बाहुबली से खलबली
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बाहुबली से खलबली

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Jul 25, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 25 Jul 2015 12:29:21

ये सवाल मन में कई बार उठता रहा कि क्या कोई फिल्म कभी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व कर पाएगी? क्या कभी कोई फिल्मकार ऐसी फिल्म बना पाएगा, जिसमें कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आमजन जुड़ पाए? बाहुबली ने ये सारे जवाब बेहद सहजता से दे डाले हैं।

 स्वाति गौड़
ज्यादा नहीं बस दो साल पहले की बात है। बॉलीवुड, जिसे हम समझ बैठे हैं कि वह भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व करता है, ने बड़े धूम-धाम से भारतीय सिनेमा के 100 वर्ष पूरे होने पर खूब जश्न मनाया। कई अखबारों-पत्रिकाओं ने इस मौके को भुनाने के लिए पूर-पूरे पन्ने रंग डाले। बॉलीवुड के कुछ धुरंधर कहे जाने वाले निर्देशकों ने इस खास मौके के लिए एक फिल्म भी बनाई। बांबे टाकीज नाम की इस फिल्म को देखकर फिल्मों की समझ न भी रखने वाला इंसान भी ये सवाल उठा सकता है कि आखिर किस हैसियत से विश्व पटल पर बॉलीवुड भारतीय सिनेमा का प्रतिनिधित्व कर रहा है?
समलैंगिकता, रियेलिटी शोज, एक महानायक के प्रति दीवानगी और एक जटिल सोच रखने वाले कलाकार की कहानी कहती वह फिल्म किसी भी लिहाज से न तो भारतीयता को समर्पित कही जा सकती थी और न ही कलात्मक दृष्टि से उसे सराहा जा सकता था। हम ऐसी किसी फिल्म को भारतीय सिनेमा को कैसे समर्पित कर सकते हैं, जिसमें आम जन की बात ही न कही गयी हो। ऐसी किसी फिल्म को हम अपना कैसे कह सकते हैं, जिसमें हमारे समाज, उसके लोग, हमारी परंपरा, महापुरुष, संस्कृति की झलक तो छोडि़ये, उनका जिक्र तक न हो। क्या ऐसी कोई फिल्म कश्मीर से कन्याकुमारी तक बसे जन-जन के दिल में उतर सकती है, अपनी छाप छोड़ सकती है? क्या समलैंगिकता और रियेलिटी शोज को ही हम आज अपनी पहचान मान बैठे हैं? क्या ये बाजारू प्रवृत्ति नहीं है कि इस खास मौके पर भी हम ऐसे विषय को भुनाने से बाज नहीं आते?
इसके निर्माण में करण जौहर, जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी और अनुराग कश्यप जैसे होनहार फिल्मकारों की सोच और सिनेमा को अपनी जागीर समझने वाले लोगों की एक पूरी फौज शामिल थी। ये फिल्म आयी और गयी। किसी को पता भी नहीं चला। ठीक वैसे ही जैसे आजकल गाजर-मूली के भाव फिल्में आती हैं और कुछेक करोड़ कमा कर चली जाती हैं। कुछ 100-200 या 300 करोड़ भी कमा लेती हैं। पर इनमें से कितनी फिल्में ऐसी होती हैं, जो सही मायने में हम भारतीयों के लिए बनाई जाती हैं? दरअसल, बॉलीवुड या कहिये हिन्दी सिनेमा उद्योग बरसों से ऐसी फिल्में बनाता आ रहा है, जिसमें वह सहज है और ठहाका मार कर ये भी कहने से बाज नहीं आता कि लोग ऐसी ही फिल्में देखना पसंद करते हैं।   
कभी अमिताभ बच्चन ने हिन्दी फिल्म उद्योग को बॉलीवुड पुकारे जाने पर कड़ा ऐतराज जताया था। बहुत ज्यादा नहीं तो वह कभी-कभी ऐसा ऐतराज जता भी देते हैं। लेकिन आज यहां हम न तो अमिताभ बच्चन की बात कर रहे हैं, न ही बाम्बे टाकीज के बारे में और कुछ कहने जा रहे हैं, न ही हिन्दी सिनेमा को बॉलीवुड पुकारे जाने पर ऐतराज जताने जा रहे हैं।
आज हम यहां एक ऐसी फिल्म की बात कर रहे हैं, जिसने पूरब से लेकर पश्चिम तक अपनी कई अविश्वसनीय बातों से असंख्य लोगों को हिला डाला है। एक ऐसी फिल्म की बात, जिसे लेकर न केवल समूचे भारत में, बल्कि विश्व के तमाम देशों के लोगों में एक अजीब-सी उत्सुकता देखी गयी है।
आमजन को भाने वाली पटकथा

अभी दो हफ्ते पहले आयी फिल्म बाहुबली ने वाकई सबको चौंकाने वाला काम किया है। कभी के़ आसिफ की फिल्म मुगल-ए-आजम के निर्माण को लेकर एक पूरी किताब लिखे जाने की गुंजाइश बनी थी। आज इस क्रम में बाहुबली को नि:संदेह शामिल किया जा सकता है। आजादी के 13 साल बाद 1960 में आयी मुगल-ए-आजम में मुगल सल्तनत के अजीम-ओ-शान शहंशाह, उनके सपूत और एक दासी की कहानी को पेश किया गया था। इस फिल्म की कहानी घर-घर में कही-सुनी जा रही थी। इस फिल्म को अपने विषय, किरदार, अभिनय और गीत-संगीत से अधिक अपनी भव्यता और भारी-भरकम खर्चे-लागत की वजह से भी याद किया जाता है। लेकिन इस फिल्म के 40 साल बाद भी ऐसे प्रयास न के बराबर हुए। और जो हुए उनकी इस ढंग से चर्चा नहीं हुई। नई सदी के आगमन के बाद अपनी भव्यता की वजह से कुछेक फिल्मों का निर्माण तो जरूर हुआ, लेकिन उन्हें केवल घर में ही सराहना मिली। भारत के कोने-कोने तक ऐसी फिल्मों की प्रसिद्धि न के बराबर पहुंची।
ऐसे में रह-रह कर ये सवाल मन में उठता रहा कि क्या कोई फिल्म कभी पूरे भारत का प्रतिनिधित्व कर पाएगी? क्या कभी कोई फिल्मकार ऐसी फिल्म बना पाएगा, जिसमें कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आमजन जुड़ पाए? बाहुबली ने ये सारे जवाब बेहद सहजता से दे डाले हैं। सोशल मीडिया के इस जमाने में, जहां किसी भी रोचक चीज को वायरल होने में मिनट नहीं लगता, इस फिल्म ने अपने विषय और गुणवत्ता के बल पर लोगों को खुद मजबूर कर डाला कि वे पहले ये फिल्म देखें, फिर दूसरों को इसे देखने के लिए प्रेरित करें। आज फेसबुक और व्हाट्स एप्प पर इस फिल्म की चर्चा हो रही है। बेशक इस चर्चा को फैलाने में इस फिल्म की पीआर टीम का हाथ नहीं है। लोगों ने खुद इंटरनेट से खोज-खोजकर इस फिल्म से जुड़े रोचक तथ्य निकाले और तमाम लोगों तक पहुंचाए। तो क्या यह फिल्म 'ह्यूमन टच' के मामले में राजू हिरानी की फिल्मों से भी आगे निकल गयी है? सनद रहे कि तमाम फिल्मकार मानते रहे हैं कि इतने बड़े पैमाने पर वही फिल्म प्रसिद्धि पा सकती है, जिसमें मानवीय पहलुओं पर बेहद बारीकी से ध्यान दिया गया हो। हजारों साल पहले की एक पौराणिक कथा में ऐसा कैसे संभव को सकता है? लेकिन दक्षिण भारतीय निर्देशक एस़ एस़ राजामौली ने ऐसा कर दिखाया है।
बहुत सूक्ष्म अध्ययन न भी करें तो फिल्म की कहानी कोई बहुत चौंकाने वाली नहीं लगती। एक राजा था, एक रानी थी। राजा के चार भाई थे। सारे बुरे थे। राजा की प्रजा राजा को बहुत प्यार करती थी। उसका सेनापति बहुत दिलेर था। मगर उसके शासन में कई धूर्त भी थे। फिर भी राजा अपने मधुर व्यवहार, नेकदिली और बहादुरी से अजर-अमर रहा वगैरह वगैरह। पौराणिक कथाओं, दंत कथाओं, अमर चित्र कथा, नंदन, चंपक सरीखी पत्रिकाओं में ऐसी हजारों कहानियों का वर्णन किया जा चुका है। लेकिन राजामौली ने हालीवुड से प्रेरित 'साइंस फिक्शन' कहानियों के इस जमाने में ऐसी कहानी कहकर जो साहस दिखाया है, वह काबिलेगौर है। खासतौर पर 250 करोड़ की लागत लगाकर उन्होंने जो जोखिम उठाया है, सराहना हमें उसकी करनी चाहिये। उनकी टीम में कहने को स्टार केवल एक ही इंसान है। या कहिये 'स्टार वैल्यू' के नाम पर उनके पास केवल प्रभास थे, जो तेलुगू सिनेमा में खासे मशहूर हैं। अपने बजट और कमाई के लिहाज से तेलुगू फिल्में कोई बहुत ज्यादा सुर्खियों में नहीं रहती हैं। प्रभास ने खुद 12-13 साल में कुल जमा दो से ज्यादा फिल्में नहीं की हैं। लेकिन कहा जाता है कि इस फिल्म के लिए उन्होंने 20 करोड़ रुपये लिये हैं। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि केवल प्रभास की प्रसिद्धि की वजह से फिल्म चल निकली।
 प्रभास के अलावा फिल्म में दूसरा सबसे बड़ा आकर्षण है अभिनेता राणा दग्गूबाती। राणा ने कुछेक हिन्दी फिल्में की हैं, जिन्हें देख कर सहज ही कहा जा सकता है कि वह यहां नहीं चले और वापस दक्षिण लौट गये। वैसे इसी साल अक्षय कुमार के साथ उन्होंने फिल्म बेबी में काम किया था, जिसे काफी सराहा गया था। तमन्ना का बोरिया-बिस्तर बॉलीवुड से वैसे ही बंध हो चुका है। अब रही रमैया और अनुष्का शेट्टी। इनके किरदार 'स्टार वैल्यू' के दायरे से बाहर हैं। तो क्या अकेले राजामौली के निर्देशन और अपनी विषय-वस्तु की वजह से फिल्म इतना नाम और पैसा कमा रही है?
धूम मचा दी दुनिया में
ये सवाल वाकई परेशान करने वाला है कि आखिर ऐसा क्या है कि इस फिल्म ने पहले तीन दिन में ही 125 करोड़ से अधिक की कमाई कर ली थी? एक हफ्ते में 250 करोड़ और 12 दिन में 300 करोड़ से अधिक की कमाई करके अब यह फिल्म 350 करोड़ से अधिक की तरफ बढ़ रही है। उत्तर भारत में अपने हिन्दी में परिवर्तित स्वरूप में यह फिल्म करीब 70 करोड़ कमा चुकी है, जो किसी भी गैर हिन्दी भाषी फिल्म का एक रिकार्ड है। इससे पहले कोई दक्षिण की फिल्म 20-25 करोड़ तक नहीं कमा पाई। ज्ञात रहे कि यह फिल्म उत्तर भारत में सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान के बाद सबसे ज्यादा सिनेमाघरों पर काबिज है। विदेश में यह फिल्म बजरंगी भाईजान को बराबर की टक्कर दे रही है। बीते 5 दिनों में इसने दुनियाभर से 70 करोड़ से अधिक बटोर डाले हैं, जबकि सलमान की फिल्म को अभी 10 करोड़ भी नहीं मिले हैं। और अब ये भी उम्मीद की जा रही है कि बाहुबली 500 करोड़ की कमाई कर एक नया इतिहास रच सकती है, जबकि इसका दूसरा भाग प्रदर्शित होना बाकी है। यह केवल किसी फिल्म के बारे में शगूफा उछाल देने से नहीं होता।

चुभती है चुप्पी

इधर, बॉलीवुड इस फिल्म की सफलता को शायद सहजता से पचा नहीं पा रहा है। कोई तहेदिल से इसकी तारीफ भी नहीं कर पा रहा है। हालांकि उत्तर भारत में इस फिल्म का जोरदार प्रचार हो सके और लोग इससे जुड़ सकें इसके लिए बाहुबली के साथ फिल्मकार करण जौहर का नाम जोड़ा गया था। बावजूद इसके न तो करण पाले के लोगों ने इस फिल्म की कामयाबी पर ट्वीट कर अपने जौहर दिखाए, न ही फेसबुक पर इसकी तारीफों के पुल बांधे। क्या यह खान तिकड़ी और तथाकथित सेकुलर समीक्षकों की घेराबंदी नहीं है कि इस फिल्म की व्यापक चर्चा तक नहीं हो रही है? बानगी देखिये, बाहुबली की रिलीज से पांच दिन बाद दिल्ली में फिल्म बजरंगी भाईजान को लेकर एक प्रेस कांफ्रेंस थी। इस कांफ्रेंस में सलमान खान से बाहुबली की सफलता और उससे मिलने वाली संभावित टक्कर को लेकर एक सवाल पूछा गया। आप विश्वास करेंगे कि सलमान के मुंह से जवाब नहीं निकला। वह कुछ पलों के लिए सोच में पड़ गये और ऊल-जलूल सा कुछ बोल गये। अब जब दोनों फिल्में आमने-सामने हैं तो साफ हो गया है कि कौन कितने पानी में है।
दरअसल, बॉलीवुड में फिल्मों की रिलीज को लेकर एक तरह की दादागिरी का माहौल है। खास मौके (नया साल, क्रिसमस, दीपावली, ईद, 15 अगस्त, 26 जनवरी आदि) पर खान तिकड़ी  का कब्जा है। इनके बाद कुमार और देवगन बैठे हैं। बड़े बैनर की फिल्म हुई तो सैफ की चल पड़ती है। ऐसे ही एक विवाद की बानगी 2013 में दीपावली के मौके पर अजय देवगन की फिल्म 'सन ऑफ सरदार' और शाहरुख खान की फिल्म 'जब तक है जान' को लेकर  देखी जा चुकी है। इस संबंध में अजय देवगन अदालत तक का दरवाजा खटखटा चुके थे। ताजा उदाहरण शाहरुख खान हैं जो अगले साल ईद की 'बुकिंग' अभी से कर बैठे हैं। अगले साल ईद पर उनकी फिल्म 'रईस' प्रदर्शित होगी, ये तय माना जा रहा है। इस फिल्म की निर्माता एक्सेल एंटरटेन्मेंट है। यह कंपनी फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी की है। मामला साफ है, बड़े लीडर बड़ा खेल। ऐसे में आप सिर्फ कमाई की कामना कर सकते हैं, फिल्म की गुणवत्ता की नहीं। किसी खास मौके पर रिलीज हुई फिल्म को पहले से हुए एक करार के तहत 4 से 5 हजार प्रदर्शन तक मिल जाते हैं। छुट्टी का दिन होने की वजह से पहले दिन ही धमाकेदार शुरुआत होती है। कमाई का पैमाना 35 से 40 या फिर अब तो 45 से 50 करोड़ के बीच भी आने लगा है। ऊपर से मीडिया ऐसी किसी फिल्म की ये कहकर बढ़ाई करने से नहीं चूकता कि फलां फिल्म ने जैसे कोई कारनामा कर दिखाया है।
दूसरे और तीसरे दिन तक का खेल जब तक जनता की समझ में आता है तब तक फिल्म 100 से 150 करोड़ बटोर डालती है। 100 करोड़ या इससे कम में बनी कोई फिल्म अगर अपनी रिलीज के हफ्ते-दस दिन में 150 करोड़ बटोर ले तो मुनाफे की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसे में 'पब्लिक कनेक्शन' कहां हुआ? बाहुबली के साथ जो हो रहा है वह कारोबारी दिग्गजों के अनुमान से कहीं अधिक है। कोई माने या न माने, लेकिन सच है कि एक बिना 'आइटम नंबर' वाली, बिना फूहड़ कामेडी वाली, उत्तेजक कपड़ों वाली हीरोइन से महरूम, बिना लात-घूंसों वाली फिल्म ने बॉलीवुड की नाक में दम कर           दिया है। आमिर खान, बजरंगी भाईजान देखकर फफक-फफककर रो पड़े। उनके रोने वाले फोटो इंटरनेट पर भरे पड़े हैं। सलमान खान के पिता ने यह फिल्म देख कर कहा कि उन्होंने 25 साल में इतनी दमदार कहानी वाली फिल्म नहीं देखी। भाईजान भाईजान करके तमाम लोगों ने न जाने किस किस को सिर पर उठा लिया। मीडिया भी आंकड़ों की बरसात करने लगा और कहा कि ये सलमान की सबसे बड़ी 'ओपनिंग' वाली फिल्म है। लेकिन बाहुबली को लेकर इनमें से किसी में हरकत नहीं दिखाई दी। अब सबको डर है कि बाहुबली के अगले भाग से कैसे करिश्मा होगा।
यहां यह न समझा जाए कि बाहुबली की सफलता को लेकर बजरंगी भाईजान पर किसी तरह का कटाक्ष किया जा रहा है। सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान अपनी श्रेणी में एक संवेदनशील और बेहतरीन अभिनय से सजी फिल्म है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस फिल्म में सलमान ने अपने करियर का सबसे बढि़या अभिनय किया है। इस फिल्म की तमाम बातें बढि़या हैं। बल्कि यहां ये बात भी गौर करने वाली है कि कुछ तथाकथित सेकुलर साइबर लड़ाकों और फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म में अपनी नाक अड़ाने की कोशिश की है, ये कहकर कि सलमान खान और उनके पिता सलीम खान के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के साथ अच्छे रिश्ते के चलते, फिल्म में हिन्दुत्व और संघ को प्रमुखता से दिखाने की कोशिश की गयी है। लेकिन शायद आमजन अब पहले से कहीं ज्यादा सयाना हो चुका है। वह ऐसी बातों में नहीं आना चाहता। बाहुबली के संबंध में कहने वाली बात ये है कि एक फिल्म, जिसमें हमारे ग्रंथों, संस्कृति, लोक-कथाओं, कौशल, धर्म-शक्ति आदि की झलक दिखाई देती है, उसकी तहेदिल से तारीफ करने में आखिर  कंजूसी क्यों? आमिर खान और बच्चन साहब कहां हैं? आमिर को अगर फिल्म के 'कंटेंट' से कोई परहेज है तो वह उसकी तकनीक की तो तारीफ कर ही सकते थे। वे तो तकनीक के हिमायती रहे हैं। तकनीक के हिमायती तो शाहरुख भी हैं। यह फिल्म तो बुल्गारिया में भी प्रदर्शित हुई है, जहां वह इन दिनों शूटिंग कर रहे हैं। शेखर कपूर ने बाहुबली को अपने ट्वीट से बहुत मान दिया। उन्होंने फिल्म की तकनीक और कौशल दोनों की तारीफ की। कहीं इनमें से किसी को ये डर तो नहीं कि बेशक दक्षिण की वजह से ही सही, कहीं ऐसी फिल्मों का दौर शुरू हो गया तो इनकी फूहड़ फिल्मों की पूछ कम न हो जाए।      
बाहुबली ने दुनियाभर के फिल्म जगत में भारत के फिल्म कौशल की ऐसी धाक जमायी है कि बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशक अचम्भित हैं। वर्षों बाद भारतवासी एक अद्भुत-अनूठी फि ल्म देखने के लिए परिवारों के साथ पहुंच रहे हैं, यह  भारतीय फिल्म उद्योग के लिए नि:संदेह गर्व की बात है।

 

दिल को छूती कहानी
राजामौली ने एक ऐसा सपना देखा, जो संभवत: देश का हर बच्चा अपने बालपन में देखा करता है। पौराणिक कथा-कहानियां सुन कर बड़े हुए बच्चों में एक उत्सुकता होती है कि ये सब कैसे हुआ होगा? वह समय कैसा रहा होगा? ऐसे पराक्रमी वीर क्या सच में हुआ करते थे? राजामौली की प्रेरणा बनी अमर चित्र कथाएं, जिन्हें आजकल के बच्चे आर्चीज और रियेलिटी शोज के जमाने में भुला बैठे हैं, वे किशोर, जो मिल्स एंड बून्स पढ़ कर बड़े हो रहे हैं, अमर चित्र कथा उनके लिए शायद किसी दूसरी दुनिया की चीज है। राजामौली ने करीब 250 से अधिक अमर चित्र कथाओं के अधिकार खरीदे और बाहुबली का सपना देखना शुरू किया। क्योंकि उनकी फिल्म का नायक शिवा (प्रभास) ऐसी ही कहानियां सुन कर बड़ा हुआ है। उसने ये कहानियां अपनी मां से सुनी हैं। ऐसी कहानियां जो उत्सुकता जगाती हैं। एक ऐसी ही कहानी शिवा ने भी सुनी थी। उसके गांव में एक बड़ा विशाल झरना है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके पीछे अनजान लोगों की दुनिया है। वहां भूत-प्रेत रहते हैं।
फिल्म में इस झरने का फिल्मांकन सन्न कर देने वाला है। वह तमाम प्राकृतिक वर्णन हालांकि 'स्पेशल इफेक्ट्स' की देन है, लेकिन यह सब इतने विश्वसनीय ढंग से पेश किया गया है कि आप सच में किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते हैं। हालांकि फिल्म की शुरुआत एक भव्य स्तर पर फिल्माए गये एक बेहद रोचक युद्ध से की गयी है, लेकिन जल्द ही फिल्मकार आपको एक ऐसे संसार में ले जाता है, जहां मासूमियत अपने पंख पसार लेती है। बड़े होने पर शिवा का पराक्रम उस समय सामने आता है, जब वह एक विशालकाय शिवलिंग को उस झरने के नीचे स्थापित कर देता है, जिसकी कहानियां सुन कर वह बड़ा हुआ है। बस यहीं से शुरू होती है बाहुबली की एक विचित्र यात्रा।
एक दिन शिवा को इस झरने के पास एक मुखौटा मिलता है। ये मुखौटा एक स्त्री का है। मुस्कुराती हुई एक स्त्री। इस मुखौटे के पीछे छिपा कौतूहल शिवा को उस झरने को पार करने से रोक नहीं पाता। एक मधुर संगीत में रोमांच की गुंजाइश यहीं पैदा होती है और शिवा की यात्रा इसी गीत के साथ-साथ चलते हुए उस झरने के पार पहुंच जाती है। जल्द ही उसे इस मुखौटे का असली हकदार मिल जाता है, अवंतिका (तमन्ना)। इतनी सुंदर स्त्री उसने पहले कभी नहीं देखी। वह तो उसके मुखौटे से ही प्रेम कर बैठा था। तो समझ लीजिए कि जब वह उसे किसी मुसीबत में देखेगा तो क्या न कर बैठेगा। आप कहेंगे कि ये सब किसी आम हिन्दी फिल्म की कहानी ही तो है। दरअसल, राजामौली किसी अविश्वसनीय कहानी को बेहद असरदार ढंग से कहे जाने के लिए ही जाने जाते हैं। मामूली से मामूली दृश्य को भी वह इतना भव्य बना देते हैं कि दर्शक तथ्यों और तर्कों को भूल जाता है। उनकी पिछली फिल्में एग्गा (इस फिल्म को हिन्दी में मक्खी के नाम से जाना जाता है) और मगधीरा में यह सब परखा जा चुका है। यही वजह है कि जब शिवा, अवंतिका के मकसद को अपना लेता है तो लगता है कि धर्मेन्द्र ने अपनी किसी हीरोइन की लड़ाई को अपना बना लिया है। लेकिन ये कोई आम मसाला बॉलीवुडिया फिल्म नहीं है, जहां फार्मूलों की चाशनी में किरदार गढ़े और बयां किये जाते हैं। किसी को नहीं पता कि अवंतिका का मकसद असल में शिवा को उसकी पिछली जिंदगी के सिरे से मिलाने वाला है। देखते ही देखते कहानी में एक समूचा राज्य दिखाई देने लगता है।
महिष्मति का साम्राज्य, जिस पर अब भल्लाल देव (राणा दग्गूबाती) का राज है। भल्लाल देव एक क्रूर शक्तिशाली राजा है। रौद्र रूप धारण किये एक जंगली भैंसे को वह एक मुक्के से शांत करने की ताकत रखता है। लेकिन बेबसी देखिये उस सेनापति की, जिसे भल्लाल देव की रक्षा आज भी करनी पड़ रही है। ये सेनापति है कटप्पा (सत्यराज), जो ताकत, बल-बुद्धि में यूं तो भल्लाल देव के जोड़ का है, लेकिन उसके राजा होने की वजह से वह नतमस्तक रहता है। अवंतिका शिवा को बताती है कि भल्लाल देव की कैद में महारानी देवसेना हैं, जिन्हें उसे मुक्त कराना है। बिना किसी योजना के शिवा महारानी को राजमहल की कैद से मुक्त कराने पहुंच जाता है। अपने कौशल और पराक्रम से वह महारानी को मुक्त भी करा लेता है, लेकिन ऐसे में उसका सामना हो जाता है कटप्पा से। यहां उसे पता चलता है कि वह दरअसल महिष्मति राज्य का असली हकदार है। वह बाहुबली है और महारानी देवसेना का बेटा है। कहानी पूर्व चली जाती है, जहां उजागर होता है वह सच जो सबकी आंखें खोल देता है। फिर अचानक से फिल्म खत्म हो जाती है।
सच मानिये, अगर बाहुबली के अलावा कोई और फिल्म होती तो शायद दर्शक ऐसा अंत देख कर सिनेमाघर में आग लगा देते। लेकिन यह अंत फिल्म के दूसरे भाग की सूचना के साथ आता है। इसलिए खलता नहीं है। राजामौली पहले ही कह चुके थे कि इस फिल्म के उन्होंने दो भाग बनाए हैं। दूसरा भाग अगले साल प्रदर्शित होगा।

बाहुबली पर खामोशी, एफटीआईआई पर हंगामा
मुंबई फिल्म उद्योग के ज्यादातर दिग्गज जहां जहां बाहुबली पर मुंह सिले हुए हैं वहीं वे एफटीआईआई में अध्यक्ष पद पर फिल्म एवं टीवी अभिनेता गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के मामले में खूब मुखर दिखते हैं। ऋषि कपूर और उनके बेटे रणबीर कपूर ने क्या बयान दिए, ये सब जानते हैं। अब कोई इनसे पूछे कि इस संस्था के पद पर कोई भी बैठे, इन्हें क्या फर्क पड़ता है। इन्होंने क्या इस संस्थान से कोई डिग्री ली है? डिग्री तो गजेन्द्र चौहान ने भी नहीं ली, लेकिन जब उन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी गयी तो उन्होंने तमाम व्यस्तताओं के बावजूद इसे स्वीकार किया। कोई इन पिता-पुत्र से पूछे कि क्या अपनी महीने की करोड़ों की कमाई और अन्य मोह त्याग कर वे यह पदभार संभालेंगे? बेशक, उनका जवाब होगा, नहीं। तो फिर इतना हल्ला क्यों? गजेन्द्र का नाम लेकर कहा जा रहा है कि वह हिन्दुत्वनिष्ठ विचार के हैं, वगैरह वगैरह। दरअसल, ये सब उस तरह से है कि किसी इंसान के जन्म लेने से पहले ही ये घोषणा कर दी जाए कि वह तो नेत्रहीन पैदा होगा। हल्ला मचाने वालों से कोई पूछे कि ऐसी भविष्यवाणियों का आधार क्या है। प्रबुद्ध लोगों को यह सोचना चाहिये कि एक इंसान ने अभी अपना पदभार भी नहीं संभाला है और उसकी इतनी आलोचना। इन आलोचकों से ज्यादातर ने न तो इस संस्थान की कभी शक्ल देखी है और न ही वे इसकी हकीकत से परिचित हैं।  
कुछ लोग अजय देवगन और राजपाल जैसे भी हैं। पिछले दिनों टीवी पर एक इंटरव्यू के दौरान अजय देवगन ने एक बात कही। उनसे जब गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति के बारे में कुछ पूछा गया तो उन्होंने साफ कहा कि देखिये, मैं वहां से पढ़ा नहीं हूं। वहां की कार्य प्रणाली से बहुत ज्यादा परिचित भी नहीं हूं। लेकिन एक इंसान को अगर किसी काम के लिए चुना गया है तो कम से कम उसे वह काम करने तो दिया जाए। मेरा मतलब कि उसे एक मौका तो दिया जाए। इंटरव्यू लेने वाले की ओर से जब इस निर्णय पर सही या गलत सरीखी राय रखे जाने जैसा दवाब बढ़ा को उन्होंने कहा कि सरकार को एक बार फिर से इस विषय पर सोच लेना चाहिये। हो सकता है कि अजय देवगन की ही तरह बहुत से लोगों की यही राय हो। क्योंकि मौजूदा दौर में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो इस संस्थान से शिक्षा लेकर नाम कमा रहे हैं। यहां तो ज्यादातर लोग या तो किसी के बेटे या फिर चाचे, मामे या ताये हैं। सारा काम रिश्तेदारी में चल रहा है। तभी हमारी फिल्मों की यह हालत हो रही है। उधर, किसी भी मुद्दे पर कम बोलने वाले राजपाल यादव ने घाटमपुर, कानपुर में एक कार्यक्रम में कहा कि गजेन्द्र की नियुक्ति का विरोध पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलना चाहिये। हो सकता है कि गजेन्द्र का समर्थन करने वालों की संख्या उनके विरोध में खड़े होने वालों से ज्यादा हो। लेकिन फिलहाल उनका समर्थन करने वाले लोग दिख नहीं रहे हैं।
कुछ समय पहले सीबीएफसी में पहलाज निहलानी की नियुक्ति पर भी कुछ ऐसा ही हंगामा हुआ था। बाद में पता चला कि वहां किस-किस तरह के गोरखधंधे चल रहे थे। पैसे लेकर फिल्मों को मनमाने प्रमाणपत्र दिये जा रहे थे। कहीं एफटीआईआई में भी ऐसे ही गोरखधंधों को छिपाने की साजिश तो नहीं हो रही है?
इस मामले में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से तलब एक रपट में कहा गया है कि एफटीआईआई में भ्रष्टाचार का बोलबाला है और यहां चारों ओर राष्ट्रविरोधी वामपंथी विचारधारा फैली हुई है। संक्षेप में कहें तो इस रपट में कई महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर भी इशारा किया गया है। रपट के अनुसार संस्थान पर प्रबंधन मंडल के लोगों ने अपना कब्जा जमा रखा है और कई पुराने छात्र यहां राज कर रहे हैं। पुराने छात्रों के राज का यहां यह आलम है कि सन् 2008 में दाखिला लेने वाले छात्र यहां अभी तक कब्जा जमाए हैं और वह भ्रष्टाचार और राजनीति में शामिल हैं, जिसकी वजह से संस्थान का विकास नहीं हो पा रहा है। नए छात्रों को दाखिला नहीं मिल पा रहा है, जिसकी वजह से इस संस्थान की प्रसिद्धि में भी कमी आयी है और लोग निजी संस्थानों की ओर रुख कर रहे हैं। यहां पढ़ने वाले एक छात्र की पढ़ाई पर करीब दस लाख रुपये का खर्चा आता है, जिसे सरकार उठाती है। यहां कई वर्षों से जमे हुुए छात्रों ने अपने हास्टल की फीस तक जमा नहीं कराई है। छात्रों से ली गयी फीस और हास्टल फीस से संस्थान को करीब 25 फीसदी आय होती है, लेकिन 2010-11 में संस्थान को इस मद से केवल 11 फीसदी ही आय हुई। पंचवर्षीय योजना के तहत इस संस्थान का पूरा ढांचागत खर्च करीब 80 करोड़ रुपये है, जबकि हर साल गैर योजनाबद्ध खर्च 20 करोड़ रुपये रहता है। संस्थान के 55 साल के इतिहास में 39 बार हड़ताल हो चुकी है। कई प्रकार की वित्तीय अनियमितताएं सामने आयी हैं। बीते तीन सालों से यहां छात्रों के नए दाखिले तक नहीं हुए हैं। लेकिन इन सब बातों पर हमारी ज्यादातर फिल्मी हस्तियां मुंह सिले बैठी हैं जिसका फायदा महेश भट्ट जैसे सेकुलर उठाते हैं।  

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