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भारत का शायद ही कोई बुद्धिजीवी होगा जिसने धर्मपाल जी का नाम नहीं सुना हो। उनके ग्रंथ उस भारत के दर्शन करवाते हैं जिसके लिए देवताओं ने भी भगवान से यह प्रार्थना की है कि ए विश्व के रचयिता यदि तू हमें मानव की योनि में धरती पर जन्म दे तो वह धरती केवल भारत की हो। धर्मपाल जी ने उस भारतभूमि के असंख्य गुणों का वर्णन करते हुए यहां की गाय का भी वर्णन किया है। लेखक ने अपनी ग्रंथमाला में भारत पर अंग्रेजों के साम्राज्य में गौ सम्बंधी एक चौंका देने वाली घटना का उल्लेख किया है। 1857 का स्वतंत्रता संग्राम फिर न हो इसलिए 1863 में तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ने एक पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार से पूछा कि जिस गाय की चर्बी वाली घटना को लेकर भारत में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हुआ उसे देखते हुए भविष्य में गोवध भारत में जारी रहना चाहिए अथवा उस पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए? लंदन से 8 दिसम्बर को नाराजगी और आक्रोश व्यक्त करते हुए लिखा कि भारत में गोवध का आदेश भर दिया गया था। भारत में गोवध जारी रखना हमारी बुनियादी नीति पर आधारित है। इसलिए पहले की तरह ही भारत में गोवध का आदेश चार सौ साल पहले वेटिकन में पोप द्वारा जारी रखना हमारी बुनियादी नीति पर आधारित है। इसलिए पहले की तरह ही भारत में गोवध जारी रहना चाहिए। इस कानून को निरस्त कर पीछे हटने की तनिक भी भूल न हो। यह पत्र मिलते ही ब्रिटिश सरकार पहले की तरह अडिग और अटल हो गई। इसका मर्म यह था कि गोवध ही एक ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर हम हिन्दू मुसलमानों को लड़ाते रहेंगे। आज शताब्दियां बीत जाने के बाद भी यह हथियार कारगर है। वह कभी भोटा नहीं हो सकता है। इसलिए भारत में कोई भी सरकार आए वह अपने अस्तित्व के लिए गोवध पर प्रतिबंध नहीं लगाती है।
ब्रिटिश सरकार अपने पोप के आदेश को सर आंखों पर रखकर भारत में गौहत्या को जारी रखना अपना परम दायित्व मानती थी लेकिन हम भारतीय गोमाता को पूज्यनीय मानने के उपरांत भी उसकी हत्या करने और करवाने में हिचकिचाते नहीं हैं यह हमारा राष्ट्रीय चरित्र विश्व के सम्मुख है। इस दोहरे मापदंड पर आज भी हम विचार करने को तैयार नहीं हैं।
चूंकि भारत सरकार आज भी गेहत्या को अपने लिए वरदान मानती है यह स्वतंत्र भारत की शोकांतिका है। स्वतंत्र भारत में गोवध पर लगने वाला प्रतिबंध असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। गोवध पर केवल सरकार ही नहीं बल्कि हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी भी गाय के खून से अपनी सत्ता की क्यारियों को सींचने में कोई शर्म महसूस नहीं करते हैं। भारत की राजनीति में कोई सबसे पुराना और प्रभावी अवसरवादी मुद्दा है तो वह केवल गोवध है। यह मुद्दा अपने में समाजवाद और साम्यवाद को ही नहीं बल्कि सेकुलरवाद के पौधे को भी हमेशा हरा-भरा रखने वाला है। दो आंख वाला ही नहीं कोई बिना आंख वाला भी इसको परिभाषित कर देने में कामयाब रहता है। पांच अंधों ने हाथी देखा यह तो अब पुरानी बात हो गई है। पिछले दिनों पांच सेकुलर जो तन की नहीं बल्कि मन की आंखों से अंधे थे गाय को स्पर्श करते ही बोले अरे इसमें से तो साम्प्रदायिकता की गंध आ रही है। यह तो दंगा कराने वाला असामाजिक तत्व जान पड़ता है। जितनी शीघ्र हो सके उसे बूचड़खाने में भेज दो। दूसरे ने कहा इसके दो नुकीले हथियारों जैसे सींग और चार लम्बी-लम्बी लाठियों जैसी टांगे हैं। यह तो कोई डरावना प्राणी लगता है।
गांधीवादी भारत में हथियारों से सज्जित इस भयानक हमलावर को कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? तीसरा सेकुलर अंधा बोला अरे इसके आंचल में तो दूध भी नहीं लगता इसलिए यह महंगाई बढ़ाने वाला समाजद्रोही प्राणी लगता है। खाता अधिक है और देता कम है इसलिए इसका यहां क्या काम है? जो महंगाई बढ़ाए उस साम्प्रदायिक तत्व की क्या आवश्यकता? अंतिम अंधा सेकुलर बोला इसका दूध तो पानी जैसा पतला है, वह बाजार में अच्छे भाव से भी नहीं बिकता और इस प्राणी को जितना खिलाते हैं उसका आर्थिक लाभ भी नहीं मिलता? अच्छा तो यह है कि जितने स्थान में उसको बांधते हैं उसका तो बाजार भाव में अच्छा किराया मिल सकता है। इसलिए सेकुलर पंचायत ने घर से इसे ्ननिष्कासित करने का फतवा दे दिया। इस प्रकार पांच अंधे सेकुलर इस परिणाम पर पहुंचे कि इसे तत्काल घर से ही नहीं बल्कि अपने देश से भी बाहर निकाल देना चाहिए।
आजाद भारत में जबकि आज एक राष्ट्रवादी सरकार सत्ता में है ऐसे समय में गोहत्या निषेध का कानून पास होने की पर्याप्त संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। डाक्टर भरत झुनझुनवाला जैसे अर्थशास्त्री का कहना है कि बढ़ते शहरीकरण के कारण सभी उद्योग गांव से शहर की ओर स्थानान्तरित होते जा रहे हैं इसलिए देहातों में गाय को चराने वाले और उसकी रखवाली करने वाले नहीं मिलते हैं। बकरी, भेड़ और भेंस को चराने वाले मिल जाते हैं केवल अकाल है तो बेचारी गाय को चराने वालों का। भेंस खूंटे पर बंधकर जो खाती है उससे दूध की अच्छी मात्रा मिल जाती है। अन्य दुधारु पशुओं के लिए सब कुछ मिल जाता है लेकिन बेचारी गाय के नसीब में यह सुख नहीं है। ऐसा अन्याय गाय की पूजी करने वाले देश में गाय के साथ क्यों होता है यह एक खोज का विषय है? पैसा मिले तो वह गांव छोड़कर शहर में क्यों जाएगा? जब खेती में फार्म हाउस सफल है तो फिर देहात और गांव में ऐसी व्यवस्था क्यों उपलब्ध नहीं है यह एक खोज का विषय है? काम करने वाले को उचित दाम मिलेंगे तो शहर में आया आदमी देहात लौट भी सकता है? आज देहात और शहर में क्या अंतर रह गया है? सरकार शहर से भी बढकर देहात में अधिक खर्च करने में पीछे नहीं हटती। यह तो एक लकवाग्रस्त मानसिकता का दोष है जिसे केवल प्राप्त होने वाली मजदूरी का अंतर ही समाप्त कर सकता है। तेल उत्पादक अरब देशों ने क्या ऊंट का बहिष्कार कर दिया है? वह तो भारत के बूचड़खानों में कटने वाली गायों की तरह अपने ऊंट नहीं काट देता है? यदि अरब स्थान में 'सेव केमल' यानी ऊंट बचाओ का आन्दोलन चल सकता है तो भारत में 'सेव काऊ' का आन्दोलन क्यों नहीं चल सकता?
हज यात्रा के पश्चात कुरबानी करना अनिवार्य होता है लेकिन मक्का के उस मैदान में जाकर हम देखें तो पता लगेगा कि ऊंट की कुरबानी सबसे कम होती है। वास्तविकता तो यह है कि गाय के पीछे गाय बचाने की मिशनरी भावना जब तक जन्म नहीं लेती गाय को नहीं बचाया जा सकता है। भारत में रासायनिक खाद के लिए सरकारी छूट दी जाती है। रासायनिक खाद की तुलना में गोबर की खाद अधिक उपयोगी होती है। यदि सरकार गोबर से बने खाद को बेचते समय कृषकों को अनुदान देगी तो भारतीय किसान उसे हाथों-हाथ खरीदेगा। रासायनिक खाद भारतीय भूमि के लिए उपयोगी नहीं है।
इस सम्बंध में अनेक उर्वरक विशेषज्ञ अपना मत स्पष्ट कर चुके हैं। इसकी गर्मी के कारण जमीन फट जाती है। लेकिन भारतीय पशु के गोबर से बनी खाद अधिक प्रभावी होती है। इसलिए इसका नाम गौ+वर से गोबर बना है। व का उच्चारण अनेक शब्दों में व के रूप में होता है। इस प्रकार यह गोवर से गोबर हो जाता है। यदि इस खाद की 'मार्केटिंग' प्रभावी रूप से की जाए तो भारत खाद्य उत्पादन देशों में अव्वल नम्बर पर आ सकता है। इस समय पाश्चात्य उर्वरक के व्यापारी भारत का डंका सारी दुनिया में बजा सकते हैं। पैसे की दौड वालों के लिए उस समय गोमाता वरदान बन जाएगी। बैल जिन्हें आज समस्या दिखलाई पड़ते हैं वे भी कल उनके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी बन जाएंगे। जहां तक चमड़े के व्यवसाय का प्रश्न है वहां बैल उनके लिए निकम्मा और रास्ते का रोडा न रहकर वरदान बन जाएगा। बिजली और डीजल पर दी जाने वाली सरकारी छूट में भारत सरकार को राहत मिलेगी। गाय और बैल के खुर में पोटास की मात्रा सबसे अधिक होती है इसलिए इसकी खाद अन्य की तुलना में अधिक प्रभावी होती है। सारांश यह है कि गोहत्या पर प्रतिबंध घाटे का सौदा कदापि नहीं होगा। गो की सेवा भारत को अधिक खुशहाल बनाएगी जिसमें पांच अंधों को अपने हाथ से किसी वस्तु को टटोलने का अवसर नहीं जाएगा। उस समय लोगों के हाथों में मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास गोदान होगा।
मुजफ्फर हुसैन
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