फासिस्टों को शुक्रिया
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फासिस्टों को शुक्रिया

by
Jun 20, 2015, 12:00 am IST
in Archive

दिंनाक: 20 Jun 2015 12:59:05

'फासिस्टों' को शुक्रिया,
झकझोरी सरकार,
कुम्भकर्ण निद्रा तजी,
ताल ठोंक तैयार,
ताल ठोंक तैयार,
प्यार दलितों का उमड़ा,
दसों दिशा में पुन:,
कागजी घोड़ा दौड़ा,
कह कैदी कविराय,
विरोधी लें बधाई,
चीनी, चाय चाटुकारी,
सस्ती करवाई।
मीसा मंत्र महान
दोषी औ' निर्दोष में,
जिसकी दृष्टि समान,
वीजा है वह जेल का,
मीसा मंत्र महान,
मीसा मंत्र महान,
राजगद्दी का रक्षक,
इन्द्राणी को लेकर,
स्वाहा होगा तक्षक,
कह कैदी कविराय,
मार मीसा की मारी,
रौलट की सन्तान,
त्रस्त है जनता सारी।
धधकता गंगाजल है
जे. पी. डारे जेल में,
ता को यह परिणाम,
पटना में परलै भई
डूबे धरती धाम,
डूबे धरती धाम,
मच्यो कोहराम चतुर्दिक,
शासन के पापन को,
परजा ढोवे, धिक्-धिक्,
कह कैदी कविराय,
प्रकृति का कोप प्रबल है,
जयप्रकाश के लिए
धधकता गंगाजल है।
मातृपूजा प्रतिबंधित
अनुशासन के नाम पर,
अनुशासन का खून,
भंग कर दिया संघ को,
कैसा चढ़ा जुनून,
कैसा चढ़ा जुनून,
मातृपूजा प्रतिबंधित,
कुल्टा करती केशवकुल,
की कीर्ति कलंकित,
कह कैदी कविराय,
तोड़ कानूनी कारा,
गूंजेगा भारत माता
की जय का नारा।
वक्त का पासा
लोकतंत्र का क्षय नहीं,
यह है 'नया स्वराज्य',
इसके सम्मुख मात सब,
राम-राज्य भी त्याज्य,
राम-राज्य भी त्याज्य,
व्यर्थ सिंहासन छोड़ा,
पीस-पीस कर धर देेते,
बनता जो रोड़ा,
कह कैदी कविराय,
वक्त का पासा तगड़ा,
खादी वालों ने खादी
वालों को पकड़ा।
-अटल बिहारी वाजपेयी

मुनादी
खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासो आम को आगाह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढ़ा कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के पर्दे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी
अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से यह मुजिर है
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और अस्मत लुटती हुई औरत को
और भूख से पेट दबाए ढांचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाए।
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं? आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवाई है। बुड्ढ़े के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान-फरामोशो! क्या तुम भूल गए कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहां
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छांह किए रहते हैं
और हूरें हर लैंप-पोस्ट के नीचे खड़ी
मोटरवालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गई है जमीं पर,
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़ कर
भला और क्या हासिल होने वाला है?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानसों की तरह अपनी-अपनी कुर्सी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं
और गांव की नाली की मरम्मत के लिए,
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लंदन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिए जाएंगे पैर
और फोड़ दी जाएंगी आंखें
अगर तुमने अपने पांव चलकर
महलसरा की चहारदिवारी फलांग कर
अंदर झांकने की कोशिश की।
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
कांपते बुड्ढे को ढेर कर दिया,
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों मंे गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवांमर्दी की दाद दें।
अब पूछो कहां है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे करा दिए हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजाएं
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलंदी में
इस बुड्ढे का बकवास दब जाए!
नासमझ बच्चों ने पटक दिए पोथियां और बस्ते
फेंक दी है खडि़या और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आंचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आई है।
खबरदार! यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहां हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और मंजिल तक पहंुचो।
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मझधार में रोक दी जाएंगी
बैलगाडि़यां सड़क किनारे नीम तले खड़ी कर दी जाएंगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप!
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहां है
वहीं ठप कर दिया जाए!
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जलूस, हल्ला-गुल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा दर्शन करो!
वही रेलगाडि़यां तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएंगी
बैलगाड़ी वालों को दुहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झंडियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़-नुक्कड़ पर प्याऊ बिठाया जाएगा
और जो पानी मांगेगा
उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा!
लाखों की तादाद में शामिल हो इस जलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुंछ जाए!
बाश्शा सलामत को खून-खराबा पसंद नहीं!
खलक खुदा का मुलुक बाश्शा का
हुकुम…
-धर्मवीर भारती

रज्जू भैया मौलाना के वेश में
काशी के डॉक्टर पी. के. बनर्जी कक्ष में बैठे एस. पी. से बातें कर रहे थे कि कमीज, पायजामा पहने, सिर पर मौलाना टोपी लगाए, एक अजनबी उनकी बगल की कुर्सी पर जाकर चुपचाप बैठ गया। डॉ. बनर्जी उसे आश्चर्य से देखते ही रह गए, तब तक एस. पी. साहब बोले, 'आप कौन हैं ? कहां से आ रहे हैं ?' अजनबी ने तत्काल सहज भाव से कहा, 'डॉक्टर साहब हमारे मित्र हैं। दूर से सफर करता आ रहा हूं। सोचा, दोस्त से मिलता चलूं। आगे फिरोजाबाद जाना है।' डॉक्टर बनर्जी ने समझ लिया कि ये हमारे क्षेत्र प्रचारक और भूमिगत आंदोलन के सूत्रधार रज्जूभैया हैं। उन्होंने एस. पी. से कहा, 'माफ कीजिए, मैं कुछ समय अपने दोस्त के साथ बिताना चाहूंगा। फिर आपको जो भी चाहिए, जानकारी अवश्य दूंगा।' एस. पी. महोदय उठकर चले गए। डॉक्टर साहब को लगा जैसे नौ मन का बोझ सिर पर से उतर गया हो। उन्हांेने हंसते हुए कहा, 'कहिए मौलाना साहब, आपकी क्या खातिर करूं?…'फिर आगे की बातें हुईं।

नि:सन्देह आपातकाल के दौरान अनगिनत जुल्म ढाए गए। अत्याचार की ऐसी घटनाएं घटीं जैसी कभी नहीं घटीं। जिस समय आपातकाल लगा मैं कानपुर में था और कानपुर संभाग का प्रचारक था। हमारा संघ शिक्षा वर्ग तब समाप्त ही हुआ था। मैं अपने भाई, जो पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी थे, के घर पर था, वहीं मुझे यह समाचार मिला। यह तय हुआ था कि संघ के सभी प्रचारक बाहर रहकर कार्य करेंगे और संघचालक अपनी गिरफ्तारियां देंगे। हम भूमिगत हो गए, हमने सोच लिया था कि सम्पर्क बनाए रखेंगे और भूमिगत रहकर समानान्तर कार्य चलाएंगे, किसी भी कीमत पर संगठन बिखरने नहीं देंगे।
-अशोक सिंहल, संरक्षक, विश्व हिन्दू परिषद

 इन्दिरा गांधी ने 25-26 जून की रात अपनी डगमगाती सत्ता को बचाने के लिए आपातस्थिति की घोषणा कर दी। सभी नागरिक अधिकार निरस्त कर दिए गए। प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी गई और इस प्रकार अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात किया गया। अगले कुछ दिनों में बडे़-बड़े नेताओं सहित लाखों निरपराध लोगों को मीसा तथा डीआईआर जैसे भयंकर कानूनों के तहत जेल में ठूंस दिया गया। आपातकाल में अधिकांश बड़े अखबार इन्दिरा गांधी के चारण जैसे प्रतीत हो रहे थे। यदि भाषाई अखबारों की बात की जाए तो इनकी भूमिका निश्चित ही अंग्रेजी अखबारों की तुलना में काफी अच्छी थी।
-बलबीर पुंज, सांसद, राज्यसभा

 आपातकाल और उसकी अवधि में लोकतंत्र पर ग्रहण सा छाया रहा। वाजपेयी जी और दूसरे लोगों सहित मैं बेंगलुरू के केन्द्रीय कारागार में मीसा के अतंर्गत बंद रहा। मुझे याद है कि उन दिनों कारावास के भीतर ऐसे भी साथी थे, जिनको लगता था कि लोकतंत्र का सदा-सर्वदा के लिए अवसान हो  चुका है और उसके पुनरुज्जीवित होने की आशा करना भी व्यर्थ है।
-लालकृष्ण आडवाणी
सांसद व पूर्व उपप्रधानमंत्री

मुझे इन्दिरा सरकार की पुलिस ने आपातकाल की घोषणा करते ही गिरफ्तार कर लिया था। जेल में तो सुबह से शाम तक एक निश्चित दिनचर्या के अनुसार काम करना पड़ता था। इसके बावजूद हम अपने विशिष्ट तरीके से संदेश बाहर भेजते तथा बाहर से सूचनाएं अन्दर मंगाते थे। चिट्ठी लिखने का विशेष तरीका था, इसी प्रकार चिट्ठियां भेजने के लिए विशेष तरीका हम लोग अपनाते थे। पहले मुझे नरसिंह गढ़ जेल भेजा गया था। परन्तु, बाद में तबीयत खराब होने पर चिकित्सकीय परीक्षण के लिए मुझे इन्दौर जेल भेज दिया गया। इन्दौर जेल में सोशलिस्ट पार्टी तथा जनसंघ के कई लोग बंद थे। वीरेन्द्र सकलेचा थे, पटवा जी भी वहीं थे-दादा भाई थे-रा. स्व. संघ के एक बडे़ अधिकारी सुदर्शन जी थे। हम लोगों के बीच लगातार बहसें होती थीं। बहस का तात्पर्य चर्चा से है, झड़प से नहीं। लगभग रोजाना हम लोग अलग-अलग विषय पर विस्तृत बहस करते थे। बौद्धिक विचार-विमर्श की दृष्टि से वह बड़ा ही अच्छा समय था।
-शरद यादव, अध्यक्ष, जनता दल (यूनाइटेड)

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