सुख की शाखा
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सुख की शाखा

by
Jun 6, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2015 13:42:20

 

प्रशान्त वाजपेई/ अश्वनी मिश्र

सुबह  सबके लिए अलग अलग होती है। किसी के लिए तड़के 4 बजे का अंधियारा, किसी के लिए आंखों को चौंधियाती 8 बजे की धूप। किसी के लिए अखबार, किसी के लिए सुबह की सैर, किसी के लिए चाय की चुस्की।  लेकिन नई दिल्ली, कमला नगर के 80 वर्षीय शिवनारायण के लिए सुबह का मतलब है शाखा। उगते सूर्य के प्रकाश में भगवा ध्वज के सामने सामूहिक सूर्यनमस्कार-योग अभ्यास, राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कोई  गीत, मस्ती भरे कुछ खेल, देश से जुड़ी कोई चर्चा और अंत में भारत माता की प्रार्थना। उनका 50 वर्षीय बेटा राकेश सुबह अपने व्यक्तिगत कार्य में व्यस्त रहता है। वह अपने मित्रों के साथ शाम की शाखा में जाता है। सब कुछ वैसा ही – सूर्य नमस्कार, गीत, सुविचार लेकिन चूंकि शाम की शाखा में किशोरों, युवाओं और बच्चों की संख्या अधिक होती है, इसलिए खेल अधिक जोश और भागदौड़ वाले, थोड़ा आत्मरक्षा का पाठ, कुछ सामयिक चर्चाएं महापुरुषों के प्रेरक जीवन प्रसंग इत्यादि। हर रोज देशभर में ऐसी 55,000 शाखाएं लगती हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यों के बहुत सारे आयाम हैं, लेकिन काम की धुरी है शाखा। प्रतिदिन एक घंटे की शाखा। रोज कम से कम एक घंटा, देश के लिए। ये शब्द आप किसी 8- 9 साल के बाल स्वयंसेवक के मुंह से भी सुनेंगे, किसी बुजुर्ग स्वयंसेवक से भी। पूछिए कि इससे क्या हासिल होगा? तत्काल उत्तर मिलेगा,  शाखा हमारा प्रतिदिन का अभ्यास है- संस्कारित होने का और समाज को संगठित करने का। शाखा  समाप्त होने के बाद पास-पड़ोस,     निकट के क्षेत्र में लोगों से मिलना- जुलना,   उनसे देश-समाज की छिट-पुट चर्चाएं, स्वयंसेवकों द्वारा वंचित- पिछड़े इलाकों में किये जा रहे    सेवा कायोंर् की जानकारी देना, उसमेें     लोगों को सहयोग करने के लिए प्रेरित करने के  प्रयास। संघ के स्वयंसेवकों द्वारा देश में 1,55,000 सेवा कार्य किये जा रहे हैं। आज से 15 साल पहले संघ के सेवा कायोंर् की संख्या 25 हजार थी। 15 साल में इनका साढ़े पांच गुना बढ़ना सामाजिक क्षेत्र में एक बहुत ऊंची छलांग है। ये आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। संघ के अखिल भारतीय सेवा प्रमुख सुहास राव हिरेमठ कहते हैं, 'हमारा लक्ष्य आने वाले वर्षों में ऐसे 10 लाख सेवा कार्य खड़े करने का है। हमारे लिए सेवा समाज को सशक्त बनाने का माध्यम है।  शरीर के सारे अंग ठीक काम करते हों, केवल एक अंग अशक्त हो तो वह व्यक्ति विकलांग कहलाता है। ऐसा ही समाज के साथ भी है।  समाज के वंचित, शोषित वर्ग को मुख्यधारा में जोड़े बिना भारत का सवांर्गीण विकास असंभव है।' पिछड़ी बस्तियों को संघ में सेवा बस्ती कहा जाता है।  सुबह लगने वाली प्रभात शाखाओं  से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने पास की किसी सेवा बस्ती का चयन करें और सप्ताह में कम से कम एक दिन वहां जाकर कुछ न कुछ सेवा          कार्य करें।
श्री सुहासराव कहते हैं, 'सेवाव्रत आसान नहीं है, इसके लिए मन बनाना पड़ता है। जब दूसरे व्यक्ति की पीड़ा की अनुभूति होती है, तब मन में संवेदना जागती है। जब संवेदना जागती है, तभी संघ कार्य ठीक से चलता है। चर्म चक्षुओं से समाज की दुर्दशा सभी देख रहे हैं परंतु हृदय की आंखों से देखने पर संवेदना जागती है।'
कुछ स्वयंसेवकों के लिए शाखा देश की खातिर  कुछ सीखने का, नए विचारों से परिचित होने का स्थान है तो कुछ  के लिए कभी न टूटने वाली नित्य पूजा।'  87 वर्षीय हरिमोहन शर्मा पेशे से अधिवक्ता हैं। वे कानपुर की न्याय मंदिर शाखा के स्वयंसेवक हैं। शाखा उनकी आध्यात्मिक साधना है।  शाखा से मिलने वाले आनंद के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, 'शाखा में मैं लगभग  50  साल से जा  रहा हूं। यहीं से जो अनुशासन मुझे मिला उसने मुझे जीना सिखाया। समाज में कैसे रहना, कैसे न्यूनतम व कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अपने कार्य को सुचारू से जारी रखना है, यह संस्कार मुझे शाखा से ही मिला है।  और जिस दिन आप अनुशासन और न्यून परिस्थितियों में जीना सीख लेते हो उस दिन आप सुखी हो जाते हो। इसलिए शायद ही ऐसा कोई दिन इन 50 वषोंर् में रहा हो जब मैं शाखा नहीं गया हूं। सरकारी कार्य करने के दौरान भी  मैं जहां भी  रहा वहां पर सतत रूप से शाखा जाना होता रहा। यहां तक कि एक बार जब सरकारी कार्य से लद्दाख रहना हुआ तब भी  मैंने शाखा जाना नहीं छोड़ा।' शर्मा जी के परिवार में पांच प्रशिक्षित स्वयंसेवक हैं, जिनमें से दो संघ के प्रचारक निकले । प्रचारक यानी अपना पूरा समय संघ कार्य को देने वाले कार्यकर्ता। हर वर्ष देशभर में अनेक युवा  कार्यकर्ता प्रचारक निकलते हैं और कई वर्ष का समय देश के लिए देते हैं।  इस दौरान वे विवाह नहीं करते। न ही जीवकोपार्जन करते हैं। इनमंे से कुछ अपना सारा जीवन संघ कार्य के लिए लगा देते हंै। उन्हें जीवनव्रती प्रचारक कहा जाता है। आज देश-विदेश में संघ के कई हजार प्रचारक हैं। जी हां! विदेशों में भी। संघ का काम 33 देशों में चल रहा है। संघ का संकल्प है 'जहां हिन्दू , वहां शाखा' जहां एक ओर संघ में लगातार नए किशोर और युवा जुड़ते जाते हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे हजारों परिवार हैं, जिनमे पीढ़ी दर पीढ़ी संघ और शाखा खून बनकर नसों में दौड़ता है।  हरिमोहन शर्मा के बेटों में से एक विवेक पेशे से  शिक्षक हैं और आन्देश्वर नगर, उत्तर कानपुर के सहकार्यवाह हैं। जीवन के  50 बसंत देख चुके विवेक  कहते हैं, ' शाम की  शाखा में नियमित जाना मेरी दिनचर्या का विशेष  हिस्सा है। मैं शहर में कहीं भी रहूं , शाम होते ही शाखा पहुंच जाता हूं।  यह क्रम बचपन  से चला आ रहा है।' वे कहते हैं कि शाखा में आने का संस्कार उन्हें अपने  पिता  से प्राप्त हुआ और पिताजी को यह संस्कार बाबाजी (दादाजी) से प्राप्त हुआ।  हमारे परिवार में संघ के संस्कार रचे-बसे हैं। पिताजी का सभी से शाखा जाने का विशेष आग्रह      रहता है।'
संघ ने सदा समय और परिस्थितियों  के अनुसार स्वयं को ढाला है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है देर रात और आधी रात को लगने वाली शाखाएं और सप्ताह में एक बार लगने वाले साप्ताहिक मिलन।  देश में कई स्थानों पर आप देखेंगे कि किसी फैक्ट्री में रात की पाली छूटती है, कर्मचारी बाहर  निकलते हैं और देखते ही देखते शाखा लग जाती है। इसी प्रकार, किन्ही कारणों से जो लोग प्रतिदिन की शाखा न आ पाते उनके लिए सप्ताह में एक दिन एक घंटे का मिलन।
1925 की विजयादशमी को कुछ किशोरों को लेकर प्रारम्भ हुआ संघ आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन चुका है। किसी सामाजिक संस्था के लिए ये कोई आसान बात नहीं है। साधारण लोग – असाधारण काम,संघ की कार्यशैली और विचार परम्परा का हिस्सा है। परन्तु ये स्वयंसेवक के व्यवहार में उतरता कैसे है ये बड़ा रोचक विषय है। बोलकर नहीं अपने व्यवहार से सिखाना संघ के कार्यकर्ता की विशेषता है। इसीलिये आचरण की शुद्धि पर बहुत जोर दिया जाता है। दूसरा प्रमुख कारक है अनौपचारिकता। जबलपुर में संघ के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा, 'संघ स्नेह के कच्चे धागे पर बुना हुआ संगठन है। इसलिए मित्रवत् बातचीत और आत्मीयता ही अपने काम का आधार है। आप विद्वान हैं, धनी हैं, इसलिए कोई आपकी बात नहीं सुनेगा। परन्तु यदि आपसे आत्मीयता है अपनापन है तो सुनेगा। इसलिए संघ में सिखाने का साधन है अपना आचरण और आत्मीयता।'
इसी प्रकार स्वयं को पीछे रखकर अपने ध्येय और संगठन को ही प्रमुखता देना संघ की पाठशाला का बड़ा महत्वपूर्ण पाठ है। इस सन्दर्भ में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्रीगुरुजी का एक किस्सा है।  1946 की बात है। नागपुर में संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण वर्ग चल रहा था। मंच पर गुरुजी बैठे थे और एक वक्ता गुरुजी की प्रशंसा कर रहे थे। गुरुजी सिर झुकाए सुन रहे थे। बाद में जब उनके बोलने का अवसर आया तो वे बोले, 'यदि मैं ये सोचूं कि मैं संघ को चला रहा हूं तो मैं कितना बड़ा मूर्ख सिद्ध होऊंगा। मैं संघ को चलाने वाला कौन हूं। ये (सरसंघचालक का दायित्व) तो विक्रमादित्य का सिंहासन है। जो इस पर बैठेगा वह ठीक काम ही करेगा। यहां तक कि एक पत्थर भी इस पर लाकर रख दो तो वह भी सफलतापूर्वक संगठन को चला लेगा।' सामूहिक निर्णय और संगठन की क्षमता पर अगाध श्रद्धा की ये घुट्टी संघ कार्यकर्ताओं में रची-बसी है। गुरुजी के देहांत के बाद संघ के कार्यक्रमों में भारत माता, प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के अतिरिक गुरुजी का चित्र भी रखा जाने लगा। परन्तु तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने स्पष्ट आदेशित कर दिया कि उनके बाद मंच पर उनका (स्वर्गीय बालासाहब का) चित्र न लगाया जाए। शाखा के कार्यक्रमों  में भी हम देखते हैं कि किस प्रकार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं द्वारा मंच और माला से परहेज किया जाता है। संघ के कार्यक्रमों में ताली नहीं बजती।  
इसी से संघ में गुमनाम रहकर चुपचाप काम करने की परंपरा पड़ी है। आज संघ के हजारों स्वयंसेवक बिना किसी अपेक्षा के उन दूरदराज के जनजातीय  क्षेत्रों या पूवार्ेत्तर में सालों से सेवा कार्य कर रहे हैं, जहां कभी कोई मीडिया का कैमरा नहीं पहंुचता। इन इलाकों को जिसने करीब से देखा है वह जानता है कि यहां काम करना कितना कठिन है।  यहां भाषा, खानपान से लेकर संचार के साधनांे तक हर चीज एक चुनौती है। आज वनवासी अंचलों की सबसे बड़ी समस्या है वहां पर बंगलादेशियों, कट्टरपंथी मुस्लिम तत्वों और ईसाई मिशनरियों की अवैध घुसपैठ।
जनजातीय क्षेत्रों में मिशनरियों  ने दशकों पहले से घुसपैठ कर रखी है। उनके पास अकूत धनबल और वेतनभोगी कर्मचारियों की बड़ी फौज है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शोरगुल करने में सक्षम विशाल प्रचार तंत्र और विश्वव्यापी संपर्क हैं।  निशाने पर है जनजातियों की परम्पराएं।  लालच,भय  अन्धविश्वास हर पैतरे का इस्तेमाल हो रहा है कन्वर्जन के लिए कई जगह काम करना  यानी अपनी  जान जोखिम में डालना। लेकिन ऐसे इलाकों में भी अच्छी खासी संख्या में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। बिहार में वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य देख रहे प्रांत संगठन मंत्री विनोद  वनवासी अंचल में कार्य करने और यहां आने वाली समस्याओं के बारे में कहते हैं, 'इन क्षेत्रों में कार्य करना है तो हम लोग व्यक्तिगत समस्याओं  को गिनती में नहीं रखते।  काम करते जाओ तो बाधाएं अवसरों में बदलने लगती हैं। हां, हो सकता है कि थोड़े समय के लिए कोई रुकावट आए, लेकिन वह हमेशा तो नहीं रहने वाली है।'
वह आगे बताते हैं इन क्षेत्रों में भयंकर गरीबी है। हमें अपनी बहुत सी ताकत तो इन लोगों को 12 माह  भोजन उपलब्ध करवाने में ही खर्च हो जाती है। उनकी इस घोर दरिद्रता का लाभ उठाकर उनको ईसाई बनाने के षड्यंत्र दशकों से चल रहे हैं। हम रात दिन इन समस्याओं  से लड़ते हुए  सेवा कार्य चला रहे हैं।' ऐसे ही एक कार्यकर्ता हैं मुकेश हेमरन जो वनवासी कल्याण आश्रम से जुड़े हैं और बिहार के वनवासी क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। वे अपने अनुभव बताते हैं- 'ऐसे इलाकों में कार्य करना कठिन होता है। सबसे कठिन होता है संवाद कायम करना। भाषा की विषमता कार्य में बड़ा रोड़ा बनती है। साथ ही जो साधन संपन्न लोग यहां बरसों से कन्वर्जन का धंधा चला रहे हैं वह नित नए सिरदर्द खड़े करते हैं। यहां घोर अशिक्षा है। और इसका लाभ उठाकर कन्वर्जन और दूसरे षड्यंत्र जारी हैं। खतरे हैं, लेकिन हम काम कर रहे हैं और पूरे उत्साह के साथ कर रहे हैं।'
संघ की शाखाओं में प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना की प्रथम चार पंक्तियां प्रथम पुरुष, एकवचन में हैं। अर्थात् काम की शुरुआत, मातृभूमि के प्रति समर्पण का संकल्प 'मैं' यानी 'स्वयं' से प्रारंभ होता है। दूसरे पद में संबोधन 'हम' हो जाता है। इस पद में सर्वशक्तिमान परमेश्वर से राष्ट्रकार्य के निमित्त जुटने वालों के लिए 'सामूहिक आशीष मांगी गई है। तीसरे पद में स्वयंसेवकों के मन में अक्षय ध्येयनिष्ठा की कामना की गई है। मातृभूमि का वंदन 'भारतमाता की जय' के उद्घोष के साथ पूर्ण होता है। बात भले छोटी लगे किन्तु संभवत: ये रोज के संस्कार ही हैं जो जीवन में आदशार्ें की गहरी लीक डालते हैं। शाखा से मिलने वाले ऐसे ही संस्कार के कारण स्वयंसेवकों के मुंह से अक्सर सुनने में आता है कि संघ का कार्य ईश्वरीय कार्य है। असम के डिबू्रगढ़ में बाल्यकाल से संघ से जुड़े  आलोकनाथ, जो अब अपना व्यवसाय करते हैं, से जब पूछा गया कि आप पूवार्ेत्तर की विविधतापूर्ण  विषम परिस्थिति में कैसे काम करते हैं तो वे कहते हैं, 'संघ कार्य करना ईश्वरीय  कार्य  है। सामाजिक  कार्य करते समय अनेक संकट आते  हैं  लेकिन जब आप  ईश्वरीय कार्य करने निकलते हैं और लगातार प्रयास करते रहते हैं  तो वह संकट स्वत: ही दूर हो जाते हैं।' स्थानीय लोगों को भी संघ कार्य और शाखा का महत्व समझ में आने लगा है। जिसका  परिणाम है कि संघ यहा निरंतर मजबूत हो रहा है। शाखाओं में आने वाले युवाओं की संख्या तेजी  से बढ़ रही है। 

देश के सामाजिक परिदृश्य में आज भी जातिवाद हावी दिखाई पड़ता है।   ऐसे में संघ के स्वयंसेवकों का जातिरहित वातावरण में काम करने का अभ्यास बहुत काम आता है। संघ में प्रारम्भ से ही विभिन्न वर्गों के स्वयंसेवकों का एक दूसरे के घरों में जाना, शाखा एवं कार्यक्रमों में साथ मिल-बैठकर भोजन बनाना-परोसना-खाना आदि के कारण जाति का विचार पूरी तरह मिट जाता है। कई बार संघ के कार्यक्रमों के दौरान आस-पास के घरों से भोजन का संग्रह किया जाता है। कहीं इसे 'राम-रोटी' कहा जाता है  तो कहीं कुछ और। ऐसा भोजन करने वाला स्वयंसेवक जब सामजिक क्षेत्र में कार्य करने के लिए आगे बढ़ता है तो वह हिन्दू समाज को जातियों में बांट कर नहीं देखता। इस से सामाजिक कायोंर् में आने वाली बहुत बड़ी बाधा हट जाती है। डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी स्वयं संघ में जाति-विहीन वातावरण देखकर संघ की भूरि-भूरि प्रशंसा कर चुके हैं। इस बारे में संघ के अखिल भारतीय सहप्रचार प्रमुख श्री नंदकुमार कहते हैं, 'अस्पृश्यता रहित समाज संघ का मूलभूत  काम है।  'हिन्दू-हिन्दू  एक रहे' हमारा मूल मंत्र है।  यह अनेक प्रश्नों का उत्तर है।  संघ के स्वयंसेवक के मन से जाति भेद पूरी तरह मिट जाता है। आगे वे कहते हैं, 'गांधी जी ने जब संघ में पूर्णत: जातिरहित वातावरण देखा तो उन्होंने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार से कहा कि आपने एक चमत्कार कर दिखलाया है।  यही कारण है कि आज सेवा कार्य करने निकला संघ का स्वयंसेवक किसी के घर जाने में नहीं हिचकता। हाल ही में उत्तराखंड में आपदा आई, जम्मू – कश्मीर में बाढ़ का प्रकोप हुआ, नेपाल में धरती कांपी, सभी जगह संघ के स्वयंसेवक राहत कायोंर् के लिए पहुंचे।  ऐसी आपदाओं में किसी की जाति पता चलती है क्या? जातिवाद से मुक्त समरस समाज की रचना संघ का लक्ष्य है।'
बारीकी से देखने पर ध्यान में आता है कि संघ के स्वयंसेवकों के मन में समाज के प्रति गहरी निष्ठा होती है।  इस बारे में संघ का मूल विचार है कि  संघ को समाज में अपनी अलग पहचान खड़ी नहीं करनी है, बल्कि समाज का ही संगठन करना है। समाज में प्रबल जीवनी शक्ति है, उसके प्रवाह की बाधाओं को दूर करना है।  जबलपुर के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए श्री मोहनराव भागवत ने कहा, 'हमें (स्वयंसेवकों को) रात-दिन अपने समाज की सेवा करनी है  और उसका श्रेय समाज के ही खाते में डालना है।  संघ को श्रेय भी नहीं लेना है। इस सोच का असर दूर तक जाता है।  संघ का स्वयंसेवक जब समाज में कोई समस्या देखता है तो उसकी भूमिका, समाज में दोष है इसलिए समाज को ही तोड़ डालो- ऐसी नहीं रहती।  वह पूरे समाज को देखते हुए रचनात्मक समाधान निकालने का प्रयास करता है।' यही कारण है कि जब पंजाब में  आतंकवाद के चलते सिखों और शेष हिन्दुओं के बीच अलगाववाद पैदा करने की कोशिश की जा रही थी, तब पंजाब के स्वयंसेवकों ने रचनात्मक भूमिका निभाते हुए इस षड़्यंत्र का सफलतापूर्वक सामना किया। कई स्वयंसेवक बलिदान हो गए।
सादगी भरी जीवन शैली का अभ्यास भी संघ के कार्यकर्ता का एक सहज प्रशिक्षण है। संघ के कार्यक्रमों में भोजन के बाद अपने बर्तन स्वयं साफ करना, अपने रहने के स्थान को स्वयं स्वच्छ रखना, भोजन के समय अपने साथी स्वयंसेवकों को भोजन परोसना, स्वच्छ सादे पहनावे पर जोर जैसे अभ्यास जीवनशैली का हिस्सा बन जाते हैं।  संघ की सीख है कि आवश्यकता पड़े तो हर साधन का उपयोग करना, लेकिन अनावश्यक रूप से एक लोटा पानी का भी अपव्यय नहीं करना। संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहते हैं कि 'साधन उपलब्ध हैं  तथा सामाजिक दृष्टिकोण से उसका प्रयोग उचित है तो साइकिल से लेकर हेलीकॉप्टर तक तथा फोन से लेकर ईमेल तक आवश्यकता होने पर सबकी अनुमति है, लेकिन किसी साधन के प्रयोग से यदि ठाठ दिखता है तो उसका उपयोग नहीं करना चाहिए।' एक अन्य कार्यकर्ता कहते हैं कि 'देश को बौद्धिक रूप से सशक्त नागरिकों की आवश्यकता है लेकिन जरूरत पड़ने पर मिट्टी में कपड़े गंदे करने की भी तैयारी चाहिए। शाखा हमें दोनों तरह से तैयार करती है।
तस्मै श्री गुरुवे नम:
अर्थानुशासन और आर्थिक स्वावलम्बन  का पाठ शाखा स्तर से ही स्वयंसेवकों को पढ़ाया जाता है। सादगीपूर्ण कार्यशैली के कारण संघ के व्यय बहुत अधिक नहीं हैं और जितने भी खर्चे होते हैं उसका भार संघ स्वयं उठाता है। यहां चंदे और रसीद बुक के लिए कोई स्थान नहीं है। वर्ष में एक बार गुरु पूर्णिमा के अवसर पर स्वयंसेवक अपने गुरु भगवा ध्वज का पूजन कर गुरुदक्षिणा अर्पित करते हैं। पाई-पाई का सावधानी से हिसाब रखा जाता है। इसी राशि से संघ का सालभर का व्यय चलता है।  नरेन्द्र प्रताप सिंह, जो उत्तर प्रदेश के  बिजनौर जिले के स्वयंसेवक हैं, गुरु दक्षिणा के बारे में कहते  हैं, 'संघ एक  स्वयंसेवी संगठन है और संगठन के  सभी  खर्चे इसी राशि से चलते हैं। वर्ष में एक बार स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा के अतिरिक्त  अन्य कोई धन अपने खर्च के लिए संघ स्वीकार नहीं करता। संघ कार्य सुचारू रूप से चलता रहे और उसमें अर्थ की समस्या न आड़े आए इसलिए हम वर्ष में एक बार अपने कमाए हुए धन का कुछ प्रतिशत संघ कार्य के लिए, अपने देश के लिए  समर्पित  करते हैं।' बचपन से ही स्वयंसेवक के रूप में भगवा ध्वज के समक्ष गुरुदक्षिणा अर्पित  कर रहे बांदा के जगदीश सिंह तोमर  अपने भाव कुछ इस प्रकार व्यक्त करते हैं, 'जब भी  गुरुदक्षिणा कार्यक्रम होता है तो मन में एक बार यह विचार अवश्य आता है कि इस बार पिछले वर्ष की तुलना में अधिक राशि अर्पण करूंगा।' संघ में स्वयंसेवक की यही परिभाषा भी है – स्वेच्छा से देश के लिए तन – मन – धन अर्पित कर आजीवन कार्य करने वाला। स्वयंसेवक की यह परिभाषा संघ के संस्थापक ने अपने सहयोगियों के सामने रखी थी।
सरगर्मियों के आगे नहीं पता चलती गर्मी
जिस समय यह लेख लिखा जा रहा है उस समय पूरे देश में,  संघ के कार्यकर्ता प्रशिक्षण वर्ग, जिन्हें संघ शिक्षा वर्ग कहा जाता है, जारी हैं।  जिनमंे हजारों स्वयंसेवक हिस्सा ले रहे हैं। हर साल मई -जून की तपन में पूरे देश में बीस और पच्चीस दिनों के ये प्रशिक्षण वर्ग लगते हैं, जिनमंे अप्रशिक्षित स्वयंसेवक अपना पूरा खर्च स्वयं उठाकर भाग लेते  हैं।  प्रथम स्तर या प्रथम वर्ष के शिक्षा वर्ग प्रान्त स्तर पर संपन्न होते हैं। फिर द्वितीय वर्ष कई प्रांतों के संयुक्त रूप से और फिर तृतीय वर्ष नागपुर में। तृतीय वर्ष अंतिम औपचारिक प्रशिक्षण है। प्रयाग के उमेश कुमार  ने तृतीय वर्ष तक प्रशिक्षण प्राप्त किया है।  वे अपना अनुभव बांटते हुए कहते हैं, 'हर एक युवा के मन में कहीं न कहीं देश  व समाज की सेवा करने की इच्छा अवश्य होती है और उसी भावना  से प्रेरित होकर वह संघ का प्रशिक्षण लेता है।  वहां की सरगर्मियों में और किसी गर्मी का पता नहीं चलता। एक और बात जो मैंने यहां सीखी वह यह है कि कितनी कम जरूरतों में अपना काम चलाया जा सकता है।  वर्ग के पहले मैं इन चीजों को महत्व नहीं देता था। लेकिन  प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मैंने अपनी जरूरतों को कम करके न्यून से न्यून चीजों में जीने की आदत डाली।' वास्तव में संघ शिक्षा वर्ग एक कठोर साधना होती है। आप कल्पना कीजिए कि नौतपा के ताप में आप सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर रात्रि दस बजे तक विभिन्न प्रकार की शारीरिक – बौद्धिक गतिविधियों में लगे रहें। इतना ही नहीं प्रशिक्षण के इन बीस -पच्चीस दिनों में आप बाहरी दुनिया से पूरी तरह कट जाते हैं। कोई टीवी नहीं, अखबार नहीं और आज के युवा का सबसे बड़ा संकट, मोबाइल फोन भी नहीं। लेकिन शायद ऐसी ही बातें युवाओं को आकर्षित भी करती हैं। फिर जब आपके साथी प्रशिक्षार्थियों में एक केरल का हो, दूसरा गुजरात का तीसरा असम का हो और चौथा पंजाब का, तब ये अनुभव कुछ खास बन ही जाता है। इन वगोंर् में चलने वाले पाठ्यक्रमों के बारे में प्रशिक्षार्थी कुछ इस प्रकार की सूची बताएंगे-योग व्यायाम, आत्मरक्षा, सेवा कायोंर् का प्रशिक्षण, प्राकृतिक आपदाओं में राहत कायोंर् का प्रशिक्षण, देश के इतिहास, भूगोल और संस्कृति के बारे में जानकारी, महापुरुषों के जीवन परिचय, देश के सामने खड़ी चुनौतियों की जानकारी, शाखा चलाने और समाज में संपर्क का प्रशिक्षण, संघ के बारे में मूलभूत जानकारियां और अभ्यास आदि। संघ में पद के स्थान पर दायित्व शब्द का उपयोग विशेष महत्व रखता है।  प्रचलित अथोंर् में बड़े पद का अर्थ है बड़ी प्रतिष्ठा, कम काम , जबकि बड़े दायित्व का अर्थ है बड़ी जिम्मेदारी, अधिक काम। इसी भाव के चलते संघ अपने संगठन के अंदर दायित्व और कार्य का (प्रचलित अथोंर् में शक्ति का) सही अथोंर्  में विकेंद्रीकरण कर पाया है। यहां व्यक्ति पूजा का निषेध है। शक्ति केंद्र अपरिभाषित है और संघ का जीवन इसकी कोशिकाओं में समाया हुआ है, जिन्हें शाखा कहते हैं।

 

समविचारी संगठन
राष्ट्र सेविका समिति
प्रारम्भ    :    1936 को विजादशमी के दिन स्थापना
कार्यक्षेत्र    :    मातृशक्ति के मनोबौद्धिक शारीरिक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक उत्थान
        की योजना करते हुए उन्हें राष्ट्रीय परम वैभव के निर्माण में भागीदार बनाना।
वनवासी कल्याण आश्रम
प्रारम्भ    :    वर्ष 1952
कार्यक्षेत्र    :    दुर्गम वनों और पर्वतों में आधुनिक विकास से दूर, साधनहीन जीवन जी रहे वनवासियों को उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करके मुख्य धारा से जोड़ना।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्
प्रारम्भ    :    13 जून,1948
कार्यक्षेत्र    :    राष्ट्र के वर्तमान और भविष्य की आशा के प्रतीक छात्र वर्ग को क्षुद्र स्वाथोंर्  से हटाकर सवांर्गीण उन्नति और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के मार्ग पर अग्रसर करना।
भारतीय जनता पार्टी

प्रारम्भ    :    1980
कार्यक्षेत्र    :    राष्ट्रहित एवं समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान को समर्पित                                             राजनीतिक दल
भारतीय मजदूर संघ
प्रारम्भ    :    23 जुलाई,1955
कार्यक्षेत्र    :    श्रमिकों और उद्योगों से जुड़े लोगों के
        हितों का समर्थन।
सदस्य संख्या : 2.50 करोड़
भारत विकास परिषद
प्रारम्भ    : 1963
कार्यक्षेत्र    :    देश के उद्यमी को राष्ट्र सेवा से जोड़ना।
सदस्य संख्या : इस समय स्वदेश में 500 शाखाएं, 20,000 सदस्य हैं तथा 12 शाखाएं विदेश में हैं।
विद्या भारती
प्रारम्भ    :    1977
कार्यक्षेत्र    :    शिक्षा द्वारा भारतीयता का बोध कराना
सदस्य संख्या : बच्चों की संख्या- 32,95,623
विद्यालय : 9948     आचार्य : 1,43,512
विश्व हिन्दू परिषद्
प्रारम्भ    :    1964
कार्यक्षेत्र    :    विघटनकारी भेदों को मिटाकर सभी धर्माचार्यों में एकता,समरसता तथा सांस्कृतिक मान बिन्दुओं का सम्मान स्थापित करने के लिए कृत संकल्प।

अखिल भारतीय साहित्य परिषद्
प्रारम्भ    :    1966
कार्यक्षेत्र    :    साहित्यिक क्षेत्र में भारतीय अस्मिता             और सांस्कृतिक चेतना को प्रोत्साहन             देकर भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों         को संयुक्त मंच प्रदान करना।

भारतीय इतिहास संकलन योजना
कार्यक्षेत्र    :    5000 वर्षों के तथ्यपरक इतिहास के
        शोध एवं लेखन को समर्पित संस्था।

भारतीय किसान संघ
कार्यक्षेत्र    :    कृषकों के सर्वांगीण विकास के लिए
        प्रत्यनशील संस्था।
                  सदस्य संख्या : 8 लाख
भारतीय शिक्षण मंडल
कार्यक्षेत्र    :    शिक्षा के क्षेत्र में भारतय जीवन मूल्यों की         स्थापना करना ही उद्देश्य।
संस्कार भारती
कार्यक्षेत्र    :    ललित कलाओं में राष्ट्रीय चेतना की             अभिवृद्धि और राष्ट्रप्रेमी कलाकारों को         मंच प्रदान करना।संस्कृत भारती

प्रारम्भ    :    वर्ष 1981
कार्यक्षेत्र    :    संस्कृत बोलने और लिखने के लिए बच्चों         को तैयार करना।
अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद्
कार्यक्षेत्र    :    न्याय प्रणाली में भरतीय संस्कृति के             अनुरूप  सुधार करवाने और प्रभावी              न्याय प्रक्रिया के निर्माण के कार्य             पर चिंतन करना।

राष्ट्रीय सिख संगत
कार्यक्षेत्र    :    विघटनकारी भेदों को मिटाकर सभी             धर्माचार्यों में एकता,समरसता तथा             सांस्कृतिक मानबिन्दुओं का सम्मान             स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प।

सेवा भारती, अन्य सेवा संगठन

कार्यक्षेत्र    :    दुर्गम क्षेत्रों, खासकर वनवासी                        क्षेत्रों  में ,  वंचितों की अनेक प्रकल्पों             द्वारा सेवा करना।
स्वदेशी जागरण मंच
प्रारम्भ    :    22 नवम्बर,1991
कार्यक्षेत्र    :    वैश्वीकरण के नाम पर आर्थिक                साम्राज्यवाद थोपने के ष
ड्यंत्रों से               समाज को  सचेत करना।
प्रज्ञा प्रवाह
बौद्धिक स्तर पर राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों की चुनौतियों से निपटने के लिए राष्ट्रवादी चिंतकों को तैयार करना।
कुटुम्ब प्रबोधन
देश के लोगों को संयुक्त परिवारों की ओर लाना। उनको संयुक्त परिवार का महत्व बताना और उनमें परिवार के प्रति दायित्वों का बोध कराना।
गो-संवर्धन प्रकल्प
देश में बढ़ती गोहत्या एवं देशी गायों की नस्ल की विलुप्तता को देखते हुए देशी गायों क ेसंरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य करना।
धर्म जागरण समन्वय विभाग
समाज में धर्म का जागरण करके लोगों को हिन्दुत्व का भान करना। साथ ही    जो लोग किन्हीं कारणों से कन्वर्ट हुए हैं उनको घर वापस लाना।

विज्ञान भारती
भारतीय ज्ञान- विज्ञान की पुन: प्रतिष्ठा और स्वदेशी विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी के विकास के लिए गठित वैज्ञानिकों की संस्था।
लघु उद्योग भारती
भारतीय आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त लघु उद्योगों की कठिनाइयां दूर करके उन्हें सफल उपक्रम बनने में सहायता देना।अख्ि
ाल भारतीय ग्राहक पंचायत
कार्यक्षेत्र    :    ग्राहकों का प्रबोधन और संगठन कर
        अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए प्रयास
        करना।

पूर्व सैनिक परिषद्कार्यक्षेत्र    :
    पूर्व सैनिकों के पुनर्वास में सहायता करने
        तथा उनकी देशभक्ति, अनुशासन और
        दक्षता का उपयोग देशहित में करने के
        लिए बनी संस्था।
विश्व विभाग
कार्यक्षेत्र    :    भारत के बाहर स्वयंसेवकों द्वारा सेवा
        कार्य करना एवं हिन्दुओं को मंच प्रदान
        करना।

सहकार भारती
कार्यक्षेत्र    :    उत्पादक, वितरक और ग्राहक के संबधों
        का समन्वय कर सहकारिता के द्वारा
        अर्थशासन को पुष्ट करना।
आरोग्य भारती
स्थापना    :    2 नवम्बर, 2002
कार्यक्षेत्र    :    स्वस्थ शरीर के साथ मन,बुद्धि एवं आचरण का भी स्वस्थ होना जरूरी है। 

 

शाखा कैसी हो?
साधारणत: हमें किन बातों की ओर ध्यान देना चाहिए? सर्वप्रथम हम संघ शाखा के विषय में विचार करें। हमारी शाखा कैसी होनी चाहिए?
ल्ल    शाखा नित्य लगनी चाहिए।
ल्ल    वह निश्चित समय पर लगनी चाहिए।
ल्ल    शाखा में भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्यक्रम होने चाहिए।
ल्ल    सब स्वयंसेवकों में परस्पर मेलजोल, स्नेह, प्रेम और शुद्धता का वातावरण हो।
ल्ल    आपस में विचार-विनिमय, चर्चा आदि कर अपने अन्त:करण में ध्येय का साक्षात्कार नित्य अधिकाधिक सुस्पष्ट और बलवान करते रहने की हमारे अन्दर प्रेरणा, इच्छा रहे।
ल्ल    सामूहिक रूप से नित्य हम अपनी प्रार्थना का उच्चारण करें। गंभीरता से, श्रद्धा से, भाव समझ कर करें।
ल्ल    हमारे परम पवित्र प्रतीक के रूप में जो अपना भगवा ध्वज है, उसे हम मिलकर नम्रतापूर्वक प्रणाम करें।
ल्ल    'शाखा विकिर' के अनन्तर बैठ कर आपस में बातचीत करें। कौन आया, कौन नहीं आया, इसकी पूछताछ करें।    (पू. गुरुजी के विचार संकलन 'ध्येय-दृष्टि' (सुरुचि प्रकाशन) से)
शंकर की अंतिम इच्छा
पिछले दिनों मुंबई के बोरिवली के गोराई नगर में सायं बाल शाखा पर कार्यकर्ता श्री वसंत नायक थे। तभी एक बहन जी शाखा के पास आईं। वह संघ से थोड़ा परिचित थीं इसलिए वह वहां ज्येष्ठ कार्यकर्ता विलासजी सामंत से पूछकर घर जाकर अपने बेटे को लाईं। शाखा के बाद सामंत जी संपर्क पर थे तभी वहां उनकी खाकी नेकर देखकर एक अन्य बहन भी अपने बेटे को लाईं और इसे शाखा में ले जाने के लिए कहने लगीं। 15 मिनट के अंदर इस प्रकार के दो अनुभव आने से घर जाते समय सामंत जी के साथ संघ पर समाज के विश्वास को लेकर कार्यकर्ताओं से चर्चा शुरू हो गई। सामंत जी ने इस चर्चा में जो घटना बताई वह आंखें नम करने वाली है। करीब 20 वर्ष पहले वह बालकों की सायं शाखा चलाते थे। उस शाखा में शंकर नाम का 13-14 वर्ष का एक कार्यकर्ता आता था। अत्यंत गरीबी में रहने के कारण शंकर के माता-पिता पेट भरने के लिए कूड़े कचरे में से उपयोगी चीजें बीनकर जीवन चलाते थे। एक दिन शंकर को कुत्ते ने काट लिया। परिवार की हालत ऐसी नहीं थी वह कुत्ता काटने के बाद छ: माह इंजेक्शन लगवा सके। इसलिए उसे रेबीज हो गया और अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। डाक्टरों ने उसकी हालत को देखते हुए कहा कि अब यह बालक बचेगा नहीं। इसलिए इसकी आखिरी इच्छा पूछिए और पूरी कीजिए। परिवार के लोगों ने शंकर से इच्छा पूछी तो उसने कहा कि मुझे सामंत शिक्षक से मिलना है, लेकिन सामंत जी उस समय काम पर गए थे। अत: समय पर वे शंकर को मिल नहीं पाए और शंकर का देहान्त हो गया। शंकर की आखिरी इच्छा का मान रखने हेतु शंकर के पिता ने 12वंे दिन सामंत जी को घर बुलाया। उनकी आरती उतारी और मिठाई खिलाकर बोले, आपको खिलाने से यह मेरे बेटे तक पहंुचेगा क्यांेकि शंकर ने मृत्यु से पूर्व आपके लिए संदेश छोड़ा था कि सामंत जी को बोलना कि मेरे छोटे भाई को हर रोज शाखा में लेकर जाएं। कम से कम वह तो बड़ा होकर अच्छा आदमी बनेगा। ऐसी है संघ की शाखा और अपना संघ। 

यह कहना है इन विभूतियों का
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक देशभक्त संगठन है और यह अपने देश के लिए कार्य करता है।
— सरदार वल्लभभाई पटेल
जनवरी,1948 में लखनऊ ऑल इंडिया पर
इस क्रान्तिकारी संगठन से मुझे बहुत उम्मीद है, जिसने नए भारत के निर्माण की चुनौतियों को स्वीकार किया है।
—लोकनायक जयप्रकाश नारायण
यदि मुसलमान इस्लाम की प्रसंशा करता है, ईसाई अपनी ईसाइयत के लिए कार्य करता है। तो क्या यह गलत है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व की बात करता है?
—जनरल करिअप्पा
मंगलौर, फरवरी 1959
मैं पहली बार जब एक संघ शिविर में गया तो वहां का पूरा माहौल समतामय था। वहां पर कोई उच्च या निम्नवर्ग का भाव नहीं था। कुछ था तो सिर्फ स्वयंसेवक।
—डॉ. भीमराव आम्बेडकर
1930 को पूना के संघ शिविर में
संघ के अनुशासन ने मुझे प्रभावित किया और वहां पर किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता का भाव नहीं था।  मैं पूरी तरह से सहमत हुआ कि कोई भी संगठन जो अपने उच्च आदर्शों, सेवाओं और स्वयं के त्याग से प्रेरित होता है वह अवश्य ही मजबूती के साथ भविष्य में विकसित होगा।
—महात्मा गांधी
वर्धा में संघ शिविर को देखने के बाद 

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