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डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
विश्वप्रसिद्ध विद्वान डेनियल पाईप्स ने समूचे विश्व के मुसलमानों का विश्लेषण करते हुए उन्हें तीन भागों में विभाजित किया है। पहली श्रेणी में वे मुस्लिम देश हैं जिनकी जनसंख्या कुल आबादी का 85 प्रतिशत या इससे अधिक है, इसमें 32 देशों का नाम आता हैं। दूसरी श्रेणी में वे देश है जहां मुस्लिम जनसंख्या 25 प्रतिशत या इससे अधिक है, ऐसे 11 देश आते हैं और तीसरी श्रेणी में वे देश हैं जहां उनकी जनसंख्या 25 प्रतिशत से भी कम है, ऐसे देशों की संख्या 47 है। भारत के साथ लगे उन मुस्लिम देशों में जिनकी जनसंख्या 99 प्रतिशत है-अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बंगलादेश हैं। 1981 की जनसंख्या के हिसाब से इनका प्रतिशत क्रमश: 99, 97 व 89 था जो अब तीनों में लगभग शत-प्रतिशत हो गया है। भारत में तुर्क, पठान तथा मुगल शासन काल में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ती रही है (देखें, के.एस.लाल, द ग्रोथ ऑफ मुस्लिम पॉपुलेशन इन इंडिया, नई दिल्ली, 1973) ब्रिटिश संरक्षण में जैसा कि 1881-1941 तक के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं, मुसलमानों की जनसंख्या में अपेक्षित प्रगति हुई। कांग्रेस सरकार की तुष्टीकरण नीति से 1997 में बचे (पाकिस्तान बनने के बाद) केवल 3.5 प्रतिशत मुसलमानों की जनसंख्या 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत हो गई है और यदि इसमें गैर कानूनी रूप से बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठियों को भी जोड़ लें तो यह लगभग 16-18 प्रतिशत बनती है। अनेक देशों का अनुभव है कि जब किसी देश में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 20 प्रतिशत हो जाती है तो उक्त देश में वे 'इस्लाम खतरे में' का नारा लगाते हैं तथा स्वतंत्र देश की मांग करने लगते हैं।
इस्लामी आतंकवाद
सातवीं शताब्दी में इस्लाम का अभ्युदय विश्व शांति, सुरक्षा तथा व्यवस्था के लिए एक भयंकर खतरा तथा घिनौनी चुनौती का रहा। मजहबी जुनून में तलवार तथा शक्ति द्वारा विश्व व्यवस्था को बदलने का प्रयत्न हुआ। उन्होंने विश्व को दारुल हरब (गैर मुस्लिम तथा दारुल-इस्लाम (इस्लाम समर्थक) में बांटा तथा दूसरे देशों पर आक्रमण एवं सैनिक अभियान द्वारा उन्हें इस्लाम अनुगामी बनाना चाहा। अनेक मुद्दों से स्वयं हजरत मोहम्मद ने भाग लिया। शीघ्र ही इस्लाम की आंधी ने न केवल एशिया के कुछ देशों बल्कि स्पेन तथा फ्रांस के कुछ हिस्सों को भी लपेट लिया। मजहबी उन्माद में तथा जबरदस्ती शक्ति प्रदर्शन की होड़ में वे परस्पर भी खून खराबा करते रहे। यहां तक कि उन्होंने अपने परिवार के लोगों को भी नहीं छोड़ा। पहले पांच खलीफा तो अपनी स्वाभाविक मौत से मरे। आखिर प्रथम महायुद्ध के पश्चात विश्व से खलीफा का पद ही खत्म हो गया। यह कटु सत्य है कि मुस्लिम विचारधारा न धर्म है, न सम्प्रदाय और न ही कोई आध्यात्मिक पंथ है। यह तो शुद्ध रूप से एक अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिक दल है जिसका उद्देश्य अधिकतम भूमि और जन पर कब्जा करना है। (देखंे, विजय कुमार, बदलते मुस्लिम मानस का सच, राष्ट्रधर्म, मई, 2004) 20वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में मुसलमानों में जिहादी भावना भरने के चलते इसका आतंकी चेहरा उभरकर सामने आया। अफगानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान में अलकायदा, लेबनान में हिजबुल्ला, इराक में हमास, सीरिया व इराक में आई.एस.आई.एस तथा भारत में सिमी तथा इंडियन मुजाहिद्दीन आदि अनेक नकाबपोश आतंकी संगठन खड़े हो गए। बगदाद के अबू अल बकर बगदादी ने तो अपने को तब खलीफा ही घोषित कर दिया तथा अब आईएसआईएस द्वारा विश्वव्यापी मुस्लिम युवकों में मजहबी उन्माद का उद्वेग स्थापित कर उन्हें इस संगठन से जुड़ने के लिए व्यापक प्रचार किया जा रहा है। 1947 में मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान तथा उसके द्वारा कश्मीर में आतंकी घुसपैठ ने भारत को भी इस्लामी आतंकवाद से दूर न रखा। कांग्रेस शासन की ढुलमुल नीति तथा थोक मुस्लिम वोट की चाहत में मुस्लिम तुष्टीकरण को बढ़ावा दिया गया। भारतीय कम्युनिस्ट दल जिनका भारतीय संस्कृति एवं परम्परा से दूर का भी सम्बंध नहीं है तथा जो स्वयं हिंसा के मार्ग के पोषक तथा भारत में नक्सली हिंसा तथा माओवाद को बढ़ाने में सहायक रहे, को इन आतंकी संगठनों तथा हमलों से कभी कोई तकलीफ न हुई। साथ ही भारत के क्षेत्रीय दलों ने भी मुस्लिम तुष्टीकरण को प्रोत्साहन दिया। मुसलमानों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की बजाय सिमी जैसे आतंकी संगठन की वकालत की। 2001 में श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने सिमी पर प्रतिबन्ध लगाया तथा मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने के प्रयत्न अवश्य किए, पर आज भी देश के मुस्लिम नवयुवकों को मजहबी आधार पर गुमराह करने का प्रयत्न चल रहा है। विश्वव्यापी आतंकी वातावरण में यह चिंतन अपरिहार्य है कि भारत का प्रत्येक नागरिक ऐसे में राष्ट्र की मुख्यधारा से कैसे जुड़े! उसमें राष्ट्रभक्ति, समाजसेवा तथा देशप्रेम का भाव स्वाभाविक रूप से हो, बिना सम्प्रदाय, पंथ या जाति का विचार किए राष्ट्र प्रथम तथा राष्ट्रहित सर्वोपरि हो। सन् 1947 में ही यदि ईमानदारी से प्रयत्न किए गए होते तो यह मुख्य समस्या न आती।
महान पुरुषों के प्रयत्न
भारत के प्रथम भारतीय सेनापति जनरल करिअप्पा ने स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में रह गई। कुल आबादी के 3.5 प्रतिशत मुसलमानों से अपील की थी कि वे दो नौकाओं (भारत या पाकिस्तान) में सफर न करें। (अन्यथा यह एक अक्षम्य अपराध होगा। वहां चले जाएं।) दूसरे, उन्होंने यह भी कहा कि उनके द्वारा कोई बेसुरापन नहीं होना चाहिए तथा देश में अब किसी भी मुस्लिम लीग जैसी पार्टी को उचित नहीं माना जाना चाहिए। (देखें ऑर्गनाइजर में उनका लेख, लैट मुस्लिम ऑफ इंडिया डिक्लेयर देमसेल्व्स)। संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी (माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने दृढ़ता तथा स्पष्टता से भारतीय मुसलमानों की समस्या का विस्तृत विवेचन अपने भाषणों में किया। उन्होंने 'राष्ट्रीय व्यक्ति का वर्णन करते हुए भारत में साम्प्रदायिक कौन, शत्रु कौन, राष्ट्रविरोधी तथा राष्ट्रद्रोही कौन का स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया।' तथा कहा कि वे जन 'राष्ट्रीय' कहे जाएंगे। (देखें गुरुजी समग्र दर्शन, भाग चार, पृष्ठ 161) उन्होंने स्पष्ट बतलाया कि भारतीयकरण का अर्थ हिन्दू होना नहीं है। उन्होंने कहा 'भारत के अल्पसंख्यकों को अपनी पृथकता की बात न करते हुए राष्ट्र जीवन में समरस होना चाहिए।' (देखें श्री गुरुजी समग्र दर्शन, भाग पांच, पृ. 38)
एकात्म मानववाद के जनक, महान राष्ट्र चिंतक श्री दीनदयाल उपाध्याय ने, स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्य धारा से जोड़ने की बात की। उन्होंने मजहब या किसी भी ढंग से उपासना को किंचित भी बाधा नहीं माना। उनके चिंतन का निष्कर्ष था कि मुसलमानों को न पुरस्कृत करें न तिरस्कृत करें, बल्कि उनका परिष्कार करें। साथ ही यह भी कहा कि मुसलमानों को न वोट मण्डी का माल और न ही कोई घृणा की वस्तु समझें।
भारतरत्न डा. बी. आर. आम्बेडकर न केवल भारतीय संविधान के निर्माता ही थे, अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया' में उनके अनुसार मुसलमान की स्थायी रुचि मजहब में है, वे न ही सेकुलरवाद को मानते है और न ही प्रजातंत्र को। डॉ. आम्बेडकर इस्लाम के मतान्ध, असहिष्णु, मजहबी तथा गैर सेकुलरवादी बतलाते हैं। उन्होंने गांधीजी के हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रयासों को 'महानतम भ्रम कहा' उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि इस्लाम में राष्ट्रवाद का कोई चितंन नहीं है, इस्लाम में राष्ट्रवाद की अवधारणा ही नहीं है तथा वह राष्ट्रवाद को तोड़ने वाला मजहब है। डॉ. आम्बेडकर ने एक परिष्कृत हिन्दू राष्ट्रवादी के रूप में, देश के नेताओं से मुस्लिम तुष्टीकरण की बजाय मुस्लिम राजनीति के साम्प्रदायिक चरित्र की विस्तृत चर्चा करने को कहा है। भारतीय मुसलमानों को यहां की मुख्यधारा से जोड़ने में दो विशिष्ट भारतीय कम्युनिस्टों श्री राहुल सांकृत्यायन (1893-1963) तथा डॉ. राम विलास शर्मा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विश्व प्रसिद्ध राहुल सांकृत्यायन कभी घुमक्कड़ यात्री तो कभी कम्युनिस्ट प्रचारक के रूप में जाने जाते हैं। वे 36 भाषाओं के ज्ञाता तथा लगभग 150 पुस्तकों के रचयिता थे। वे पहले वैष्णव, फिर आर्यसमाजी, फिर बौद्ध, फिर मार्क्सवादी तथा अन्त में हिन्दुत्ववादी हो गए थे। स्वतंत्रता के पश्चात आज भी भारतीय कम्युनिस्ट उनकी पहचान को छिपाते हैं (विस्तार के लिए देखें, सुधीश पचौरी, 'राहुल सांकृत्यायन की राष्ट्रीय पहचान' राष्ट्रीय सहारा,16 फरवरी, 1993) राहुल जी कांग्रेस की समझौतापरस्ती तथा ढुलमुल नीति का सजीव चित्रण करते थे। (देखें, चन्द्रभानु सिंह मिश्र द्वारा अप्रकाशित शोध ग्रन्थ सांकृत्यायन की इतिहासदृष्टि पृ. 72) मृ्त्यु से पूर्व उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन मुम्बई में अध्यक्षीय भाषण में कहा था, नवीन भारत ऐसे मुसलमानों को चाहेगा जो अपने मजहब को मानते हों, लेकिन जिनकी वेशभूषा, भाषा और खानपान में दूसरे भारतीयों से फर्क न हो। अत: संक्षेप में वे पहचान के चिह्नों को एक बनाकर राष्ट्र, समाज बनाने की बात कर रहे थे। और इसी कथन के कारण उनको कम्युनिस्ट दल से निकाल दिया गया था। आश्चर्य यह है कि निकालने में प्रमुख डॉ. रामविलास शर्मा थे। परन्तु डॉ. शर्मा इसके पश्चात सदैव अपराधबोध से ग्रसित रहे। राष्ट्रीयता का भाव स्पष्ट था कि सब भारतीयों के नाम एक से होने चाहिए। आज भी रूस, चीन में नाम के आधार पर पहचान सम्भव नहीं है, यदि रूस में रशीद का नाम रशीनीव हो गया है। चीन में इस्लामी नाम रखने की मनाही है। तो क्या भारत का मुसलमान भारतीय नाम नहीं रख सकता! वह अपनी भाषा, हिन्दी या कोई अन्य क्षेत्रीय भाषा नहीं अपना सकता।
महत्वपूर्ण मुद्दे
मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में ईमानदारी से प्रयासों की नितांत तथा शीघ्र आवश्यकता हैं, सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव की आवश्यकता है। मुस्लिम मदरसे आज भी मध्ययुगीन रूढि़वादिता के स्मारक बने हुए हैं। भारत में तेजी से आगे परिवर्तनों में इन आकड़ों के आधार पर स्पष्ट ये दिखलाई देता है। (विस्तार के लिए देखंे-सैयद इकबाल हसनेन का लेख 'वी डू नीड सम एजुकेशन' टाइम्स ऑफ इंडिया 8 नवम्बर, 2005 महिलाओं की शिक्षा की कमी तो अत्यन्त चिंता का विषय है। आवश्यक है कि मदरसों को आधुनिक ज्ञान विज्ञान से सुसज्जित किया जाय। यही बात भाषा के सन्दर्भ में कही जा सकती है। (आज भी कुछ प्रांतों में क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से वशीभूत ही कुछ रेखा तक ऊर्दू भाषा के ढोल पीटते दिखलाई देते हैं जबकि मुस्लिम घरों में युवा पीढ़ी न उर्दू लिखना जानती है और न पढ़ना ही। वैसे भी मुस्लिम समाज पहले से ही मुल्ले मौलवियों तथा उलेमाओं से भयग्रस्त रहा है। ताज्जुब है कि जब तुर्की जैसे मुस्लिम देश में कुरान तुर्की भाषा में बोली जाती है, भारत जैसे देश में अरबी में कही जाती है जिसके जानने वाले 11 प्रतिशत से अधिक को जरा भी जानकार नहीं है। दाराशिकोह ने बहुत पहले ही कहा था 'बहिस्त उसी जगह है जहां मुल्ले और मौलवी नहीं हैं और जहां उनका शोर सुनाई नहीं देता। देखें, द्वाराशिकोह की सिरे अकबर) आज भी अल्लाह, शरीयत तथा सेकुलरवाद की आड़ में वे राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ने वाले तत्वों को वन्देमातरम्, ईश्वर प्रार्थना आदि से स्वयं को अलग करते हैं। उनके फतवे अर्थहीन बयानबाजी बन जाते हैं। मुस्लिम नेतृत्व की चुप्पी तथा हिचकिचाहट का यह परिणाम है। आवश्यक है कि मुसलमानों का प्रगतिशील नेतृत्व आगे आए।
सही बात है कि कठमुल्ले तथा मौलवियों ने मुसलमानों के सामाजिक जीवन को दूसरे दर्जे का तथा नारकीय बना दिया है। इस्लाम में मुस्लिम महिला सर्वाधिक उत्पीड़न का शिकार है। वे बहुविवाह प्रथा इच्छानुसार तीन तलाक प्रथा से पीडि़त, व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित, सम्पत्ति के अधिकार से हीन, आदि बैबसी, लाचारी तथा घुटन में जकड़ी हुई हैं। भारत की तुलना में पाकिस्तान तथा बंगलादेश में महिलाओं को पर्याप्त सुविधाएं हैं।
यह भी विचारणीय है कि मुस्लिम नेतृत्व के नाम पर हमें केवल सर सैयद अहमद खां अल्वामा इकबाल तथा मोहम्मद अली जिन्ना ही क्यों याद आते हैं जो भारत के विभाजन के उत्तरदायी हैं? भारत में अमीर खुसरो, रहीम, जायसी, रसखान तथा नजीर अकबरावादी जैसे नेता भी हुए हैं। जिन्होंने भारत की राष्ट्रीयता को मुखरित किया। वर्तमान में मोहम्मद करीम छागला, असगर अली, मौलाना वहीदुद्दीन, मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे व्यक्ति भी हुए हैं। जिन्होंने इस देश की जड़ों को मजबूत किया। न्यायाधीश छागला तो अब तक गर्व से कहते हैं मेरा मजहब मुस्लिम तथा कौम हिन्दू है।
अत: समय की मांग है कि देश के पढ़े लिखे हिन्दू तथा मुसलमान युवक युवतियां आगे आएं तथा हिन्दू के 'ह' और मुस्लिम के 'म' का 'हम' बनाएं और देश को सौहार्द और एकता से शक्तिशाली बनाएं।
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