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इंदिरा किसलय
समूचा विश्व, मानव मूल्यों में आस्था रखते हुए भी, अलग-अलग जीवन शैलियों में व्यस्त है। खान-पान, पूजा- पद्धति, परिधान, देवता, कला-संगीत इत्यादि क्षेत्रों में भिन्नता उतनी ही स्वाभाविक है जितना सूर्य से प्रकाश और मेघों से वर्षा। एक विशिष्ट भूखण्ड का भौगोलिक स्वभाव भी इसे प्रभावित करता है। नदियां, पहाड़, मरुस्थल या हिमस्थली, जीने का अन्दाज निर्धारित करते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दुत्व के मुद्दे को परखा जाना चाहिए। राष्ट्रीयता, धर्म धारणा एवं साम्प्रदायिकता में अन्तर कितना है? हिन्दू किसे कहेंगे? सच तो ये है कि अपने मौलिक रूप में 'हिन्दुत्व' इस विशाल उपमहाद्वीप की भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पहचान है। कहना न होगा कि भू-रचना एवं संस्कृति 'राष्ट्र' की संकल्पना के भीतर ही है। अपने शुद्ध रूप में सनातन हिन्दू धर्म और कुछ नहीं, मात्र मानव धर्म है, जिसकी परिधि में समूचा ब्रह्माण्ड है। चांद-तारे, सूर्य, पृथ्वी, पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति, पाषाण, भूमि और मानव, सभी के सह अस्तित्व की घोषणा है। यह अत्यन्त व्यापक है।
पुराणों-ग्रन्थों में वर्णित है-आदि काल में सभी हिन्दू थे। कालान्तर में वर्णाश्रम शिथिल हुआ। सदियों तक विदेशी आक्रान्ताओं के आक्रमण होते रहे तथा भारतीय विश्वास और विचारणा से, कितने ही क्षेपक जुड़ते चले गए। सामाजिक संरचना में अप्रिय बदलाव नजर आने लगे। आयातित सोच से उपजी उलझन और आतंक ने हिन्दुत्व शब्द पर ही सेकुलरों ने अभद्र टीका-टिप्पणी की। इस पृष्ठभूमि पर वि.दा. सावरकर का सूक्त निर्णायक हो सकता है-
'आसिन्धो: सिन्धु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका
पितृभू: पुण्यभूरश्चैव स वै हिन्दुरिति: स्मृत:।'
(अर्थात् जो सिन्धु नदी से सागर पर्यन्त की विस्तृत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है, वही हिन्दू कहा जा सकता है।) सरल शब्दों में कश्मीर से कन्याकुमारी तक अखण्ड भारत जिसे प्रिय है, जो उसके लिए सर्वस्व समर्पण को तैयार है। ऐसा हिन्दुस्थान का हर निवासी हिन्दू है।
सर्वप्रथम, भौगोलिक पहचान का दायरा रेखांकित करें तो उसमें सनातनी, आर्यसमाजी, चार्वाक, शाक्त, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई और यवन, सभी आते हैं। पुण्यभू से आशय अगर पौराणिक तीर्थों से लगाया जाय तो संकीर्णता की टिप्पणी भी सुननी पड़ सकती है। पर पुन: अगर राष्ट्र अपना है तो उसकी हर भौतिक-अभौतिक संवेदना भी अपनी है। शुद्ध राष्ट्रीयता का जयघोष 'बृहस्पति आगम' में सुना जा सकता है।
'हिमालयं समारम्भ, यावदिन्दुसरोवरम्।
तं देवनिर्मितं देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।'
(हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर अर्थात् कन्याकुमारी अन्तरीय समाप्तिपर्यन्त देवनिर्मित विस्तृत स्थल का नाम हिन्दुस्थान है।) वेद में निरूक्त के नियमों के अनुसार सकार, हकार के रूप में उच्चारित हो सकता है। यथा सरित्=हरित एवं सिन्धु=हिन्दू। इतिहासकार हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति में इसी तर्क का निवेश करते हैं। अरबी में 'स' का उच्चारण 'ह' होता था। अत: सिन्धु नदी के तट पर रहने वाले हिन्दू कहलाए।
कालक्रम में भौगोलिक व्याख्या सुन्दर उदात्त जीवन शैली एवं धर्म धारणा से जुड़ गई। समय गुजरता गया और परम्परा में कुछ आत्मरक्षा और विदेशी प्रभाव से प्रसूत तथा वर्णाश्रम से उपजी चिन्तना का फल था कि विशिष्ट पूजा पद्धति को अपनाने वाला ही हिन्दू कहा जाने लगा। हिन्दुत्व जैसे उच्च विचार को सम्प्रदायवाद या कट्टर मतवाद से जोड़ दिया गया।
एक नजर इतिहास पर डालें तो ज्ञात होता है कि मेरुतंत्र, कालिकापुराण एवं पारसियों के ग्रन्थ शातीर में भी हिन्दू शब्द का उल्लेख है। छत्रपति शिवाजी के राजकवि भूषण ने 'हिन्दुवान को तिलक राख्यौ-हिन्दुन की चोटी' जैसी पंक्तियां लिखीं। गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी कविता में 'जगै धर्म हिन्दू' कहा।
वस्तुत: शुद्ध हिन्दू विचारणा विश्व के लिए वरणीय है-पर कहने वाले कहते हैं, अन्याय मतावलंबियों के लिए इसके द्वार बन्द किए जाना इसके विशाल चिन्तन पर प्रश्नचिह्न लगा गया। उ.प्र., म.प्र. एवं बिहार में तथाकथित उच्च वर्ण वालों द्वारा वंचितों पर अन्याय करने जैसी बातें सुनने में आती हैं।
उपसंहार में पुन: उन विचारों का समीक्षण जरूरी हैं जो महापुरुषों के श्रीमुख से नि:सृत हुए थे। लोकमान्य तिलक में हिन्दू की पहचान कुछ इस तरह से बताई- 'वेदों में प्रामाणिक बुद्धि रखने वाला, नानाविध नियमों का पालन करने वाला तथा अनेक प्रकार से ईश्वर की उपासना करने वाला।'
कुछ विचारकों ने निम्न 5 लक्षणों से युक्त मनुष्य को हिन्दू कहा- 1.ओंकार प्रवण 2.गोभक्त 3.अहिंसक 4.पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाला 5. गुरुभक्त। स्पष्ट है कि उपरोक्त पांच नियमों का प्रयोक्ता हिन्दू है, फिर वह कोई भी क्यों न हो। ओंकार-बौद्ध, जैन भी उच्चारित करते हैं। गो सभी के लिए पूज्य होनी चाहिए। प्राणिमात्र के अस्तित्व की रक्षा और सम्मान का विचार संकीर्णता हो नहीं सकता।
आचार्य विनोबा भावे ने 'हिन्दू' शब्द की व्याख्या इस भांति की है-जो वर्णाश्रम में निष्ठा रखता है। गो सेवक होने के साथ श्रुति संवेदी है। सभी पंथों का आदर करने वाला, देव मूर्ति की अवज्ञा न करने वाला, पुनर्जन्म विश्वासी तथा जो सदा सब जीवों के अनुकूल बर्ताव अपनाता है, वह हिन्दू है। इससे प्रतिवाद करने का दुस्साहस कौन करेगा।
हिन्दुत्व सनातन शाश्वत चिन्तनशाला है। और सदा तो केवल मानव धर्म रहेगा। हिन्दुत्व एक सागर हैं जिसमें विभिन्न मत-मतान्तरों, विश्वासों की सरिताएं आकर समाती और स्वयं सागर हो जाती हैं। यह चिन्तन सागर, हिन्दू राष्ट्र यानी भारत है। महात्मा गांधी ने स्वयं को इसी आधार पर हिन्दू कहा। इसे अत्यन्त गरिमामय अथोंर् के साथ समझना है तो सरदार पटेल आदर्श हैं जिन्होंने सोमनाथ के पुनर्निर्माण हेतु प्राणपण से प्रयत्न किया। कुल मिलाकर हिन्दुत्व उदात्त राष्ट्रीयता एवं मानववाद का शिखर है। ल्ल
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