैं कैद नहीं हूं। स्वयं वासुदेव सर्वत्र मुझे घेरे हुए हैं। मैं एक वृक्ष की शाखाओं के नीचे छाया में टहल रहा था, मैंने देखा कि वह पेड़ नहीं है, वह तो स्वयं वासुदेव हैं। श्रीकृष्ण वृक्ष बनकर मुझे धूप से बचा रहे हैं। मैंने कैदखाने के सींखचों की ओर देखा। पहरा देने वाले नारायण ही थे जो संतरी की तरह मेरे दरवाजे पर खड़े थे।
जब मैं जेल में कम्बलों पर लेटा तो अनुभव हुआ कि मैं श्री कृष्ण की, अपने प्रेमी और मित्र की भुजाओं में लिपटा हुआ हूं। मैंने जेलखाने के कैदियों को देखा, चोरों, हत्यारों, ठगों को देखा और जब मैंने उन्हें देखा, मैंने पाया कि वे वासुदेव थे, इन अंधकारमय आत्माओं और कुप्रयोगित शरीरों में मैंने नारायण को पाया।' इसी भाषण के अंत में उन्होंने ये पंक्तियां भी कहीं जो भारत के राष्ट्रवाद के मस्तक पर तिलक रूप में अंकित हो गयीं, 'मैं अब कहता हूं कि राष्ट्रीयता सनातन धर्म है। यह हिन्दू राष्ट्र सनातन धर्म के साथ अस्तित्व में आया, वही इसे परिचालित करता है, वही इसे विकसित करता है। जब सनातन धर्म च्युत होता है, तब राष्ट्र च्युत होता है और यदि सनातन धर्म नष्ट होने की चीज होगा तो यह राष्ट्र भी नष्ट हो जाएगा। सनातन धर्म राष्ट्रीयता है।' महर्षि अरविन्द का यह भाषण भारतीय राष्ट्रीयता की नयी व्याख्या थी और उनके द्वारा बाद में विकसित किये गए आध्यामिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत की ओर पहला कदम था।
ब्रिटिश सत्ता महर्षि अरविन्द के बरी हो जाने के कारण कुंठित हो रही थी। ब्रिटिश वायसराय ने तो अपने प्रशासन को यहां तक कह दिया था कि 'इस व्यक्ति को कैसे भी पुन: कारागृह में डालना है, क्योंकि यह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारत का सबसे खतरनाक व्यक्ति है।' भगिनी निवेदिता द्वारा इस आशय की सूचना दिए जाने के बाद महर्षि अरविन्द दिव्य आज्ञा के आदेश की पालना करते हुए पहले चन्दरनगर और बाद में पांडिचेरी पहुंचे जो उनकी तपस्या का केंद्र बना। पांडिचेरी में उन्होंने न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करने और सृष्टि के विकासक्रम में मानव को उसके अगले स्तर पर ले जाने का कार्य किया। यहीं उन्होंने अपना आध्यामिक विकासक्रम का सिद्धांत भी विकसित किया और इसके लिए जिस अतिमानवीय चेतना का सृष्टिचेतना में अवतरण आवश्यक था।
महर्षि अरविन्द का सक्रिय राजनीतिक जीवन, जिस रूप में हम आज राजनीति को समझते हैं, 1906 से 1910 के बीच केवल चार वर्ष का रहा। पर इन चार वषोंर् में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का पूरा राजनीतिक दृश्य रूपांतरित हो गया। जहां पहले ब्रिटिश साम्राज्य के सामने केवल याचिकाएं और प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किये जाते थे, वहीं अब पूरे देश में भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का आदर्श हिलोरें लेने लगा। 1910 के 37 वर्ष बाद 15 अगस्त, 1947 को महर्षि अरविन्द के जन्मदिवस पर, उस ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य, जो कभी छिपता नहीं था, अस्त हो गया और स्वतंत्र भारत का देदीप्यमान सूर्य उदित हो गया।
आधुनिक भारत के लिए महर्षि अरविन्द ने जो करणीय कार्य बताये थे उनको इस स्वतंत्रता दिवस पर, जब भारत के बदलते राजनीतिक परिदृश्य में युगपुरुषों के सपनों के भारत के निर्माण का आधार बन रहा है, राष्ट्रवादी राजनेताओं तथा नीति-निर्माताओं द्वारा अपनी कार्यकारी चेतना का लक्ष्य बनाना उचित होगा। महर्षि अरविन्द के ही शब्दों में,'प्राचीन आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव को उसके पूरे वैभव, गहराई और परिपूर्णता के साथ पुन: प्राप्त करना भारत का प्रथम और मूलभूत कार्य है।'
अखिलेश तिवाड़ी
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