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कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा- अल्लामा इकबाल के ये शब्द हजारों वर्षों के इतिहास का निचोड़ हैं। लेकिन अब यह इतिहास करवट बदल रहा है। हस्ती मिटाने वाली दुश्मनी अब दौरे जहां के साथ-साथ हम स्वयं भी निभा रहे हैं। इंडिया और भारत की दुश्मनी। अंग्रेजी और भदेसों के भेद की कहानी। अपनी ही थाली पर चलती अपनी ही छैनी की कहानी।
1947 में मिली स्वतंत्रता की वर्षगांठ के मौके पर इस प्रश्न पर विचार जरूरी है। हम स्वतंत्र हुए और हमारा नेतृत्व हमारे लोगों के हाथों में आ गया। कौन थे वे हमारे लोग? वे कोई क्रांतिकारी नहीं थे, जिन्होंने आजादी लड़कर हासिल की हो। ये वे लोग थे, जो हस्तांतरित की गई सत्ता को संभालने वालों में से, प्रतियोगिता (और परोक्ष सरकारी चयन में) सर्वश्रेष्ठ पाए गए थे। रटाई गई कहानियों से परे सारे इतिहास को देखें, तो आजादी कई सारे कारणों का परिणाम थी, जिनमें से निश्चित रूप से एक पहलू स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष का भी था। बहरहाल, हम लोेगों को और इन हमारे लोगों को, एक हजार वर्षों से चली आ रही पराधीनता में, पराधीन रहने की, किसी और के इशारों पर चलने की मानो आदत सी पड़ गई थी। जो स्वयं वैचारिक-मानसिक-अभ्यासगत पिछलग्गू थे, वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से नेता हो गए।
ऐसा प्रतीत होता है कि आइडिया ऑफ इंडिया की परिकल्पना और उसके आधार पर एक मैकॉलेकृत इंडिया का निर्माण इसी नेता की खाल में छिपे पिछलग्गू नेतृत्व को स्थायी रूप देने का एक प्रयास था। हो सकता है। लेकिन वह प्रयास अक्षुण्ण रूप ले ले, यह कहां की समझदारी है?
इस मैकॉलेकृत इंडिया या नेहरूकृत इंडिया या आइडिया ऑफ इंडिया को समझा जाना जरूरी है। स्वतंत्रता प्राप्ति या सत्ता प्राप्ति के बाद भारत ने अपने स्व को पहचानने की कोई चेष्टा की हो- ऐसा कोई इतिहास नहीं है। इतिहास में ही जीना है, यह कोई नहीं कहता। लेकिन आपको यह तो पता ही होना चाहिए कि आखिर आप कौन हैं। हमने क्या किया? हमने सबसे पहले समाज का काम सरकार को सौंप दिया और सरकार का काम उस तंत्र को सौंप दिया, जिसका मैकॉलेकृत रहा होना एक अनिवार्य शर्त थी। इससे इंडिया सतत सरकारी आश्रय में आ गया, और भारत हमेशा के लिए सरकार और समाज में हेय हो गया। भारत के स्व की लगातार अनदेखी किए जाने में इन विदेशी विचारधाराओं का स्पष्ट स्वार्थ था। हमारे इतिहास में, हमारी संस्कृति में , हमारे समाज में समाकालिक तौर पर उपयुक्त तत्वों की कोई कमी नहीं है। जो अन्य बातें हैं, जिन्हें हमें आज तक पिछड़ापन बताया जाता रहा है, उनका मर्म, उनकी उपयोगिता, उनका महत्व अपने ही देश में उपेक्षित पड़ा है। हो सकता है, उनमें से कई बातें आज के युग में बीती बात नजर आती हों। लेकिन प्रश्न यह नहीं है। प्रश्न यह है कि क्या हमने उन्हें इस युग के अनुकूल बनाने की कोशिश की, या उन्हें मजाक का पात्र बना कर छोड़ दिया?
अतीत में कई दृष्टांत हुए हैं, जिनमें आक्रांताओं ने भारत के ग्रंथागारों को, भारत के स्थापत्य को, भारत की अस्मिता को, भारत के ज्ञान और विज्ञान को, भारत की आस्थाओं को, भारत के आत्मविश्वास को हिंसक ढंग से नष्ट करने की कोशिश की थी। असंख्य पुस्तकों और ग्रंथों को आग के हवाले किया गया। सदियों के श्रम से बने मंदिरों और मूर्तियों को ध्वस्त किया गया। तर्क को कोई तर्क से खारिज करे, वह समझा जा सकता है। लेकिन यहां उसे हिंसा से नष्ट किया गया। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि वे विशाल विश्वविद्यालय अगर कोई जीवंत वस्तु रहे होते, तो उनकी चीत्कार क्या होती? यही कि एक न एक दिन यह ज्ञान फिर उठकर खड़ा होगा। स्वतंत्रता के 68 वर्षों मेंं क्या हुआ, यह हमें आत्म चिंतन करना चाहिए।
वे भग्न मूर्तियां, वे नष्ट की जा चुकी पुस्तकें, वे भग्न स्थापत्य भारत की आत्मा का अंश हैं। उनके साथ जुड़ी हमारी प्रणालियां, हमारे शासन तंत्र, हमारी विधियां, हमारा ज्ञान- यही सब तो हमारा स्व हैं। उसे आधुनिक बनाना निस्संदेह हमारा काम है। लेकिन उसकी अनदेखी करके हम जिसे आधुनिकता समझ रहे हैं, उससे हमारा स्व कहां जुड़ता है?
स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद सरदार पटेल के प्रयासों से सोमनाथ के भग्न मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया। यह अंग्रेजी जानने वाले बाबुओं से भरे किसी सचिवालय की तुलना में स्वतंत्रता का कहीं बड़ा लक्षण था। परतंत्रता के युग की भांति, आज भी एक वर्ग इसी खंडित आत्मविश्वास की पूर्ति अंग्रेजी से करने की कोशिश करता है। भारत की खोज इंडिया में कर लेता है, इंडिया को शासक और भारत को शासित समझ लेता है। इनके बीच खाई बढ़ती जा रही है। कितनी बढ़ चुकी है यह खाई और कितना पहचानते हैं हम अपने स्व को, आइए करते हैं इसकी पड़ताल। एक विशिष्ट, सीमित युवा सर्वेक्षण और विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञों के जरिए समझते हैं भारत और इंडिया के बीच पसरे फर्क को। -ज्ञानेन्द्र बरतरिया
इंडिया के मन में भारत की तस्वीर
कितनी धुंधली कितनी उजली
दिल्ली जैसे महानगर में भारत और इंडिया का विभेद कितना असरदार है और उसने आगामी पीढ़ी के छात्रों को किस तरह प्रभावित किया है, यह देखने के लिए पाञ्चजन्य ने युवाओं के बीच प्रतीकात्मक सर्वेक्षण का आयोजन किया। सर्वेक्षण के जरिए इस देश और महापुरुषों के बारे में युवाओं के ज्ञान, उनके जीवन के आदर्श और उनकी महत्वाकांक्षाओं को समझने का प्रयास किया गया। हालांकि सभी छात्रों ने सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया, फिर भी उनके उत्तर आगामी पीढ़ी
के रुझान को स्पष्ट करने में काफी हद तक सफल रहे। इस कवायद में यह बात भी साफ हो गई कि भारतीयता के प्रति चाह के स्पष्ट उभार के बावजूद युवाओं की जानकारी राष्ट्रजीवन के कई महत्वपूर्ण प्रश्नों पर गड्डमड्ड है। क्या यह दशकों तक भारत पर इंडिया के हावी रहने का असर है?
सर्वेक्षण में पहला प्रश्न था कि भारत को इंडिया क्यों कहते हैं?
दिल्ली के तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 200 उत्तरदाताओं में से 32 का उत्तर था कि ऐसा इस कारण है क्योंकि भारत शब्द इंडिया का समानार्थी है। 40 का कहना था कि ये भारत का ही दूसरा नाम है, जबकि 109 छात्रों का कहना था कि भारत को इंडिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि अंग्रेज इसे इंडिया कहते थे। चार छात्रों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। 5 ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया। अधिकांश छात्रों को भारत और इंडिया के बीच किसी तरह के भौतिक या सांस्कृतिक विभेद का जरा भी एहसास नहीं था।
स्वतंत्रता दिवस किसलिए मनाया जाता है?
इस प्रश्न के उत्तर में 9 छात्रों का कहना था कि संविधान लागू हुआ इसलिए। 16 का कहना था कि भारत एक नया देश बना। 162 का कहना था कि भारत स्वतंत्र हुआ। जबकि 4 का कहना था कि उन्हें पता नहीं। हैरानी की बात है कि सर्वेक्षण में शामिल तीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के छात्रों में 9 ऐसे थे जिन्होंने इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं दिया।
सन् 1857 में आखिर हुआ क्या था?
भारत के इतिहास की कम से कम एक मोटी समझ का अंदाज लगाने के उद्देश्य से सर्वेक्षण में पूछा गया यह तीसरा प्रश्न था। 139 युवाओं का कहना था सैनिक विद्रोह हुआ था। जबकि 44 का कहना था कि इस वर्ष एक राष्ट्रव्यापी क्रांति हुई थी। जबकि 7 का कहना था कि उन्हें 1857 की ऐतिहासिकता के बारे में नहीं पता और 10 युवाओं ने प्रश्न ही छोड़ दिया।
पानीपत किसलिए प्रसिद्ध है?
इसके उत्तर में 161 का कहना था कि विदेशी हमलावरों के विरुद्ध लड़ी गई लड़ाइयों के लिए। 18 का कहना था कि कपड़ा उद्योग के लिए। 3 का कहना था कि पंजाब का बड़ा शहर होने के कारण यह प्रसिद्ध है, उन्हें पता ही नहीं था कि पानीपत हरियाणा में है पंजाब में नहीं। जबकि कुछ छात्रों ने कहा उन्हें पानीपत के बारे में पता नहीं है।
शिवाजी कौन थे?
इसका जवाब अधिकांश छात्रों ने सही दिया। हालांकि छह युवाओं की समझ इस बारे में यह थी कि शिवाजी मशहूर तमिल अभिनेता का नाम है। 178 का कहना था कि शिवाजी प्रतापी मराठा राजा थे। एक छात्र का कहना था कि औरंगजेब के सेनापति थे। जबकि 13 छात्रों का कहना था कि उन्हें इस बारे में साफतौर पर पता नहीं है।
पृथ्वीराज चौहान कौन थे?
थोड़ा और गहराई में उतरने की इच्छा से पूछा गया छठा प्रश्न था कि पृथ्वीराज चौहान कौन थे। 90 युवाओं का कहना था कि वह भारत के प्रतापी सम्राट थे, 84 छात्रों का कहना था कि वह मेवाड़ के राजा थे। चौहान और चव्हाण पर छात्र भ्रम में दिखे! 16 का कहना था पृथ्वीराज चौहान महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। जबकि 10 का कहना था कि वे इस बारे में नहीं जानते।
गांधी को महात्मा क्यों कहते हैं?
यह सर्वेक्षण का सातवां प्रश्न था। इस प्रश्न पर भी उत्तर इतने बंटे होंगे यह कल्पना नहीं थी। 75 युवाओं का कहना था कि वे महान आत्मा थे। 15 का कहना था कि वे महात्मा जैसे दिखते थे। 65 का कहना था कि अंग्रेजों ने उन्हें महात्मा की उपाधि दी थी। 21 का कहना था कि उन्हें इस बारे में पता नहीं। 24 छात्रों ने इस प्रश्न का कोई भी उत्तर नहीं दिया।
यह पूछने पर कि आजाद हिंद फौज किसने बनाई?
छात्रों ने बेहद रोचक उत्तर दिए। 5 छात्रों का कहना था कि आजाद हिंद फौज जवाहरलाल नेहरू ने बनाई। इनमें 20 का कहना था कि चंद्रशेखर आजाद ने। 149 का कहना था नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने। जबकि 9 का कहना था कि उन्हें पता नहीं। 17 छात्रों ने इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं दिया।
भगत सिंह कौन थे?
वापस एक बार आधुनिक भारत के इतिहास पर लौटते हुए छात्रों से पूछा गया कि भगत सिंह कौन थे? 6 का कहना था कि वे महान लेखक थे। 166 युवाओं का कहना था कि वे महान क्रांतिकारी थे, 10 ने उन्हें कांग्रेस का नेता बताया। जबकि 18 के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था।
भारत को सोने की चिडि़या क्यों कहते थे?
इसके उत्तर में 45 छात्रों ने कहा कि भारत के पास बड़ा स्वर्ण भंडार था, इस कारण इसे सोने की चिडि़या कहा जाता था। 4 छात्रों ने कहा कि वहां सोने के पंखों वाली चिडि़या पाई जाती थीं। 126 ने कहा कि भारत संपन्न समृद्ध, शक्तिशाली और विकसित देश था। जबकि 25 ने कहा कि उन्हें इस बारे में पता नहीं। कई छात्रों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।
मेजर ध्यानचंद किस कारण प्रसिद्ध हैं?
तो विश्वास मानिए 200 में से 13 युवाओं का कहना था कि वे युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने के लिए प्रसिद्ध हैं। चार उन्हें क्रिकेट का खिलाड़ी मानते थे और 24 छात्रों को उनके बारे में कुछ नहीं पता था। 159 छात्र जानते थे कि वे भारत के एक अदभुत हॉकी खिलाड़ी थे।
और स्वामी विवेकानंद के बारे में …
स्वामी विवेकानंद के बारे में विश्वविद्यालय के छात्रों का ज्ञान अनूठा है। 48 छात्र उन्हें रामकृष्ण मिशन के प्रमुख स्वामी मानते थे। गौर कीजिए, मिशन के संस्थापक नहीं, सिर्फ स्वामी। 18 छात्रों का उत्तर और ज्यादा चौंकाने वाला था। उनकी नजर में स्वामी विवेकानंद कोई क्रांतिकारी थे। 16 छात्र उनके बारे में कुछ नहीं जानते थे और 118 छात्रों का कहना था कि वे भारत के महान पथ प्रदर्शक थे।
मन की बात
इंडिया बनाम भारत के फर्क को युवाओं की नजर से पकड़ने के प्रयास में दो सवाल ऐसे थे जिनका कोई विकल्प पहले से उपलब्ध नहीं कराया गया। देश के बारे में छात्रों को क्या बातें अच्छी लगती हैं और कौन-सी बातें उन्हें पसंद नहीं। इस पर युवाओं से उनकी राय लिखित तौर पर जानी गई। जो उत्तर मिले वह इस मायने में दिलचस्प हैं कि भारत से जुड़ाव और इंडिया के दुष्प्रभाव का सीधा-सादा अंदाजा इन उत्तरों से मिलता है।
'भारत' में क्या लगता है अच्छा?
ल्ल प्राचीन भारतीय पद्धतियां
ल्ल टिकाऊ विकास की ओर बढ़ता देश
ल्ल विश्वगुरु होने की क्षमता
ल्ल परंपरा एवं सहिष्णुता
ल्ल इस देश की संस्कृति
ल्ल विभिन्न परंपराओं का
एक राष्ट्र
'इंडिया' में क्या लगता है खराब?
ल्ल भ्रष्टाचार
ल्ल आतंकवाद
ल्ल आरक्षण पर बेवजह राजनीति
ल्ल सेकुलरिज्म
ल्ल अलगाववाद
ल्ल भाई भतीजावाद
ल्ल देशहित की अनदेखी
सर्वेक्षण विधि
यह सर्वेक्षण 30 जुलाई से पांच अगस्त 2015 के बीच दिल्ली के तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों- जामिया विवि, जेएनयू और दिल्ली विवि के 200 छात्रों के बीच किया गया। सर्वेक्षण में देश के विभिन्न राज्यों और अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि के छात्रों का प्रतिनिधित्व रहे यह प्रयास किया गया। उत्तर देने वालोंे में छात्रों और छात्राओं की संख्या लगभग बराबर थी। छात्रों को प्रश्नों का उत्तर देने के लिए विकल्प चुनने की सुविधा दी गई थी, हालांकि कुछ प्रश्नों का उत्तर स्वेच्छा से देने अथवा न देने की स्वतंत्रता रखी गई।
भारत में गरीबी का कारण पूछने पर…
पन्द्रहवें प्रश्न में भारत में गरीबी का कारण पूछे जाने पर 31 छात्रों का कहना था कि गरीबी का मूल कारण यह है कि लोग काम ही नहीं करना चाहते हैं। 78 छात्रों की दृष्टि में गरीबी का कारण सर्वांगीण विकास न होना पाना था। लगभग इतने ही, 76 छात्र मानते थे कि रोजगार की कमी के कारण देश में गरीबी है। 15 छात्र ऐसे भी मिले जिन्हें गरीबी का कोई कारण पता नहीं था।
भ्रष्टाचार कैसे खत्म हो सकता है?
सोलहवें प्रश्न में पूछा गया कि भ्रष्टाचार कैसे खत्म हो सकता है, तो 80 का कहना था कि सबका विकास करने से भ्रष्टाचार खत्म हो सकता है। वहीं इतने ही छात्रों का मानना यह भी था कि यह कभी खत्म नहीं हो सकता। 200 में मात्र 15 छात्र भ्रष्टाचारियों को कड़ी सजा देने के पक्ष में थे, जबकि 10 छात्रों को इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। भारतीय देशज मूल्यों की बात करें तो प्राप्त उत्तरों से ऐसा लगता है जैसे शहरीकरण भारत की इस आत्मा को छू भी नहीं सका है।
आप किस तरह के परिवार में रहना चाहते हैं?
200 में से 139 युवाओं का कहना था कि वे संयुक्त परिवार में रहना पसंद करते हैं। जबकि 28 छात्र एकल परिवार में रहने के पक्षधर थे। 12 छात्र ऐसे भी थे जो नितांत अकेले रहने की बात अपनी पसंद के तौर पर दर्ज कराना चाहते थे। हैरानी की बात है कि 21 छात्र अपने भावी सामाजिक जीवन के बारे में अपने ही फैसले को लेकर अनिश्चित थे।
आप सप्ताह में कितने दिन किसी पूजा स्थल में जाते हैं?
अठाहरवां प्रश्न था कि आप सप्ताह में कितने दिन किसी पूजा स्थल में जाते हैं? नास्तिकता या आस्तिकता के सवाल पर छात्रों की राय बंटी हुई थी। 200 छात्र-छात्राओं में से 57 छात्र-छात्राएं प्रतिदिन पूजा स्थल पर जाने की बात कहते मिले, 40 छात्र-छात्राएं सप्ताह में एक बार, 34 कभी- कभार और 35 कभी भी किसी पूजा स्थल में नहीं जाते। जबकि 34 छात्रों ने कोई जवाब ही नहीं दिया।
आप किस रोजगार को प्राथमिकता देंगे?
अगला सवाल था आप किस रोजगार को प्राथमिकता देंगे? इस सवाल पर इन छात्र-छात्राओं की महत्वाकाक्षाएं भी अपने आप में एक कहानी कहती प्रतीत होती हैं। 200 में से 100 छात्र-छात्राओं का कहना था कि वे सरकारी नौकरी को प्राथमिकता देंगे। मात्र 11 छात्र निजी क्षेत्र में नौकरी करने और इतने ही छात्र अपना व्यवसाय करने को प्राथमिकता देने के पक्ष में थे। 32 छात्रों ने अपने भविष्य का प्रश्न भविष्य पर ही छोड़ दिया था। वहीं 57 अपने भविष्य को लेकर अनिश्चितता में थे।
अपना आदर्श किसे मानते हैं?
अंतिम सवाल जीवन के आदर्श पुरुष से जुड़ा था। छात्रों से जब पूछा गया कि वे अपना आदर्श किसे मानते हैं, तो इसमें डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम सबसे ज्यादा, 120 छात्रों ने लिया। 8 छात्र सचिन तेंडुलकर को अपना आदर्श मानते हैं। 7 रणवीर कपूर को और 65 छात्र अन्य को अपना आदर्श मानते हैं।
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