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मेरे दादा, मेरे गुरु

by
Jul 18, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Jul 2015 12:03:43

मेरे दादाजी त्रिभुवनदास ही मेरे गुरु हैं। उनका रामायण के प्रति असीम प्रेम था। तलगारजा से महुआ मैं पैदल विद्या अर्जन के लिए जाया करता था। पांच मील के इस रास्ते में मुझे दादाजी द्वारा बताई गई रामायण की 5 चौपाइयां प्रतिदिन याद करनी पड़ती थीं। इस नियम के चलते मुझे धीरे-धीरे समूची रामायण कंठस्थ हो गई। और आज भी जब मैं व्यासपीठ पर बैठकर कथा सुनाता हूं तो यही लगता है कथा तो मेरे गुरु त्रिभुवनदास जी सुना रहे हैं और उनका पोता व मुरारी तो बस सुन रहा है।
गुरु यानी जो आपको मुक्त होने का मार्ग दिखा दे। आपकी पूरी तैयारी करा दे। गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरुद्वार को मुक्ति का द्वार बताया है। गुरुद्वार ही ऐसा द्वार है जहां समस्या सुनी जाती है, समाधान और परिणाम भी होता है। देव द्वार में याचना की जाती और कामना पूर्ति की जाती है। राज द्वार में अन्याय को सुनकर न्याय मिलता है। और यह तो साफ है कि सच्चे गुरु के बिना ज्ञान, योग और वैराग्य की प्राप्ति नहीं    हो सकती।
पहले मैं परिवार के पोषण के लिए रामकथा से आने वाले दान को स्वीकार कर लेता था, लेकिन जब यह धन बहुत अधिक आने लगा तो 1977 से प्रण ले लिया कि अब कोई दान स्वीकार नहीं करेंगे। कुछ समय केवल गुरुपूर्णिमा को लोग जो कुछ श्रद्धा से लाते थे, वही स्वीकार करता था। कहां हर रामकथा में लेता था, अब वर्ष में केवल एक दिन। तब लगा कि यह भी कुछ ज्यादा हो रहा है। फिर प्रण किया कि अब कुछ भी नहीं लेना है। इसी प्रण को मैं आज तक निभा रहा हूं। और  मजा यह कि धन की पकड़ छोड़ी तो जिंन्दगी में मस्ती और बढ़ गई। घर-बार का इंतजाम भी ठीक ही चल रहा है। यह मेरा अपना अनुभव है जो आपको बता रहा हूं।
बेटी जन्मे तो उत्सव मनाएं
गुरु और साधु अपने समाज के सरोकारों से न जुड़ें तो उनका पराभव तय है। मुझे बहुत शर्म आती है कि समाज में हम महिलाओं को लेकर बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, उन्हें देवी बताते हैं, लेकिन सलूक कैसा करते हैं। जन्मने भी नहीं देते कई जगह पर तो। मैं कहता हूं कि परिवार में जब बेटी का जन्म हो तो बड़ा उत्सव समझें। बेटे के जन्म के समय जो उत्सव करते हो, उससे तीन गुना उत्सव बेटी के जन्म के समय करो। मैं व्यासपीठ के माध्यम से आह्वान करता हूं कि कन्याओं का सम्मान होना चाहिए। कन्या शक्ति, विद्या, श्रद्धा, क्षमा का रूप है उसका स्वागत करना चाहिए। कन्या तीन कुल को तारती है। जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। कन्या जन्म से राष्ट्र की संपत्ति, विभूति व ऐश्वर्य बढ़ता है। स्त्री में सात विभूति होती हैं। घर में बेटी आई तो समझो कि सात विभूतियां प्रकट हुई हैं।
मीरा का ऋणी है यह देश
एक ओर मीरा की मौजूदगी, कितनी ऊंचाई दी उसने भक्ति को। उसने रैदास को गुरु बनाया। राजपरिवार की महिला और एक जूते बनाने वाला उसका गुरु। कई संतों से मिली थी, पर गुरु न बना सकी। उसे कुछ ऐसा दिखा रैदास में कि चरणों में सिर झुकाए बिना रह न सकी- गुरु मिला रैदास जैसा…! जाति व्यवस्था हमारे धर्म की आज सबसे बड़ी कमजोरी है। इस पर सबसे करारी चोट तो मीरा ने की थी। शालीनता की व्याख्या बुद्धि से नहीं, हृदय की आंखों से होती है। मीरा का सीधा संपर्क बुद्धि से नहीं हो पाया है। बुद्धि की एक सीमा होती है। मंजिल की हमें परवाह नहीं, हमें तो मोहब्बत चाहिए। भक्ति कभी मुक्ति नहीं मांगती है। मोक्ष प्राप्त करे वह मीरा नहीं है। मीरा तो हमेशा रहनी चाहिए। मीरा को हर पहलू से, हर कोने से देखना होगा। दिल की आंखों से दर्शन करना होगा।
गुरु/साधु की संगति। मीरा के जीवन में सात अध्याय हैं और उनमें साधु संगति एक अध्याय है। गोस्वामीजी साधु संगति को पहली भक्ति कहते हैं। जिसने साध लिया वो साधु है। साधु में गणवेश की नहीं गुणवेश की जरूरत होती है। गुरु सार्वभौम है और साधु को किसी एक खांचे में बन्द नहीं किया जाना चाहिए। साधु प्रभावित नहीं करता है बल्कि वह प्रकाशित करता है और प्रकाशित करने के बाद समाज को विकसित किया जाए। साधु किसी का दिल नही तोडता है। व्रत टूटे तो कोई बात नहीं लेकिन ध्यान रखे कि किसी का दिल न टूटे। साधु पूरी जिन्दगी काटने का नहीं, साधने का काम करता है।
मीरा भक्ति का एक अवतार है। भक्ति गायेगी और नर्तन करेगी, इसलिए मीरा ने भक्ति की। भक्ति के जल के बिना ज्ञान अधूरा है। भक्ति का पहला अवतार वेद की ऋचा है। भक्ति सगुण साकार मांगती है। रामचरितमानस की चौपाइयां भक्ति का अवतार हैं और जो भी धर्मग्रन्थ गाया जाए वह भक्ति का प्रथम अवतार है।
गंगा भक्ति का दूसरा अवतार है और विश्व में हमारा परिचय और गौरव भी गंगा ही है। भक्ति का तीसरा अवतार मां भगवती जानकी है। भक्ति के मूल रूप को संशोधित कर समाज के सामने रखने की आवश्यकता है। मां शबरी भक्ति का चौथा अवतार है और ब्रज की गोपियां भक्ति का पांचवा अवतार हैं। पहले धर्म को पकडो और फिर धीरे-धीरे धर्म की संकीर्णता को छोड़ो। किसी भी चीज को पकड़ने के बाद ही, किसी को छोड़ा जा सकता है। पहले धर्म को जगाओ और फिर धीरे-धीरे धर्म की कट्टरता छोड़ो। धर्म संशोधन मांग रहा है और हमें पुरानी सोच को संशोधित करना ही पड़ेगा। हम संकीर्ण होते जा रहे हैं और यह मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
श्रवण भी भक्ति
सुनना बड़ी कला है और यह भी एक प्रकार की भक्ति है। खोज होनी चाहिए कि कथा में आते हैं, तब क्या होते हैं और जब कथा से निकलते हैं, तब क्या हो जाते हैं। युवा वर्ग से मेरा यही निवेदन है कि आप मुझे नौ दिन दो, मैं आपको नवजीवन दूंगा।                                        
मोरारी बापू

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