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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 12 अंक: 1
6 जुलाई 1958
उत्तर प्रदेश कम्यूनिस्ट पार्टी के मुख पत्र ' जनयुग' के 8 जून के अंक में सम्पादक ने 'उर्दू विरोधी जिहाद' छेड़ दिए जाने के लिए खेद प्रकट किया है। सम्पादक का कहना है कि 'प्रतिक्रियावादी कांग्रेसी सरकार' तथा सम्प्रदायवादियों के इस जनवाद विरोधी जिहाद में दुर्भाग्य से हिन्दी के कुछ सम्माननीय लेखक भी शामिल हो गए हैं जिससे समस्या और उलझ गई है। इसलिए जरूरी हो गया है कि इस प्रश्न की तह में जो बुनियादी समस्या है उस पर थोड़ा विचार किया जाए …
उर्दू हिन्दी की शैली एक
इन सबल व्यावहारिक युक्तियों के उत्तर में हम एक चुनौती देना चाहते हैं। यदि हिन्दी और उर्दू एक दूसरे से पृथक भिन्न भिन्न भाषाए हैं तो आप हिन्दी का एक ऐसा वाक्य बोलिए जिसमें संस्कृत के शब्दों का बाहुल्य न हो और उसे उर्दू का जुमला न कहा जा सके। या आप उर्दू का कोई ऐसा जुमला कहिए जिसमें फारसी शब्दों का बाहुल्य न हो और उसे हिन्दी न कहा जा सके। संस्कृत और फारसी दो भाषायें हैं। इन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किसी भाषा में किए जाने पर वह भाषा ही बदल जाएगी, यह नहीं मान लिया जा सकता। भाषा शब्दों से नहीं, क्रिया-पदों, सर्वनामों और कारकों से पहचानी जाती है। 'ए राजा वेण्ट टु जंगल फॉर शिकार' इसे कोई हिन्दी प्रेमी या हिन्दी विरोधी नहीं कहा सकता। हालांकि इसमें अंग्रेजी के तीन शब्दों के साथ हिन्दी के भी तीन शब्द हैं। सम्भव है, इंग्लैंड के गांव का कोई किसान इस वाक्य को न समझे परन्तु वह यह नहीं कहेगा कि यह अंग्रेजी नहीं है, यही कहेगा कि यह अंग्रेजी विदेशी शब्दों के कारण उसके लिए दुर्बोध है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश की परम्परागत भाषा में अरबी, फारसी, तुर्की और अंग्रेजी के शब्दों के समा जाने पर या वाक्यविन्यास का ढंग बदल देने से यह कोई अन्य भाषा नहीं बन जाती। अलबत्ता इस भाषा में कुछ भिन्न शैलियां बन गई हैं। इस प्रकार हिन्दी और उर्दू दो भिन्न भाषाएं न होकर उन्हें दो भिन्न शैली ही माना जाएगा। उदाहरण के लिए ' मेरे मौला मदीना बुला ले मुझे' इस वाक्य को आप हिन्दी से भिन्न भाषा कह सकते हैं ? या 'इकबाल बड़ा उपदेशक है' मन बातों से मोह लेता है'' इस वाक्य को आप उर्दू से भिन्न भाषा कह सकते हैं ? यदि आप इसे हिन्दी कहेंगे तो इकबाल उर्दू का नहीं हिन्दी का कवि माना जाएगा।
हिन्दी उर्दू दो भाषाएं कैसे?
कुछ ऐसे भी ज्ञानी हैं जो भाषा शास्त्र के नियमों के अनुसार हिन्दी उर्दू को दो भाषाएं न मान सकने पर भी यह तर्क देते हैं कि मूल में हिन्दी उर्दू दोनों एक ही जबान होकर क्रमश: विकास से अपनी अपनी संस्कृतियों, सम्प्रदायों, संस्कृत और अरबी-फारसी के प्रभाव से दो अलग-अलग ज़बानें बन गई हैं। वे दोनों अलग-अलग संस्कृतियों और सम्प्रदायों की प्रतीक हैं। मूल में एक ओर आगे बढ़कर दो ज़बानें बन जाने की प्रवृत्ति से हमें डर लगता है क्योंकि मूल में एक और आगे चलकर दो ज़बानें सांप की होती हैं। सांप की प्रवृत्ति अच्छीं नहीं होती।
राक्षसी पंचवर्षीय योजना
-डा. राममनोहर लोहिया-
पंचवर्षीय योजना के सम्बन्ध में तो मुझे केवल इतना ही कहना है कि इस चांडाली योजना को अब आमूल बदलना चाहिए। कुछ जरूरी औद्योगिक आधुनिकीकरण, जैसे फौलाद को छोड़कर खपत के लिए आधुनिकीकरण के खर्चे को तत्काल और बिल्कुल बन्द कर देना चाहिए। एक अन्न सेना, दूसरे साक्षरता सेना और तीसरे पानी नल की योजनाओं का आरंभ जल्द से जल्द होना चाहिए। सारे देश और सभी घरों को पानी देने के लिए 20-25 अरब रुपए की एक दस वर्षीय योजना में काम हो जाएगा। मैं यहां यह भी बता दूं कि केन्द्रीय और राज्य सरकारों का खर्च सलाना 26 अरब रुपए से भी ज्यादा है। यह सब तभी हो सकेगा, जबकि विरोधी राजनीति सबल और रचनात्मक बनेगी। आज दुख इस बात का है कि क्रांतिकारी लोग भी सिर पर हथौड़ा पड़ने के बाद ही चेतते हैं। जब आग लग जाती है तब कुंआ खोदना चाहते हैं। जब पानी अथवा अन्न का अकाल पड़ जाता है, तब हल्ला मचाते हैं। इससे क्या फायदा ? मैं यह जानता हूं कि जनता आज इतनी निष्प्राण हो गई है कि उसे तत्कालिक झंझटों से फुर्सत ही नहीं मिलती और वह छह महीने, साल भर के बाद की बातों में रस नहीं लेती, लेकिन अगर राजनैतिक पार्टियां भी इस तरह निष्प्राण हो जाएं तो भविष्य बुरा है। चाहे लोग रस लें या न लें, या लोकप्रियता में वक्ती कमी का खतरा हो, सोशलिस्ट पार्टी की उचित चीजों के लिए साल छ: महीने पहले से ही सचेष्ट रहना चाहिए।
दिशाबोध
अंतिम लक्ष्य-राष्ट्रीय लोकतांत्रिक विकल्प
कांग्रेस के भ्रष्ट शासन को समाप्त करने के लिए जनता उत्सुक है। कांग्रेस-शासन का स्थान ले सकने वाला विकल्प प्रस्तुत करने की पूरी संभावना है। इस पृष्ठभूमि में जनसंघ की चुनावी तैयारी एवं संगठनात्मक प्रगति की समीक्षा करते हुए हमारा विश्वास है कि उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में सभी स्थान लड़े जाएं। अन्य राज्यों में जिन चुनाव क्षेत्रों में पिछले पांच वर्ष से जनसंघ पर्याप्त रूप में कार्यरत है और जहां वह सत्तारूढ़ दल को प्रभावकारी चुनौती दे सकता है, उन्हीं चुनाव क्षेत्रों में चुनाव लड़ा जाए।
पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन
खण्ड-3 राजनीतिक चिन्तन, पृष्ठ संख्या 95
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