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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 12
1 दिसम्बर 1958
15 अगस्त 1958 को देशवासियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की, 'देश को एकता को भंग करने के लिए कुछ लोग कोशिश कर रहे हैं। सरकार उनको कुचल देगी, उनके खतरे से देश को बचाने के लिए वह कटिबद्ध है।' राजनीतिज्ञों की बातें असाधारण होती है। सर्वसाधारण की समझ के परे होती हैं। भारत में जिन तत्वों को सरकार कुचलने का प्रयत्न करती है वे ही बढ़ते जाते हैं। ऐसी ही गत वर्षों में राजनीतिक गतिविधियों की परंपरा रही है। अत: पंचशील में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के मंुह से कुचलने की बात सुनने से लगता है कि वे तत्व अपरिवर्तनशील हैं। उनमें सुधार संभव नहीं है। स्वाभाविकत: यह जानने की उत्सुकता होती है कि वह एकता के विनाशक तत्व कौन से हैं? सत्ताधीशों का कार्य है कि उनका पता लगाकर जनता को सावधान करें, उनका सुधार करें, उन्हें राष्ट्रोपयोगी बनाएं। परंतु राष्ट्रीय एकता का तत्व सुरक्षित रहना चाहिए।
राष्ट्रीय एकता
राष्ट्रीय एकता का भाव सर्वोपरि है। यह भावात्मक एकता नागरिकों के अधिकार व कर्त्तव्यों से कहीं अधिक बड़ी तथा महत्वपूर्ण है। यह भावात्मक एकता किसे कहते हैं? भारतीय राष्ट्र का जीवन प्राण कौन सा है? इसकी जानकारी प्रत्येक नागरिक को होनी आवश्यक है।
हमारी विदेश-नीति और उसके दुष्परिणाम
-अटल बिहारी वाजपेयी-
आज हमारे राष्ट्र का हित और विश्व की शांति यह दोनों एक हो गये हैं। अगर संसार में शांति रहती है तो उसमें हमारे राष्ट्र का हित होगा और अगर भारत के हितों का संरक्षण और संवर्द्धन होता है तो संसार में शांति की शक्तियों को बल मिलेगा। इसलिए यदि कोई यह कहता है कि हमें इस नीति को छोड़कर रूसी गुट के साथ या अमरीका के साथ मिलने पर विचार करना चाहिए, तो मैं समझता हूं कि या तो वह नासमझी के कारण ऐसा कहता है या कुछ दूसरे देशों के संकेतों पर चलने की उसकी मनोवृत्ति बन गयी है। राष्ट्रीय हित का तकाजा यही है कि हम दृढ़ता के साथ इस नीति पर चलें।
हमें सभी की सहायता चाहिए
हम राष्ट्र निर्माण के प्रयत्नों में लगे हैं। हम एक यज्ञ कर रहे हैं। उस यज्ञ में हमें सभी राष्ट्रों की सहायता चाहिए। सभी का समर्थन चाहिए। किन्तु इस आवश्यकता का एक पहलू और भी है। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करते-करते हमारे अंत:करण में लोकतंत्र के लिए, राष्ट्रीयता के लिए, प्रबल भावनाएं उत्पन्न हुई हैं। और बलिदानों के बाद हमने उसे प्राप्त किया है, इसलिए दूसरों की आजादी की भी हम कीमत समझते हैं। इसलिए दुनिया के किसी भी देश में जब विदेशी फौजें उतरती हैं तो हमारे हृदय को आघात लगता है और हम चुप नहीं रह सकते।
सवाल यह है कि हम क्या आज की परिस्थिति में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में अधिक बोलकर अपने राष्ट्र के हितों का संबर्द्धन कर सकते हैं? यह तो ठीक है कि हम अकेले नहीं रह सकते और दुनिया हमें अलग रहने भी नहीं देगी। हम अलग भले ही रहना चाहें, मगर घटनाएं हमें अपनी पकड़ में लेंगी। प्रश्न यह है कि क्या सचमुच में हम दूसरे देशों के झगड़ों से अलग रहने की नीति का कुछ और भी बढ़ाकर विचार कर सकते हैं। बोलने के लिए वाणी चाहिए, मगर चुप रहने के लिए वाणी और विवेक दोनों चाहिए।
अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में हम कुछ अधिक बोलने के आदी हो गये हैं। हमें चुप रहने का अभ्यास करना चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री जैसे व्यक्ति के लिए, जो सदैव विश्व राजनीति की दृष्टि से सोचते हैं, यह काम कठिन जरूर है, लेकिन राष्ट्र के हितों का तकाजा यही है। और इसलिए मुझे बड़ी खुशी हुई जब फ्रांस की आंतरिक घटनाओं के बारे में प्रधानमंत्री ने यह कहा कि यह फ्रांस का घरेलू मामला है, मैं इस बारे में ज्यादा नहीं बोलूंगा। वरना हमारे देश में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो इस संबंध में भी उनका मुंह खुलवाने पर तुले हुए थे। इसी प्रकार इंडोनेशिया के झगड़े के बारे में, जो अंदर का झगड़ा है, हमें अपनी राय प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं।
शिखर सम्मेलन
पिछले दिनों समाचारपत्रों में यह प्रकाशित हुआ कि हमारे प्रधानमंत्री शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि प्रत्येक भारतीय का मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया। विश्व के मंच पर भारत का एक स्थान है। उसके अनुसार शिखर सम्मेलन के लिए बड़ों में हमारी गणना होनी चाहिए। बड़ा कोई हथियार से नहीं होता, लेकिन जिस परिस्थिति में शिखर सम्मेलन का प्रस्ताव रखा गया और उसको स्वीकार करने के संबंध में नई दिल्ली से जो खबरें छपीं, उनसे इस प्रकार का भ्रम पैदा हुआ कि शायद हम शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए कुछ
लालायित से हैं।
स्वतंत्र विदेश-नीति
दीनदयाल जी कहा करते थे कि सब क्षेत्रों में भारत को स्वतंत्रता से चलना चाहिए। आर्थिक नियोजन के बारे में उन्होंने जहां स्वदेशी नियोजन का समर्थन किया, वहीं स्वतंत्र विदेश-नीति का भी उन्होंने आग्रह किया। पाकिस्तान के प्रति उनकी भूमिका जहां भारतनिष्ठ थी, तो अमरीका एवं रूस दोनों महाशक्तियों के बारे में भी वैसी ही थी। एक धारणा फैलाने का प्रयास चल रहा था कि जनसंघ अमरीका के लिए अधिक अनुकूल है। लोकतंत्रीय राष्ट्र होने के कारण अमरीका के बारे में 'नरम' नीति अपनाने के पक्षधर लोग जनसंघ में कुछ तो थे ही। इस बारे में अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए दीनदयाल जी कहा करते थे- 'अमरीका को भारत में लोकतंत्र की रक्षा करने की अपेक्षा विश्व में अपना प्रभुत्व बढ़ाने में अधिक रुचि है। अत: वह सदैव यही प्रयास करेगा कि भारत का एक शक्ति के रूप में विकास कभी न हो।'
(पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार-दर्शन,
खण्ड 3 राजनीतिक चिन्तन)
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