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25-26 जून, 2015 को तीन महाद्वीपों के पांच देशों में जिहादी हमले हुए। यूरोप में फ्रांस, अफ्रीका में ट्यूनीशिया और सोमालिया और पश्चिम एशिया में कुवैत तथा कुदोंर् का पुराना शहर कोबाने। पांचों हमलों की प्रकृति, आतंक के लिए चुने गए निशाने और हमलों के मकसद अलग-अलग थे। रणनीतिक परिस्थितियां भी पांचों की बिल्कुल अलग थीं। लेकिन इन सभी में एक सोच की समानता थी। वह सार्वभौमिक, सर्वकालिक सोच है-'काफिरों' के दिलों में दहशत पैदा करना। इन पांचों हमलों में स्थूल असमानताएं और सूक्ष्म एकरूपता है। इसी बारीक रेखा के ईद-गिर्द ही इस आतंक का हल मौजूद है। पहले इन हमलों को इनकी पृष्ठभूमि के साथ एक-एक कर के देखते हैं।
25 जून को सीरिया के कोबाने शहर पर इस्लामिक स्टेट ने हमला किया। पहले कार बम से शक्तिशाली आत्मघाती विस्फोट किये गए। उसके बाद हमलावरों ने ऊंची इमारतों पर स्नाइपर राइफल्स लेकर मोर्चेबंदी कर ली। इमारत में रहने वालों को बंधक बनाकर उनका उपयोग मानव ढाल के रूप में किया। वे बाजारों, सड़कों, घरों में जो कोई भी चलता-हिलता नजर आया, उस पर गोलियां बरसाने लगे।
26 जून को दिन ढलते तक 227 नागरिक मारे जा चुके थे, जिनमें से ज्यादातर बच्चे और महिलाएं थे। कुर्द लड़ाकों ने आरोप लगाया कि हमलावर तुर्की से कोबाने में घुसे। सीरिया की सरकार ने मारे गए आतंकियों के पास से तुर्की निर्मित हथियार बरामद होने का दावा किया। कोबानी में महीनों से इस्लामिक स्टेट और कुदोंर् के बीच खूनी लड़ाई चल रही है। खुरपेंच देखिये। आज इस्लामिक स्टेट के विरुद्ध बशर अल-असद की सेना और कुर्द साथ लड़ रहे हैं। अमरीका के नेतृत्व में गठबंधन सेनाएं इस्लामिक स्टेट के मोचोंर् पर हवाई हमले कर रही हैं। तुर्की इन गठबंधन सेनाओं का साथी है। असद और कुदोंर् के बीच पुरानी रंजिश है। कुर्द अपने लिए स्वायत्त शासन की मांग कर रहे हैं, लेकिन फिलहाल एक बड़े दुश्मन से निपटने के लिए दोनों साथ आये हैं। अमरीका और पश्चिमी देश वर्षों से असद की कुर्सी उलटने के लिए तत्कालीन आईएसआईएल (आज आईएस) को पैसा, हथियार, प्रशिक्षण दे रहे थे, आज जब बात हाथ से बाहर जा चुकी है, तब वे असद के साथ आ खड़े हुए हैं। तुर्की की भी कुदोंर् के साथ स्वायत्तता के मुद्दे पर पुरानी खटास है, क्योंकि कोबाने के कुदोंर् की अलगाववादी मुहिम रंग लाती है तो तुर्की में रह रहे कुर्द, जो आबादी का 18 प्रतिशत हैं, समस्या बन सकते हैं, तो उसकी खुफिया एजेंसियां गुपचुप तरीके से कुदोंर् का नरसंहार कर रहे बगदादी के गुगोंर् की मदद कर रही हैं। आईएस के पकडे़ गए लड़ाके बताते हैं कि इस आतंकी संगठन की तहों के बीच तुर्की को दोस्त के रूप में देखा जाता है।
कुवैत की अल-सदक मस्जिद में हुए धमाके की व्याख्या एक पंक्ति की है, कि ये एक शिया मस्जिद है। हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है। रमजान के मौके पर खचाखच भरी हुई मस्जिद पर आत्मघाती हमले में 27 लोग मारे गए और 227 घायल हुए। पिछले हफ्तों में सऊदी अरब में भी दो शिया मस्जिदों में धमाके हो चुके हैं। 20 मार्च को यमन की राजधानी सना और सदा प्रान्त में भी शिया मस्जिदों पर हमले हुए जिसमें 137 लोग मरे गए।
ये खूंरेजी पागलपन भरी लग सकती है, लेकिन इसके पीछे नपे-तुले कदम भरे जा रहे हैं। इस्लामिक स्टेट, जिसमें ज्यादातर सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी के पुराने सदस्य हैं (जो कि सुन्नी हैं) शियाओं का कत्लेआम कर, और क्रूरता भरे वीडियो बना कर, शिया-सुन्नी खाई को तेजी से और चौड़ा करने की कोशिश में लगा है। सारी दुनिया से सुन्नी युवक तेजी से इसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। लेकिन क्या कहानी इतनी ही है? नहीं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल ये है कि आज इस्लामिक स्टेट को परदे के पीछे से मदद कौन कर रहा है? कौन उसे पैसा मुहैया करवा रहा है? उत्तर है, सऊदी अरब, कतर और कुवैत। पश्चिम के रईस दोस्त। भारत समेत दुनिया की कई गुप्तचर संस्थाओं के पास प्रमाण उपलब्ध हैं कि ये तीनों देश इस्लामिक स्टेट के साहूकार बने हुए हैं। ये देश सारी दुनिया में वहाबी इस्लाम का निर्यात करने में लगे हैं। अरब प्रायद्वीप में मौजूद शिया आबादी और शिया देशों सीरिया, ईरान, और इराक की शिया आबादी के खिलाफ छायायुद्ध चलाने के लिए इस्लामिक स्टेट से अच्छा और क्या हो सकता है। फिर बात उदाहरण प्रस्तुत करने की भी है। यहीं से ट्यूनीशिया पर हुए हमले के तार भी जुड़ते हैं।
ट्यूनीशिया भूमध्य सागर के एक कोने में बसा छोटा सा अफ्रीकी देश है। अरब लीग और अरब मगरिब यूनियन का सदस्य है। 98 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। कभी खिलाफत का हिस्सा रहे इस देश में 2011 में क्रांति आई और लोकतंत्र का प्रवेश हुआ। आज ये उभरती हुई अफ्रीकी व्यवस्था और आशास्पद लोकतंत्र है। शरिया अदालतें आज से 60 साल पहले ही समाप्त की जा चुकी हैं। पड़ोस में ऐसा देश, कतर और सऊदी अरब की रियासतों को खतरे की घंटी जैसा लगता है। लिहाजा हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। 26 जून को ट्यूनीशिया के बहुत से सुन्दर पर्यटन स्थलों में से एक पोर्ट अल कंतोई पर भयानक आतंकी हमला हुआ। हमला करने वाले शख्स ने चुन चुनकर पश्चिमी देशों से आये पर्यटकों को निशाना बनाया। 39 लोग मारे गए। इसके पहले 18 मार्च को राजधानी ट्यूनिस के एक प्रमुख केंद्र बरदो संग्रहालय पर भी जिहादी हमला हुआ था, जिसमें मारे गए 24 लोगों में से 20 विदेशी पर्यटक थे। एक करोड़ की आबादी के ट्यूनीशिया में अकेला पर्यटन क्षेत्र 3 लाख 70 हजार रोजगारों का योगदान देता है। सो, पर्यटकों की कब्र खोदने का असली लक्ष्य ट्यूनीशिया के लोकतंत्र और व्यवस्था को गहरे गाड़ना है।
जून के आखिरी गुरुवार को फ्रांस स्थित अमरीकी कंपनी 'एयर प्रोडक्ट्स' पर हुआ जिहादी हमला सांकेतिक था। संकेत था कि पश्चिम निशाने पर है। सेंट क्वेंटिन फालेवियर टाउन में 'एयर प्रोडक्ट्स' के परिसर में एक कार से हमला और फिर धमाका हुआ। हमले की जगह से बाहरी दीवार पर बंधा एक कटा सिर बरामद हुआ जिस पर अरबी में कुछ लिखा हुआ था। हत्यारे यासीन साल्ही ने अपने मालिक के कटे हुए सिर के साथ सेल्फी भी खींची थी, जिसे उसने तत्काल वाट्सअप पर पोस्ट किया था, सीरिया में रहने वाले एक मित्र के नंबर पर। ये ठीक इस्लामिक स्टेट छाप उग्रवादी हमला था। इस्लामिक स्टेट लगातार मुस्लिमों से अपील करता आया है कि वे फ्रांस पर हमले करें। सारे यूरोपीय देशों में विशेष रूप से फ्रांस पर उंगली रखने के पीछे कुछ कारण हैं। फ्रांस में मुस्लिमों का प्रतिशत पश्चिमी यूरोप में सबसे ज्यादा है। उसने अफगानिस्तान, लीबिया, मोरक्को और माली में जिहादियों के खिलाफ सैनिक कार्यवाहियां की हैं, और फ्रांस अपने नागरिकों में भी इस्लामी कट्टरपंथ को फैलने से रोकने की कोशिशें करता रहा है। नतीजा, यूरोप में हुए 500 के लगभग छोटे-बड़े जिहादी हमलों में से 40 प्रतिशत फ्रांस में हुए हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार 400 फ्रांसीसी मुस्लिम सीरिया और ईराक में जिहादियों के कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे हैं, और फ्रांस के ही खुफिया सूत्रों के अनुसार बहुत से ऐसा करने के लिए तैयार बैठे हैं। 26 जून को दक्षिण सोमालिया के अफ्रीकन यूनियन सैन्य बेस पर इस्लामी आतंकी संगठन अल शबाब के हमले में 30 लोग मारे गए। पहले आत्मघाती कार बम धमाका हुअ, उसके बाद स्वचालित हथियारों से लैस आतंकियों ने हमला बोल दिया। 7000 के लगभग आतंकियों की ताकत रखने वाले अल शबाब में सारी दुनिया से लड़ाकों की भर्ती हो रही है। अजनबी के लिए जीने या मरने का पैमाना बड़ा सीधा सा है-'कुरान की आयत सुनाओ, या गोली खाओ'। 99़ 8 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले सोमालिया में 'शुद्ध इस्लाम' लाने के लिए वे जिहाद कर रहे हैं। सोमालिया की सरकार का आरोप है कि कुछ अरब देशों से अल शबाब को पैसा मिल रहा है। उनके अपने स्रोत तो हैं ही। विचारधारा वहाबी है। अलकायदा और नाइजीरिया के कुख्यात आतंकी संगठन बोको हराम से करीबी रिश्ते हैं। सीआईए के सूत्रों के अनुसार इस्लामिक स्टेट की ताकत तीन गुना हो चुकी है। सीरिया और ईराक में इसके विरुद्ध जारी कार्यवाहियों के बावजूद इसकी पकड़ और बढ़ती जा रही है।
सदा की तरह राजनैतिक इस्लाम हिंसा के लिए उपजाऊ जमीन साबित हो रहा है। इस बीच, एक महत्वपूर्ण खबर अफगानिस्तान से आ रही है कि वहां इस्लामिक स्टेट के प्रति वफादारी रखने वाले एक आतंकी समूह ने महत्वपूर्ण बढ़त हासिल कर ली है। तालिबान से वे जमीन छीन रहे हैं। बेहद खास बात यह है कि जिहादी आतंक की दुनिया में इस्लामिक स्टेट ने अल कायदा और तालिबान की चमक को फीका कर दिया है। वह क्रूरता का तमाशा दिखाकर सारी दुनिया से सुन्नी-सलाफी युवाओं को सफलतापूर्वक खींच रहे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक वे जो सीधे इस्लामिक स्टेट के पास पहुंच रहे हैं, और दूसरे वे जो अपने-अपने देशों में रहते हुए इन दरिंदों से प्रेरित होकर व्यक्तिगत स्तर पर आतंक की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। 26 जून को ट्यूनीशिया और फ्रांस दोनों जगह एक अकेले हमलावर ने कहर बरपाया। इसके पहले आस्ट्रेलिया के रेस्टोरेंट में भी ऐसा ही हमला हो चुका है। वहाबी तंजीमों की ये क्षमता आधुनिक विश्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ये घटनाएं बताती हैं कि किस प्रकार मुस्लिम जगत की पूरी की पूरी पीढ़ी वहाबी विचार के निशाने पर है। शियाओं और दूसरे गैर-मुस्लिमों के साथ की जा रही बर्बरता के वीडियो देखकर युवाओं का इस्लामिक स्टेट का प्रशंसक बन जाना गहरे में किसी गंभीर बीमारी की ओर इशारा कर रहा है। 26 जून को घटी पांचों घटनाओं में समान तार यही है। दुनियाभर के समाजों को ये समझना जरूरी है कि आतंक के पत्ते काटने की जगह जड़ें उखाड़ना जरूरी है। वहाबियत का कट्टर विचार ही जिहादी आतंक की जड़ है।
कश्मीर से जुड़े रक्षा सूत्रों के अनुसार आईएसआई घाटी में पैसे देकर आईएस के काले झंडे प्रदर्शित करवा रही है। पाकिस्तानी फौज और आईएसआई को दहशतगर्दी का ये ब्रांड बहुत मुफीद बैठता है। यही तो है जो वे भारत में करवाना चाहते हैं। जिहादियों की नयी पौध के बीच बगदादी के दरिंदों की जो सितारा छवि है, उसको तोड़ने के लिए उसके पीछे के विचार को तोड़ना जरूरी होगा। विचार ही बारूद है, ये बात हमें अच्छी तरह समझनी होगी। आईबी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में गत वर्ष 25 हजार वहाबी उपदेशकों का आना खतरनाक संकेत है। कश्मीर, केरल, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में इनका प्रभाव बढ़ रहा है। अकेले केरल में ही विभिन्न संस्थाओं के नाम पर 45 लाख सऊदी रियाल भेजे गए हैं। केरल ही वह राज्य है जहां कुछ तबकों ने ओसामा बिन लादेन और अजमल कसाब का मातम मनाया था। विकिलीक्स के नए खुलासों के अनुसार भारत के शियाओं में सऊदी अरब घुसपैठ की योजना बना रहा है।
अच्छी बात है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय विदेशी सहायता प्राप्त एनजीओ और वहाबी कट्टरपंथ दोनों को लेकर जागरूकता दिखा रहा है। समाज को भी जागरूक होने की जरूरत है। विशेष तौर पर मुस्लिम समाज को। अरबी वेशभूषा का अत्यधिक आग्रह करने वाले, शरिया कानून की वकालत करने वाले, संगीत-उत्सव, हंसने-बोलने पर रोक लगाने वाले, महिलाओं के नौकरी करने की खिलाफत करने वाले तत्वों से सावधान रहने की जरूरत है। ये वे लोग हैं जिन्हें खुशी के मौके पर जोर से हंसना और गमी के मौके पर खुलकर रोना भी गवारा नहीं होता। इन्हें पहचान लेंगे तो कल कोई पहचान का संकट खड़ा नहीं होगा। बदलते वक्त के साथ बदलना जरूरी है।
दुनिया जाग रही है। 26 तारीख के हमले के बाद ट्यूनीशिया ने ऐसी 80 मस्जिदों पर प्रतिबन्ध लगा दिया है, जो नफरत और कट्टरता का केंद्र बन गयी थीं। बोको हराम द्वारा किये जा रहे आत्मघाती हमलों के चलते मुस्लिम बहुल अफ्रीकी देश चाड ने सभी सार्वजनिक स्थानों पर बुर्के पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। डच संसद भी इस दिशा में बढ़ रही है।
प्रशांत वाजपेई
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