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दयाल नेत्रहीन हैं, इसके बावजूद उच्च शिक्षा लेकर सैकड़ों नेत्रहीन छात्रों में शिक्षा की ज्योति जलाए हुए हैं।
मैं जन्म से नेत्रहीन हूं। 7 वर्ष की उम्र में मैं दिल्ली आ गया था। यहां आकर शिक्षा ग्रहण की और आज लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हूं। नेत्रहीन होने पर भी मैंने कभी इस चीज को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया। शिक्षा ग्रहण करते समय ही मैंने प्रण कर लिया था कि नेत्रहीन लोगों के हितों के लिए सदैव प्रयासरत रहंूगा।
मेरे बड़े भाई आनंद सिंह भी जन्म से नेत्रहीन थे और वे दिल्ली आ गए थे। उनके दिल्ली आने पर ही मालूम हुआ कि यहां पर नेत्रहीन बच्चों को पढ़ाने के लिए विद्यालय हैं। इसके बाद मैं उत्तराखंड से दिल्ली आ गया और निजामुद्दीन के निकट 'जेपीएम सीनियर सेकेण्डरी स्कूल फॉर द ब्लाइंड' में दाखिला ले लिया। यहां रहकर मैंने 12वीं कक्षा तक शिक्षा प्राप्त की और उसके बाद सेंट स्टीफंस कॉलेज से संस्कृत में बी. ए. और बाद में एम. ए. भी किया। साथ ही बी. एड. की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद दिल्ली प्रशासन में मेरी नौकरी लग गई और इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए वर्ष 2004 में लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में मेरी नौकरी लग गई।
मैं न केवल नेत्रहीन, बल्कि सामान्य बच्चों को भी संस्कृत की शिक्षा दे रहा हूं। बचपन में गणित मेरा पसंदीदा विषय था, लेकिन साधनों के अभाव में मुझे संस्कृत को ही अपना मुख्य विषय बनाना पड़ा। इसके बाद में सक्षम समदृष्टि सेवा क्षमता विकास एवं अनुसंधान मंडल से जुड़ गया और नेत्रहीन व विकलांग बच्चों के हितों को पूरा कराने में जुट गया। बुराड़ी में भाई की स्मृति में आनंद सिंह स्मारक खेल एवं सांस्कृतिक समिति का गठन किया। विद्यालय-कॉलेज के छात्रों की राज्य स्तर पर प्रतियोगिताएं आयोजित करवाईं। इस प्रतियोगिता में सामान्य बच्चों के साथ नेत्रहीन बच्चों को भी शामिल किया। इसके पीछे यही उद्देश्य रहा कि नेत्रहीन बच्चे दूसरे बच्चों से प्रतिस्पर्धा कर स्वयं में ऊर्जा का संचार करें। इसमें शतरंज, भाषा, निबंध, कविता, संगीत और सांस्कृतिक गतिविधियां कराई जाती हैं। कुछ समय तक मैंने पचकुइयां रोड स्थित विद्यालय में भी नेत्रहीन बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी। दो वर्ष पूर्व मुझे मालूम हुआ कि निजामुद्दीन स्थित ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन के तत्वावधान में संचालित 'जेपीएम सीनियर सेकेण्डरी स्कूल फॉर द ब्लाइंड'में छात्रों को बढ़ाने के लिए संस्कृत के शिक्षक का अभाव है। स्कूल वालों का कहना था कि यदि मैं वहां बच्चों को संस्कृत पढ़ाने जाऊंगा तो वे 11-12वीं कक्षा के बच्चों के लिए संस्कृत विषय रख सकेंगे, वरना संस्कृत विषय की पढ़ाई नहीं हो सकेगी। मैंने उनके अनुरोध को स्वीकार करते हुए स्कूल में बच्चों को संस्कृत पढ़ाना आरंभ कर दिया। आज मेरे द्वारा पढ़ाए गए कई बच्चे स्कूल में संस्कृत विषय के शिक्षक हैं और एक बच्चे की वेंकटेश्वर कॉलेज में नियुक्ति हुई है। यदि मुझे कभी मालूम पड़ता है कि किसी बच्चे को आर्थिक मदद की आवश्यकता है या उसे संस्कृत विषय में मदद चाहिए तो उसके लिए मैं सदैव तैयार रहता हूं। मैं चाहता था कि जिस तरह से मुझे दिल्ली आकर विद्यालय में पढ़ाई करने का अवसर मिला, उसी प्रकार विशेषकर नेत्रहीन या विकलांग बच्चों को पढ़ाई के लिए वातावरण मिलना चाहिए। नेत्रहीन बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने पांव पर खड़े हो जाएं यही मेरा ध्येय है। सबसे जरूरी हमारे भीतर इच्छाशक्ति का मजबूत होना वरना हम कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते। जिस तरह पानी अपना रास्ता स्वयं बना लेता है, उसी प्रकार मजबूत इरादे लेकर अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहिए।
निर्णायक मोड़
बड़े भाई ने बताया कि यहां पर नेत्रहीन बच्चों के पढ़ने के लिए विद्यालयों की व्यवस्था है। मैं दिल्ली आया और आगे पढ़ने का प्रण कर लिया। ौंने निर्णय किया कि नौकरी नहीं कारोबार करूंगा।
प्रेरणा
पढ़ाई करते समय अहसास हुआ कि शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ा जा सकता है और फिर मैं लक्ष्य प्राप्ति में जुट गया और पलटकर नहीं देखा।
विजय मंत्र
छात्र जीवन मंे ही तय कर लिया था कि संस्कृत का शिक्षक बनना है। उच्च शिक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ा और मेरा सपना साकार हो गया।
संदेश
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इच्छाशक्ति का मजबूत होना बहुत जरूरी है। ठान लो तो कुछ मुश्किल नहीं।रणा ल्ल
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