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भारत में व्यापार करने आई ईस्ट इंडिया कंपनी 'फूट डालो और राज करो' की नीति से देश की मालिक बन गई और सुविधा भोगी कुछ देशी राजा उसके सामने दुम हिलाते रहे। कंपनी के अत्याचारों से देश त्राहि-त्राहि कर उठा, पर बचाने वाला कोई न था। ऐसे ही वातावरण में पहली गोली मंगल पाण्डेय ने चलाकर स्वयं वीरगति प्राप्त की और देश को जगाकर बलिपथ पर अग्रसर कर दिया। देश का हर व्यक्ति यह महसूस कर रहा था कि 'पराधीनेहु सपने हुए सुख नाहीं।' इसलिए पराधीनता की बेडि़यां तोड़कर स्वतन्त्र राष्ट्र में सुख की सांस लेने का स्वप्न पूरे देश ने देखा और उसके लिए सर्वस्व अर्पण भी किया। स्वतंत्रता की तड़प कितनी गहरी हो गई, इसका अनुमान अजीजन बाई के बलिदान से भी लगाया जा सकता है। वह कानपुर की वारांगना यवेश्याद्ध थीं, लेकिन जब क्रांति की चिंगारी मेरठ और दिल्ली से बढ़ती हुई कानपुर पहुंची तो अजीजन बाई वीरांगना बन गईं। उन्होंने मस्तानी महिला मंडली का गठन किया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के स्वातंत्रय समर की प्रमुख नायिका भी बन गईं।
श्री मोरोपंत और भागीरथी बाई की बेटी मणिकर्णिका मनु और छबीली बनकर बाजीराव पेशवा द्वितीय के बिठूर किले में पलती गई और वीरता उनके रोम-रोम में भरी थी। तांत्या टोपे मनु के गुरु समान ही थे। मनु की मां उन्हें बचपन में ही छोड़ चल बसी और पिता ने मां बनकर उनका पालन-पोषण किया तथा शिवाजी जैसे वीरों की गाथाएं सुनाईं। उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि मानो वह स्वयं वीरता की अवतार हों और वह जब बचपन में शिकार खेलती, नकली युद्धव्यूह की रचना करतीं तो उनकी तलवारों के वार देखकर मराठे भी पुलकित हो जाते थे और ऐसा कहा जाता था कि वह दुर्गा का ही अवतार हैं। मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। वह रानी बनीं, लेकिन राजा सदा विलासिता में डूबा रहता था। लक्ष्मीबाई के एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ, जो कि तीन माह में ही गुजर गया। इसी मध्य राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए और तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को झांसी राज्य हड़पने का मौका मिल गया। यद्यपि रानी ने पति के जीवनकाल में ही पुत्र गोद ले लिया जिसका नाम दामोदर राव रखा गया, लेकिन अंग्रेज शासकों ने गोद ली गई संतान को उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया। रानी को जब पेंशन लेकर झांसी छोड़ने का आदेश सुनाया गया तो उनके मुख से मानो भारत की आत्मा ही गरज उठी, उन्होंने कहा कि 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।' इसके पश्चात सैनिक क्रांति हुई, महारानी झांसी ने वीरता से युद्ध का नेतृत्व किया। इसमें रानी के बहादुर साथी तांत्या टोपे, अजीजुद्दीन, अहमद शाह मौलवी, रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह और रामचंद्र आदि ने उनका साथ दिया।
लक्ष्मीबाई की बहुत बड़ी शक्ति उनकी सहेलियां थीं, जो योग्य सैनिक ही नहीं, सेनापति बन गई थीं, विवाह के पश्चात राजमहल की सभी सेविकाओं को रानी ने सहेली बनाया न कि दासी। उन्हें युद्ध विद्या सिखाई। इनमें से सुंदर, मुंदर, मोतीबाई, जूही आदि के नाम उल्लेखनीय हैं और साथ ही गौस खां तथा खुदाबख्श जैसे तोपचियों का नाम भी नहीं भुलाया जा सकता, जिन्होंने अंतिम सांस तक स्वतंत्रता के लिए वीर रानी का साथ दिया। झांसी के किले पर अंग्रेज कभी भी अधिकार न कर पाते, अगर एक देशद्रोही दूल्हा जू अंग्रेजों की मदद न करता। 12 दिन झांसी के किले से रानी मुट्ठी भर सेना के साथ अंग्रेजों को टक्कर देती रही। लेकिन देश का दुर्भाग्य कि ग्वालियर और टीकमगढ़ के राजाओं ने अंग्रेजी सेना की मदद की। इस युद्ध में जरनल ह्यू रोज से रानी ने भीषण संघर्ष किया। लेफ्टिनेंट वाकर भी रानी के हाथों घायल होकर भाग आए परन्तु अंत में रानी को गुप्त मार्ग से झांसी का किला छोडना पड़ा। ग्वालियर के महाराज सिंधिया और बांगा के नवाब से उन्होंने सहयोग की मांग की, जो कि सहमत न हुए। परिणामस्वरूप रानी ने ग्वालियर के तोपखाने पर आक्रमण बोल दिया। ग्वालियर के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों ने उनका साथ दिया। रानी ने अपनी दो बहादुर सखियों काशीबाई तथा मालतीबाई के साथ कुछ सैनिकों को लेकर पूर्वी दरवाजे का मोर्चा संभाल लिया। 17 जून को जनरल ह्यू रोज ने ग्वालियर पर हमला किया। अंग्रेजों की शक्तिशाली सेना भी रानी की व्यूह रचना को तोड़ नहीं पाई। पीछे से तोपखाने और सैनिक टुकड़ी के साथ जनरल स्मिथ रानी का पीछा कर रहा था। इसी संघर्ष में रानी की सैनिक सखी मुंदर अंग्रेजों का शिकार बन गईं। रानी घोड़े को दौड़ाती चली जा रही थीं, अचानक सामने नाला आ गया। अंग्रेज सैनिकों ने पीछे से रानी के सिर पर प्रहार किया और दूसरा वार उनके सीने पर किया। चेहरे का हिस्सा कटने से उनकी एक आंख निकलकर बाहर आ गई। ऐसी स्थिति में भी रानी ने दुर्गा बनकर अंग्रेज घुड़सवार को यमलोक भेज दिया, लेकिन स्वयं इस प्रहार के साथ ही घोड़े से गिर गईं। अंतिम समय में भी रानी ने रघुनाथ सिंह से कहा 'मेरे शरीर को गोरे न छूने पाएं।'
रानी के विश्वासपात्र अंगरक्षकों ने दुश्मन को उलझाए रखा और शेष सैनिक रानी का शव बाबा गंगादास की कुटिया में ले गए, जहां बाबा ने रानी के मुख में गंगाजल डाला और हर-हर महादेव तथा गीता के श्लोक बोले, यह सुनते हुए रानी ने अपने प्राण त्याग दिए। बाबा ने अपनी कुटिया में ही लक्ष्मीबाई की चिता बनाकर उन्हें मुखाग्नि दी। रघुनाथ सिंह शत्रु को उलझाने के लिए रात भर बंदूक चलाते रहे और अंत में वीरगति को प्राप्त हुए। उनके साथ ही काशीबाई भी समर्पित हो गई। यह दिन 17 जून, 1858 का था। यह है रानी झांसी की कहानी, जो मरदानी बनकर खूब लड़ी और बुंदेले हरबोलों के मुंह से जिसकी कहानी हम सबने सुनी। -लक्ष्मीकांता चावला
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