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मुजफ्फर हुसैन
स्वतंत्र भारत में भी यदि कोई छत्रपति शिवाजी के गुणों और कमोंर् की जय जयकार न करे तो इसे देश की शोकांतिका ही कहना पड़ेगा। भारत में मुस्लिमकाल और ब्रिटिशकाल में यदि कोई छत्रपति के सम्बंध में अपनी मानसिकता को साम्प्रदायिकता में रंगने का प्रयास करता था तो यह उसकी मजबूरी और समझ की मर्यादा हो सकती थी। इस नासमझी और द्वेष की अग्नि में यह भी सम्भव है कि छत्रपति जैसे मानवीय गुणों से भरपूर व्यक्तित्व के आगे कोई जानबूझकर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दे तो हम उसे उसकी अज्ञानता और बेबसी ही कह सकते हैं। लेकिन स्वतंत्र भारत में छत्रपति को लेकर अनेक पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की गई है। बीसवीं शताब्दी इसके लिए याद रखी जाएगी। छत्रपति के सम्बंध में अब ढेरों जानकारी और दुनिया की सभी भाषाओं में छत्रपति शिवाजी महाराज के सम्बंध में साहित्य तैयार किए जाने तक ही मामला मर्यादित नहीं रहा है। अनेक फिल्में और लघु चित्र भी तैयार हुए हैं जिससे विश्व के कोने-कोने में शिवराया की ख्याति पहुंच गई है। केवल बीसवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में ही शिवाजी महाराज के सम्बंध में विश्व की 7 भाषाओं में साहित्य उपलब्ध हो चुका है। इससे पहले मात्र मराठी और अंग्रेजी में छत्रपति सम्बंधी साहित्य उपलब्ध होता था लेकिन अब देश-विदेश की 38 भाषाओं में उनके युग के इतिहास की क्रांतिकारी पुस्तकें पढ़ने को मिलती हैं। इनमें फारसी में चार, अरबी में आठ तथा कुर्द और पश्तों में भी पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। हर पहलू से छत्रपति स्वतंत्रता के हिमायती थे इसलिए कौन विदेशी सत्ताधीश चाहेगा कि भारत जैसी सोने की चिडि़या उसके हाथ से निकल जाए? एक शासक का धर्म राष्ट्र-धर्म से प्रेरित होना चाहिए इसलिए मुस्लिम सत्ताधीशों ने उनके जीतेजी उनकी भरपूर आलोचना की ही, उनके स्वर्गवासी होने के पश्चात तो इतिहास लेखकों ने शिवाजी के चरित्र को इस प्रकार प्रदर्शित किया मानो वह कोई कट्टर साम्प्रदायिक शासक हों। शिवाजी का हिन्दुत्व देश की राष्ट्रीयता और बड़े आधार पर कहना हो तो मानवता पर ही आधारित है।
मुस्लिम शासकों के साथ छत्रपति द्वारा की गई लड़ाइयों को इस प्रकार से पेश किया गया कि मानो कोई कट्टरवादी जिहाद कर रहा हो। मुस्लिम शासकों के साथ उनके युद्धों को अधिकांशत: पांथिक उन्माद का चोला पहना दिया गया। छत्रपति के काल की कोई भी घटना, जो किसी मुस्लिम शासक से जुड़ी हो, का विवरण अधिकांश इतिहासकारों ने एक जुनूनी और उन्मादी शासक के रूप में किया है। मानो वह दो राजाओं के बीच नहीं बल्कि हिन्दू और मुस्लिमों के बीच का संघर्ष था। इसके बावजूद सांच को आंच नहीं होती, इसलिए जब शिवराया का विवरण सामने आता है तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। मात्र भारतीय इतिहासकार ही नहीं बल्कि विश्व के जाने-माने विद्वान इस बात का लोहा मानते हैं। तब पता चलता है कि छत्रपति शिवाजी तो मुस्लिमों मित्र ही नहीं बल्कि मार्गदर्शक और दार्शनिक भी थे। पिछले दिनों विश्व के अनेक देशों के इतिहास में इस प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत कर भारत के इस वीर पुरुष की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है। मुस्लिमों के साथ उनके जो राग और द्वेष की बात करते थे, वे ही उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते दिखलाई पड़ते हैं।
अफजल खान की गाथा पर आंसू बहाने वालों को चाहिए कि वे पहले छत्रपति का सम्पूर्ण इतिहास पढ़ें और उसके बाद इस नतीजे पर पहुंचें कि छत्रपति कट्टर हिन्दू शासक थे या फिर समय के साथ-साथ परिस्थितियों के प्रति न्याय करने वाले महामानव?
पिछले दिनों लंदन और जोहान्सबर्ग में भव्य समारोहों में तीन प्रदर्शनियां लगीं जिनमें शिवाजी के युग की अनेक घटनाओं को चित्रित किया गया था। इस बात से तो दुनिया परिचित है ही कि औरंगजेब के पुत्र शाह आलम के चित्रकार मीर मोहम्मद ने छत्रपति की जो भव्य तस्वीर बनाई थी, वह आज भी पेरिस के संगाहालय की शोभा बढ़ा रही है। उक्त चित्र को प्रतिदिन औसतन 117 लोग देखते हैं।
इतिहास के पन्नों पर आज भी छत्रपति को अत्यंत कट्टर और मुस्लिम विरोधी राजा बतलाने की कोशिश की जाती है। यदि इसमें तनिक भी सत्य है तो फिर यह बतलाया जाए कि जब महाराष्ट्र स्थित केलशी के प्रख्यात सूफी याकूत बाबा के लिए भव्य और विशाल दरगाह बनाने के लिए जमीन की आवश्यकता पड़ी तो 653 एकड़ जमीन किसने दान में दी थी? जहां छत्रपति ने अफजल खान का वध किया था उस स्थान पर उनके एक शत्रु का विशाल मकबरा तैयार किए जाने के सपने संजोने वालों को आज यह याद दिलाने की आवश्यकता पड़ती है कि अगर वास्तव में अफजल खान बहादुर सैनिक होता तो शिवराया ने अपने मराठा साम्राज्य की तिजोरी से ही उसकी कब्र क्यों न बनवा दी होती?
शिवाजी महाराज तनिक भी संकीर्ण राजनीति करने वाले होते तो युद्ध भूमि में कोई मुस्लिम सैनिक आकर उन्हें बचाने का प्रयास नहीं करता। इतिहास साक्षी है कि मदारी महेतर नामक एक मुस्लिम सैनिक ने अपनी जान की चिंता न करते हुए शिवाजी महाराज को युद्ध के मैदान में उस समय बचाया था जब वे आगरा के भीषण युद्ध में मुगल सेना के बीच घिर गए थे। क्या यह घटना शिवाजी के प्रति सम्मान दर्शाने के लिए पर्याप्त नहीं है? जान की बाजी लगाकर अपने शिवा की रक्षा करने वाला निश्चित ही मानवीय हृदय वाला था।
21 मार्च, 1957 की उस घटना को भला किस प्रकार भुलाया जा सकता है जब नूरखान बेग नामक जनरल को छत्रपति ने अपनी सवा लाख सेना का सर सेनापति मनोनीत किया था? नूरखान बेग वही व्यक्ति है जिसने शिवाजी महाराज के लिए समुद्री सेना तैयार की थी। समुद्र की ओर से होने वाले आक्रमणों के प्रति शिवाजी हमेशा से सजग थे। इसलिए राज्य की रक्षा हेतु छत्रपति के लिए नौसेना की रचना और स्थापना अत्यंत आवश्यक थी।
छत्रपति शिवाजी ने सिद्दी इब्राहीम को अपना अंगरक्षक मनोनीत किया था। इसलिए कहा जा सकता है कि मां भारती के लिए सर कटाने वाले मुस्लिम सैनिकों से उनको प्यार था। इतना ही नहीं, कई मुस्लिम सैनिक भी उनसे अपार अपनत्व पाते थे। भला यह किस प्रकार भूलाया जा सकता है कि काजी हैदर तो शिवाजी महाराज के मुख्य सचिव थे? योद्धाओं और सेना की रचना से लेकर उसकी मोर्चेबंदी में निष्णात उस जैसा कोई अन्य व्यक्ति दूर-दूर तक दिखलाई नहीं पड़ता। इतिहास सिद्दी हिलाल को भी भला किस प्रकार भुला सकता है जो साबित करता था कि शिवाजी की सेना में एक से बढ़कर एक पराक्रमी मुस्लिम सैनिक का समावेश होता था। उनकी नजरों में किसी सैनिकों पर किसी मजहब और जाति का लेबल नहीं लगा था। वह पहले सैनिक होता था बाद में किसी जाति और मजहब का। शिवाजी महाराज की नौसेना के कमांडर के रूप में सारंग नामक मुस्लिम युवक का विवरण पढ़ने को मिलता है।
जहां नौसेना का उल्लेख होगा वहां दौलत खान के नाम को भुलाया नहीं जा सकता। यही वह वीर युवक था जिसने 26 जनवरी, 1680 में उदेरीबेट पर हमला करके मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। राजकाज चलाने के लिए गुप्तचर विभाग की व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। क्या उसके लिए रुस्तम जमान को भुलाया जा सकता है? सन् 1667 में शिवाजी महाराज के साम्राज्य में बेलगां, जामकंडी और उधरावाड़ की सैन्य कार्यवाही का उल्लेख इतिहास में अनेक स्थानों पर पढ़ने को मिलता है।
संक्षेप में कहा जाए तो शिवाजी महाराज के मराठा साम्राज्य में मत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं होता था। बहादुरी के साथ जिसमें वफादारी का गुण होता था वही शिवाजी के लिए सबसे अधिक मूल्यवान होता था। ब्रिटिश साम्राज्य और कुछ संकीर्ण मुस्लिम शासकों ने छत्रपति की हृदय विशालता को कम करने के जो दुस्साहस किए उसके पीछे उनकी संकीर्ण और मजहब प्रेरित मंशा का एक सोचा-समझा षड्यंत्र था। दु:ख की बात तो यह है कि हमारी आजादी के 68 वर्षों के बाद भी छत्रपति शिवाजी के इतिहास और उनके योगदान को न समझ पाना हमारे लिए बहुत दुखद है। ल्ल
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