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सहज ही मन में सवाल उठता है कि योग का संबंध आयुर्वेद से क्यों हैं? दरअसल हमारे ऋषि-मुनियों ने योग के साथ ही आयुर्वेद को जन्म दिया। इसके पीछे कारण यह कि वे सैकड़ों वर्ष तक जिंदा रहकर ध्यान और समाधि में गति करना चाहते थे। इसके चलते उन्होंने दोनों ही चिकित्सा पद्धति को अपने जीवन का अंग बनाया। निश्चित ही योग करते हुए आप स्वस्थ रह सकते हैं लेकिन प्रकृति की शक्ति आपकी शक्ति से भी ज्यादा है और मौसम की मार सभी पर पड़ सकती है। हिमालय में प्राणायाम के अभ्यास से शरीर का तापमान सामान्य बनाए रखा जा सकता है, लेकिन मान लीजिए कोई गंभीर रोग हो ही गया तो फिर क्या कर सकते हैं। ऐसे में उन्होंने कई चमत्कारिक जड़ी-बूटियों की खोज की जो व्यक्ति को तुरंत तंदुरुस्त बनाकर दीर्घजीवन प्रदान करे।
आयुर्वेद एक प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति है। बहुत से ऐसे रोग और मानसिक विकार हो सकते हैं जिस पर योग कंट्रोल न भी कर पाए तो आयुर्वेद उसका विकल्प बन जाता है और बहुत से ऐसे रोग भी होते हैं जिसे आयुर्वेद न भी नियंत्रित कर पाए तो योग उसका विकल्प बन जाता है। योग करते हुए सिर्फ और सिर्फ आयुर्वेदिक चिकित्सा का ही लाभ लेना चाहिए, क्योंकि योग आपके शरीर की प्रकृति को सुधारता है। योग और आयुर्वेद का संबंध अटूट है।
पतंजलि और आयुर्वेदिक योग
आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांतों के अनुसार वात, पित्त और कफ में से किसी एक के असन्तुलन से मानसिक अवस्था में तो परिवर्तन आता ही है, उससे शरीर पर कई बुरे प्रभाव पड़ते हैं। पतंजलि योग में वर्णित अष्टांग योग के प्रथम तीन अंगों – यम, नियम और आसन से त्रिदोष सन्तुलन में बड़ी सहायता मिलती है।
योग और आयुर्वेद दोनों ही मूल रूप से शरीर से सम्बन्धित हैं। इनके आधारभूत सिद्धांत सांख्य पर आधारित हैं। आयुर्वेदिक योग पतंजलि के अष्टांग योग से ही ग्रहण किया गया है। इसका आधारभूत उद्देश्य है- अच्छा स्वास्थ्य, शारीरिक-मानसिक संतुलन और जीवन का सम्पूर्ण आनन्द।
योग की तरह आयुर्वेद के भी आठ अंग
पतंजलि ने अष्टांग योग का सिद्धांत दिया है और आयुर्वेद के अध्ययन को भी आठ भागों में विभक्त किया गया है। यह इस प्रकार है- जा सकता है यथा काया, बल, ग्रह, उर्ध्वा, शाल्य, धनस्त्र, जरा और वृषण। यह माना जाता है कि प्रत्येक मनुष्य में दोष होते हैं जो शरीर की संरचना और तत्वों तो नियमित करते हैं और उन्हें निर्देश देते हैं। दोष की समझ भारत में आयुर्वेद के अध्ययन को आधार प्रदान करती है। अक्सर एक वैकल्पिक औषधि माने जाने वाले आयुर्वेद को भारत में एक चिकित्सा प्रणाली से कहीं अधिक माना जाता है, यह जीवन का विज्ञान है। यह मस्तिष्क और शरीर के बीच एक सामंजस्य बनाने में मनुष्य की सहायता करता है। आयुर्वेदिक औषधियां जड़ी-बूटियां, खनिज, धातु और 'एनिमल ओरिजन' से प्राप्त अवयवों से बनाई जाती हैं। आयुर्वेद की उपचार विधियां वास्तव में स्फूर्तिदायक अनुभव देती हैं।
योग और ध्यान
आयुर्वेद योग और ध्यान को पर्याप्त महत्व देता है। योग और ध्यान विभिन्न बीमारियों, चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक, के उपचार की वैकल्पिक प्रक्रियाएं हैं। योग को सबसे प्राचीन उपचार माना जाता है जो कई जटिल बीमारियों को ठीक करता है। ऐसा इतिहास में सिद्ध हो चुका है कि योग और ध्यान के नियमित अभ्यास से, एक उग्र और थका हुआ मस्तिष्क आरामदायक स्थिति में चला जाता है और उसके शानदार परिणाम होते हैं।
प्रो. अनूप कुमार
(लेखक ऋषिकुल राजकीय आयुर्वेदिक कालेज, हरिद्वार में विभागाध्यक्ष रहे हैं)
योग के नियमों को आयुर्वेद की मान्यता
उत्तम वैद्य योगी भी होना चाहिए
योगसूत्र में नियम के पांच भाग बताये गये हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान। आयुर्वेद भी इन पर अपनी राय व्यक्त करता है।
शौच
आचार्य चरक कहते हैं कि उत्तम वैद्य योगी भी होना चाहिए-दाक्ष्यं शौचमिति ज्ञेयं वैद्ये गुणचतुष्टयम् (चरक सूत्र 9/6)। शौच से आयुर्वेद वही अर्थ बताता है, जो योगी बताते हैं- कायिक, वाचिक एवं मानसिक शुद्धता। इसे ही योगी बाह्याभ्यतंर शुचि कहते हैं। आयुर्वेद कहता है कि मनुष्य की बहिरंग की शुद्धि के लिए अंगप्रक्षालन, स्नान, दंतधावन, गंडूष (कुल्ला) आदि कर्म हैं तो अंतरंग शुद्धि का अर्थ सामाजिक एवं मानसिक स्तर ऊंचा उठना, धी, धृति, स्मृति का ज्ञान आदि से है, जो व्यवहार में भी उतरे।
संतोष
असंतोष को आयुर्वेद कष्ट का प्रमुख कारण मानता है (चरक सूत्र 25 )। योगसूत्र (2/42) कहता है, संतोष सर्वोतम सुख है- संतोषात् अनुत्तमसुखलाभ:। इससे उत्तम दुनिया में कोई भी सुख नहीं है। चाहरहित होना अनंत सुख देता है, ऐसी पतंजलि की मान्यता है। क्लेशमुक्त होना व्यक्ति को शांति देता है, यह आयुर्वेद की मान्यता है। दोनों में कोई अंतर नहीं है।
तप
योगसूत्र इस विषय में कहता है- 'तप के प्रभाव से जब अशुद्धि नष्ट हो जाती है, तब शरीर और इंद्रियों की सिद्धि हो जाती है'- कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयापस: (2/43) । कष्ट सहन करना, शरीर को इसका अभ्यास कराना, व्रत-उपवास आदि का पालन तप माना गया है। इससे शरीर, इन्द्रिय एवं मन के मल का नाश हो जाता है, ऐसी पतंजलि की मान्यता है। आयुर्वेद में आचार रसायन प्रसंग में कहा गया है कि प्रतिदिन जप, शौच, दान एवं तप का अभ्यास करें तथा देवता, गो, ब्राह्मण, आचार्य एवं गुरु की सेवा में निरत रहें। इसके अलावा स्थान-स्थान पर व्रत उपवास की महत्ता बताई गई है। आचार्य सुश्रुत कहते हैं- त्रिपदा गायत्री का जप करने से तप सधता है- 'गायत्री त्रिपदा जपेत्।'
स्वाध्याय
स्वाध्याय दिनचर्या का एक महत्वपूर्ण भाग है। योगसूत्र में कहा गया है कि अपने जीवन का अध्ययनरूपी स्वाध्याय करते रहने से योगी जिस इष्टदेव के दर्शन की कामना करता है, उसका दर्शन करता है। यहां आशय यह है कि योगी साधक का आत्मबोध शीघ्र होता है और निर्मल अंत:करण में उसे वे सभी अनुभूतियां होने लगती हैं, जो इष्ट का साक्षात्कार होने पर होती हैं। यदि हमारा इष्ट परमेश्वर है तो वह आदर्शों का समुच्चय है।
हमें स्वाध्याय द्वारा उन्हीं आदर्शों का बोध होने लगता है। शास्त्रों का निरन्तर अभ्यास (पठन-मनन-पाठन), मंत्रजप एवं जीवन में उनका नियोजन- यह सब समुच्चय स्वाध्यायरूपी नियम की रचना करता है। आयुर्वेद में स्थान-स्थान पर अपनी दिनचर्या में स्वाध्याय को स्थान देने की महत्ता चरक एवं सुश्रुत बतलाते हैं।
ईश्वर प्रणिधान
ईश्वर प्रणिधान से तात्पर्य है कि ईश्वर की शरणागति। इससे योग साधना में आने वाले सभी विघ्नों का नाश होता है। योगसूत्र कहता है कि इससे समाधि की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। वस्तुत: यह उस भाव-अवस्था की प्रगाढ़ता है, जिसमें साधक स्वयं को परब्रह्म परमेश्वर के हाथों सौंपकर स्वयं को कठपुतली मान लेता है। ऐसे साधक को साधन के परिणाम की चिंता नही होती। सारे विघ्न ईश्वर के प्रति शरणागति भाव से सतत् दूर होते रहते हैं। यही बात योग सूत्र में भी कही गई है।
आयुर्वेद में मानस दोषों के निवारण के लिए एक चिकित्सा बताई गयी है- ईश्वर का ध्यान। यहां तक कि ज्वर की चिकित्सा में भी चरक विष्णुसहस्त्रनाम पाठ सहित ईश्वर की शरण में जाने की बात लिखते हैं।
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