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सऊदी अरब के शासक
सद्दाम हुसैन के पदचिह्नों पर
क्या अरब ईरान और इराक कुवैत के बीच हुए खूनी संघर्ष की तरह अरबस्थान की भूमि पर निकट भविष्य में ही कोई युद्ध होने जा रहा है? यदि हुआ तो वह किन देशों के बीच होगा? हम यहां पिछले युद्ध क्यों हुए इन कारणों में न जाकर इस विषय पर चर्चा करना अधिक आवश्यक समझते हैं कि भविष्य का युद्ध यदि होगा तो किन देशों के बीच होगा और उस युद्ध के क्या कारण होंगे, उसका प्रभाव भारत सहित विश्व के देशों पर क्या पड़ने वाला है? एक बात तो अत्यंत स्पष्ट है कि इससे खनिज तेल की पूर्ति पर तो प्रभाव पड़ेगा ही इसका बुरा प्रभाव विकासशील देशों पर अधिक से अधिक पड़ने वाला है। भारत जैसे देश की प्रगति में अवरोध अवश्य ही खड़े होंगे लेकिन फिर भी उन देशों की तुलना में भारत अपना मार्ग खोजने में सफल हो जाएगा। इस विषय के अधिक विस्तार में न जाकर इस समय इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि विज्ञान की सतत् खेाज करने वालों ने अनेक स्रोत इस प्रकार के खोज लिए हैं, जिससे दुनिया अब मात्र खनिज तेल पर ही निर्भर रहने वाली नहीं है। इसी के साथ यह भी कहना पड़ेगा कि पिछले दो दशकों में अनेक देशों में खनिज तेल के नए भंडार उपलब्ध हुए हैं। इसमें सौर ऊर्जा ने महत्व की भूमिका निभाई है। अरब देशों की शोकांतिका यह रही है कि वे केवल और केवल अपने तेल तक ही मर्यादित रहे। दुनिया में यह कहा जा सकता है कि ऊर्जा के मामलों में अब अरबों का एकाधिकार बहुत समय तक नहीं रहने वाला है। विश्व में सर्वाधिक तेल उत्पन्न करने वाला सऊदी अनेक संकटों में घिरा दिखलाई पड़ रहा है। उसके समीप का देश सीरिया दुनिया के खतरनाक आतंकवादी अलबगदादी का ठिकाना बना हुआ है। अलबगदादी और उसका खूंखार संगठन किसी भी क्षण रियाद पर हमला कर सकता है। दाइश के कदम बढ़ते ही जा रहे हैं। इस्लामी दुनिया को इस समय इस संगठन से भारी खतरा है। दाइश यदि रियाद की ओर बढ़ता है तो फिर अमरीका को बीच में आए बिना कोई छुटकारा नहीं हो सकता है, लेकिन दाइश से भी अधिक खतरा अमरीका को उन इस्लामी देशों से है जिनकी सऊदी से नहीं पटती है। उनमें ईरान सबसे ऊपर है। उक्त मतभेद अरब और अजम के संघर्ष के नाम से पुकारा जाता है। इस्लाम के जन्म के पश्चात यही मतभेद शिया और सुन्नी में बदल गए। पाठकों को यह बतला दें कि सुन्नियों की सबसे बड़ी महासत्ता सऊदी अरब है तो शियाओं की ईरान। योगायोग दोनों ही सबसे बड़े तेल उत्पादक हैं।
इस बीच एक नई घटना यह घटी है कि सऊदी के पूर्व राजा का निधन हो गया। उनके उत्तराधिकारी के रूप में उनके बड़े पुत्र ने गद्दी संभाली जिसका भाई अब तक अमरीका में वर्षों से यानी 40 साल से राजदूत के पद पर आसीन था। लेकिन पिछले दिनों अपने इस भाई से उसने यह पद लेकर स्वदेश बुला लिया। उसका यह भाई उक्त अपमान सहन नहीं कर पाया है। बतलाया जाता है कि वह भाई दाइश के खलीफा से मिल गया है। यही भाई सऊदी पर दाइश से मिलकर हमला करवाने का षड्यंत्र रच रहा है।
सऊदी राजकुमार का कहना है कि उनका स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण उन्होंने पद त्याग दिया है लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। जो व्यक्ति चालीस साल तक अमरीका में रहा हो वह समय आने पर भला राजगद्दी क्यों कर त्याग सकता है। घर के भीतर कुछ न कुछ विवाद है इसलिए बाहरी ताकतें दुनिया की सबसे समृद्ध राजशाही में सेंध लगाए जाने के समाचार आ रहे हैं। अमरीका परिवर्तन का हिमायती हो सकता है लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता कि सीरिया के अलबगदादी का समर्थन कर सके। राजगद्दी के मामले में अपने घर से नाराज राजकुमार दाइश जैसे दुश्मन को घर में बुलाकर इतनी बड़ी जोखिम मोल ले सके यह कहना कठिन है। लेकिन यह सत्ता प्राप्ति का इतिहास रहा है कि मुझे राजगद्दी मिले या न मिले लेकिन प्रतिस्पर्द्धी को कदापि नहीं मिलनी चाहिए। उक्त भावना से परे रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
पाठक भली प्रकार से जानते हैं कि अरब वसंत की लहर जो कुछ समय पूर्व चली थी उसने अरबस्थान के अनेक देशों को हिलाकर रख दिया था। कौन होगा जिसे सत्ता का स्वाद चखने की इच्छा न हो। अमरीका में बैठा सऊद अलफैसल इसी की प्रतीक्षा कर रहा था। इसी राजकुमार ने अमरीका को शुरू से अपने विश्वास में ले रखा था। पाठकों को याद दिला दें कि इस चालीस वर्ष की अवधि में लेबनान पर 1978, 1982 और 2006 में इस्रायल का हमला, 1987 और 2000 में फिलस्तीनी युद्ध, 1980 में इराक और ईरान युद्ध, 1990 में कुवैत पर इराक की चढ़ाई और 2003 में इराक पर हमला आदि उथल-पुथल में सऊदी को बचाने वाले अमरीका को विश्वास में लेने का काम पूरा करने वाली भूमिका में सबसे बड़ी भूमिका निभाने वाला यह राजकुमार जब अपने निकट आ रही सत्ता से दूर कर दिया जाए तो उसके मन की स्थति किस प्रकार शांत रह सकती है। वह अपने बड़े भाई और आज के राजा सऊदी से नाराज होकर स्वदेश तो लौट आया लेकिन अपने मन की धधकती ज्वाला को शांत नहीं कर सका। भीतर से मिल रहे समाचार बतलाते हैं कि अमरीका के इशारे पर वह बगावत कर सकता है। अलबगदादी इस समय चुप है वह क्रांति होते ही सऊदी में आ तो सकता है लेकिन अमरीका से भयभीत होकर कुछ समय के लिए चुप बैठेगा। बगदादी नहीं चाहेगा कि वह सऊदी की ओर देखे। सत्ता बदलने के बाद अंतरराष्ट्रीय समीकरण क्या करवट लेते हैं उसके पश्चात ही चित्र स्पष्ट हो सकेगा। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि सऊदी सत्ता में सब कुछ ठीक नहीं है।
उधर ईरान के मोहसिन रजाइ ने पश्चिम एशिया में अमरीकी नेताओं की विरोधाभासी नीतियों की ओर संकेत करते हुए कहा कि सऊदी सत्ताधीशों के साथ भी सद्दाम जैसा व्यवहार हो सकता है। यह बात उन्होंने मई दिवस के अवसर पर 14000 मजदूरों की शहादत के अवसर पर अपनी आदरांजलि अर्पित करने के अवसर पर कही। जिस प्रकार अमरीका ने सद्दाम को ईरान के विरुद्ध भड़काया, इस समय यमन पर हमले के पश्चात सऊदी की स्थिति भी वही हो गई है। लेकिन जब सद्दाम ने स्थिति को हाथ से निकलते हुए देखा तो उसने कुवैत पर चढ़ाई कर दी और अमरीका के सामने आ गया। बहुत आश्चर्य की बात नहीं होगी यदि यही स्थिति भविष्य में सऊदी सत्ताधीशों की भी हो जाए।
अब अमरीका सऊदी को भी सद्दाम की तरह सभी बुराइयों की जड़ घोषित कर दे तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं होगी। रजाइ का कहना था कि हम अमरीका को तीसरी बार कसौटी पर कस रहे हैं। अमरीका की निगाहें मध्यपूर्व पर टिकी हुई हैं, देखना है वह इस बार किस पर हमला करवाता है। -मुजफ्फर हुसैन
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