मजहब और मदरसा : देश के अंदर जहरीली सोच पनपाने का बाबरी उपकरण
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मजहब और मदरसा : देश के अंदर जहरीली सोच पनपाने का बाबरी उपकरण

by
Jul 18, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Jul 2015 13:05:25

 

 महाराष्ट्र सरकार ने उन मदरसों को, जो आधुनिक विषय नहीं पढ़ा रहे हैं, स्कूल न मानने और उनका अनुदान बंद करने का निर्णय लिया। (हालांकि बाद में उन विषयों को पढ़ाने के लिए अनुदान जारी रखने की बात कही गई है) इस पर कई मुस्लिम और कांग्रेसी राजनेता, पत्रकार, मीडिया चैनल चिल्लपौं मचा रहे हैं। ये अनुकूल समय है कि इसी बहाने शिक्षा के उद्देश्य, उसको प्राप्त करने की दिशा में मदरसा प्रणाली की सफलता और उन राजनेताओं, पत्रकारों की भी छान-फटक कर ली जाये। आखिर किसी योजना के शुरू करने, वषोंर् चलाने के बाद लक्ष्य प्राप्ति की कसौटी पर उसका खरा-खोटा जांचा जायेगा कि नहीं? समाज का धन नष्ट करने के लिये तो नहीं होता।  
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को अथार्ेपार्जन की धारा में डालना होता है। इसी से जुड़ा या अन्तर्निहित लक्ष्य ये भी होता है कि धन की प्राप्ति का मार्ग संवैधानिक ही होना चाहिये यानी व्यक्ति के संस्कार का विषय भी धन कमाने से जुड़ा होता है। जाहिर है ऐसे लोग भी होते हैं जो जेब काटने, ठगी करने, चोरी करने, डाका डालने, अपहरण करके फिरौती वसूलने को भी धन प्राप्ति का माध्यम मानते हैं और ऐसा करते हैं। मध्यकाल के अनेक योद्धा समूह इसी तरह से जीवन जीते रहे हैं। ब्रिटिश शासन के भारत में भी हबोड़े, सांसी, नट इत्यादि अनेक जातियों के समूह इसी प्रकार से जीवन यापन करते रहे हैं। प्रशासन, पुलिस के दबाव और सभ्यता के विकास के साथ उनका इस प्रकार का जीवन भी बदला और वे सब सभ्य समाज के साथ समरस होने लगे हैं। यहां एक प्रश्न सिर उठा रहा है कि सभ्य होने की सबकी अपनी-अपनी परिभाषा है। ऐसा कलुषित जीवन जीने वाले भी अपने को सर्वाधिक सभ्य मान सकते हैं। इसलिये इसकी बिल्कुल सतही, बेसिक परिभाषा से काम चलाते हैं।  प्रत्येक मनुष्य के समान अधिकार, स्त्रियों तथा पुरुषों के बराबर के अधिकार, लड़की का विवाह उसके रजस्वला हो जाने के बाद, दास-प्रथा का विरोध, जीवन का अधिकार मूल अधिकार,  इसका अर्थ ये है कि राज्य ही अत्यंत-विशेष परिस्थिति में किसी व्यक्ति के प्राण ले सकता है और ऐसा करने की भी अभियोग लगाने, सुनवाई करने की ठोस, सिक्काबंद न्याय व्यवस्था आवश्यक है। यानी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को संवैधानिक मागोंर् से ही धनोपार्जन करने का माध्यम सुझाना है। यहां से मैं मदरसा की शिक्षण प्रणाली पर बात करना चाहता हूं। भारत में मदरसों का प्रारम्भ बाबर ने किया था। हम सब जानते हैं, बाबर मुगल आक्रमणकारी था। भारत में उस समय पचासियों आक्रमणकारियों के नृशंस कायोंर् के बाद भी गांव-गांव में अपनी गुरुकुल प्रणाली चल रही थी। हमें उस समय किसी नए शिक्षण की आवश्यकता नहीं थी। आइये, विचार करें बाबर के भारत की भूमि में इस प्रणाली के बीज रोपने का क्या उद्देश्य रहा होगा? इसे जानने के लिए उपयुक्त है कि, मदरसों का सामान्य पाठ्यक्रम क्या है, वहां क्या पढ़ाया जाता है, इस पर विचार किया जाये।
मदरसा इस्लामी शिक्षा का माध्यम है। अब यहां कुरआन अजबर-उसे कंठस्थ करना, किरअत-उसे लय से पढ़ना, तफसीर-उसका विवेचन करना , हदीस-मोहम्मद के जीवन की घटनाओं का लिपिबद्ध स्वरूप, फिका-इस्लामी कानून , सर्फ उन्नव-अरबी व्याकरण, दीनियात -इस्लाम के बारे में अध्ययन, मंतिक और फलसफा-तर्क और दर्शन  पढ़ाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस्लाम के विषय में अन्य सभी प्रकार का शिक्षण दिया जाता है। कुछ मदरसों में कंप्यूटर, अंग्रेजी, तारीख-मूलत: इस्लाम का इतिहास-और कुछ भारत का भी इतिहास पढ़ाया जाता है।
मैं आग्रह करूंगा कि मीडिया, प्रेस सभाओं में हाय-तौबा करने वाले कोई भी सज्जन-दुर्जन-कुजन देवबंद, सहारनपुर, लखनऊ, बरेली, बनारस, सूरत, पटना, दरभंगा, कोलकाता, ठाणे कहीं के भी मदरसों में जाकर केवल एक किनारे चुपचाप खड़े होकर वहां की चहल-पहल देखें। वहां पूरा वातावरण मध्य युगीन होता है। ढीले-ढाले कपड़े पहने, प्रचलित व्यवहार से बिल्कुल भिन्न टोपियां लगाये इन छात्रों की आंखों में झांकें। आप पायेंगे कि उनकी आंखों में विकास करने, आगे बढ़ने, समाज के हित में कुछ करने की ललक, सपने हैं ही नहीं। आप वहां इतिहास की अजीब सी व्याख्या, उसके कुछ हिस्सों का मनमाना पाठ, अरबी सीखने के नाम पर कुछ अपरिचित आवाजें रटते लोगों को पाते हैं। ऐसे लोग जो मानते हैं, महिला पुरुष की पसली से बनायी गयी है, उसमें बुद्धि नहीं होती और वह नाकिस उल अक्ल है। उसे परदे में रहना चाहिये। उसका काम मुस्लिम बच्चे पैदा करना, घर की अंदरूनी देखभाल है। जो आज भी समझते हैं कि धरती गोल नहीं चपटी है। सूर

ऐसे छात्र, जो समझते हैं कि केवल वे जिस सीमित जीवन-शैली  के बारे में जानते हैं, वही सही है और शेष दुनिया शैतानी है। प्रकृति के प्रत्येक कण के प्रति आभारी-आस्थावान प्रकृति पूजक, मूर्ति-पूजक, ईसाई, यहूदी, पारसी, बौद्ध, शिन्तो, नास्तिक अर्थात उनके अतिरिक्त सारे ही लोग वाजिबुल-कत्ल हैं। इन सबको मारे अथवा मुसलमान बनाये बिना संसार में चैन नहीं आ सकता। उन के जीवन का उद्देश्य इसी दावानल का ईंधन बनना है। संसार के बारे में ऐसी अटपटी, अजीब दृष्टि बनाना केवल इसीलिये संभव होता है चूंकि ये लोग असीम आकाश को चालाक लोगों की बनायी गयी बहुत छोटी सी खिड़की से देखते हैं। ये काफी कुछ कुएं के मेंढक द्वारा समुद्र से आये मेंढक के बताने पर समुद्र की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान लगाने की तरह है। कुएं में लगायी गयी कितनी भी छलांगें, ढेरों उछल-कूद समुद्र के विस्तार को कैसे बता सकती है? कुएं में रहने वाला समुद्र की कल्पना ही कैसे कर सकता है? उसे समझ ही कैसे सकता है?
मदरसा मूलत: इस्लामी चिंतन के संसार पर दृष्टिपात का उपकरण है। स्वाभाविक है, ऐसी आंखें फोड़ने वाली विचित्र शिक्षा के बाद निकले छात्र जीवनयापन की दौड़ से स्वयं को बाहर पाते हैं। उन्हें मदरसे से बाहर की दुनिया पराई लगती है। इन तथ्यों की उपस्थिति में नि:संकोच ये निष्पत्ति हाथ आती है कि मदरसा दुनिया को देखने का ऐसा टेलिस्कोप है जिसके दोनों तरफ के शीशे पहले दिन से ही कोलतार से पुते हुए थे। इसका प्रयोग देखने वाले को कुछ उपलब्ध नहीं कराता बल्कि उसे समाज से काट देता है। वह कुछ न दिखाई देने के लिये अपनी बौड़म बुद्धि, गलत टेलिस्कोप को जिम्मेदार नहीं ठहराता बल्कि इसके लिए बेतुके तर्क ढूंढता है और उसे मंतिक-फिका का नाम देता है। मदरसे की जड़ में इस्लामी जीवन पद्धति है और ये पद्धति सारे समाज से स्वयं को काट कर रखती है। आप सारे विश्व में मुस्लिम बस्तियां अन्य समाजों से अलग पाते हैं। स्वयं सोचिये, आपके मुस्लिम दोस्त कितने हैं? वे आपको कितना अपने घर बुलाते हैं? वे अपने समाज के अतिरिक्त अन्य समाज के लोगों में कितना समरस होते हैं?
साहिबो, यही बाबर का उद्देश्य था। भारत में भारत के पूरी तरह खिलाफ, अटपटी तरह से सोचने-जीने वाला, आंतरिक विदेशी मानस पैदा करना। इसी तरह से भारत में इस मिट्टी के लिये पराई सोच का पौधा जड़ें जमा सकता था। यही वह उपकरण है जिसने कश्मीर में आतंकवाद पनपाया है। इसी उपकरण के कारण अभी हमसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश अलग हुए थे। इससे तो हम निबट ही लेंगे मगर इस संस्थान से उपजी खर-पतवार का क्या किया जाये? ये बाजार में नहीं बिकती और फिर मंडी पर ही पक्षपात का आरोप लगाने लगती है। सच्चर महाशय जिस निष्कर्ष पर पहुंचे थे वह इसी संस्थान की शिक्षा प्रणाली का परिणाम है। इस प्रणाली के पक्ष में चिल्लपौं मचाने वाले किसी भी व्यक्ति का बेटा-बेटी मदरसे में आखिर क्यों नहीं पढ़ती? ये लोग मदरसे में पढ़ी लड़की को अपनी बहू क्यों नहीं बनाते? मदरसे के छात्र को    दामाद क्यों नहीं बनाते? सच्चाई उन्हें भी पता है, मगर उनको लगता है कि मुल्ला पार्टी इस हाय-हाय मचने से उनके पक्ष में वोट डलवा देगी। आखिर बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव सन्निकट हैं और मुल्ला टोलियां अपने पक्ष में घुमानी हैं या नहीं?

स्वामी विनय चैतन्य

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