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नारद जयंती (6 मई) पर विशेष-
संकटग्रस्त मीडिया के लिए संजीवनी
श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 26वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन वृक्षों में मैं पवित्र पीपल का वृक्ष हूं और ऋषियों में मैं श्रेष्ठ नारदमुनि हूं। वीणा के आविष्कारक और कुशल मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले नारदमुनि को तथाकथित प्रगतिवादी और सेकुलर बुद्धिजीवी केवल मात्र विवाद का पर्याय मानते हैं और नारद जयंती के आयोजन को मीडिया के भगवाकरण का प्रयास। इस आयोजन के देशभर में अधिक लोकप्रिय होने और बढ़ते प्रभाव को देखकर जहां समानान्तर मीडिया ने नारद जैसे दार्शनिक और दिव्य संत को सामयिक एवं प्रासंगिक स्वीकार किया है। उससे भी तथाकथित प्रगतिवादी और सेकुलर चिंतित दिखाई पड़ रहे हैं। सप्त ऋषियों और प्रजापतियों में परिगणित नारद गंदर्भों के भी प्रमुख माने जाते हैं और दिव्य संगीत के पुरोधा भी। नारद को हास्य चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है अथवा केवल देवताओं और असुरों के साथ गप्प लगाने और उन्हें आपस में लड़ाने के यत्नकर्ता के रूप में दिखाया जाता है।
वास्तव में नारदजी का एकमात्र उद्देश्य विश्व कल्याण है। अच्छाई और बुराई के बीच यदि द्वंद्व भी हो तो वह भी चलेगा। जनहित के लिए नारद तीनों देवों बह्मा, विष्णु और शिव से मंत्रणा कर उचित सलाह देने भी समर्थ दिखायी पड़ते हैं।
स्वयं जगत के स्वामी कृष्ण नारद का महिमागान करते हैं- 'जो ब्रह्माजी की गोद से प्रकट हुए हैं, जिनके मन में अंहकार नहीं है, जिनका विश्व-विख्यात चरित्र किसी से छिपा नहीं है, जिनमें अरति (उद्वेग), क्रोध, चपलता व भय का सर्वथा अभाव है, जो धीर होते हुए भी दीर्घसूत्री (किसी कार्य में अधिक विलंब करने वाले) नहीं हैं, जो कामना या लोभवश झूठी बात मुंह से नहीं निकालते, जो अध्यात्म गति के तत्व को जानने वाले, ज्ञानशक्ति संपन्न तथा जितेन्द्रिय हैं, जिनमें सरलता भरी है और जो यथार्थ बात कहने वाले हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूं।' वे आगे कहते हैं, 'जो तेज, यश, बुद्धि, विनय, जन्म तथा तपस्या- इन सभी दृष्टियों से बड़े हैं, जिनका स्वभाव सुखमय, वेश सुन्दर तथा भोजन उत्तम है, जो प्रकाशमान, शुभदृष्टि-संपन्न तथा सुन्दर वचन बोलने वाले हैं, जो उत्साहपूर्वक सबका कल्याण करते हैं, जिनमें पाप का लेश मात्र भी नहीं है, जो परोपकार करने से कभी अघाते नहीं, जो सदा वेद, स्मृति व पुराणों में बताये हुए धर्म का आश्रय लेते हैं तथा प्रिय-अप्रिय से रहित हैं, जो खान-पान आदि भोगों में कभी लिप्त नहीं होते, जो आलस्य रहित तथा बहुश्रुत ब्राह्मण हैं, जिनके मुख से अद्भुत बातें – विचित्र कथाएं सुनने को मिलती हैं, जिन्हें धन के लोभ, काम, या क्रोध के कारण भी पहले कभी भ्रम नहीं हुआ है, जिन्होंने इन तीनों दोषों का नाश कर दिया है, जिनके अंत:करण से सम्मोहन रूप दोष दूर हो गया है, जो कल्याणमय भगवान व भागवत धर्म में दृढ़ भक्ति रखते हैं, जिनकी नीति बहुत उत्तम है, तथा जो संकोची स्वभाव के हैं, जो समस्त संगों से अनासक्त हैं, जिनके मन में किसी संशय के लिए स्थान नहीं है, जो बड़े अच्छे वक्ता हैं, जो किसी भी शास्त्र में दोष-दृष्टि नहीं करते तथा तपस्या का अनुष्ठान ही जिनका जीवन है, जिनका समय भगवत-चिंतन के बिना कभी व्यर्थ नहीं जाता और जो अपने मन को सदा वश में रखते हैं, उन श्री नारदजी को मैं प्रणाम करता हूं।'
जिन्होंने तप के लिए श्रम किया, जिनकी बुद्धि पवित्र एवं वश में है, जो समाधि से कभी तृप्त नहीं होते, अपने प्रयत्न में सदा सावधान रहते हैं, जो अर्थलाभ होने से हर्ष नहीं मानते व हानि से क्लेश का अनुभव नहीं करते, जो सर्वगुणसंपन्न, दक्ष, पवित्र, कातरता रहित, कालज्ञ व नीतिज्ञ हैं, उन देवर्षि नारदजी को मैं भजता हूं। -के.जी. सुरेश
ज्ञान के चरम हैं नारद
ज्येष्ठ सुदी द्वितीया को नारद जयन्ती होती है, जो इस बार 6 मई को है। पिछले कई वर्षों से राष्ट्रवादी लोग इस दिन को पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाते हैं। नारद सृष्टि के पहले संवाददाता माने जाते हैं। हिन्दी फिल्मों और सेकुलर विमर्शकारों द्वारा उन्हें नकारात्मक चरित्र और लोगों के बीच में मनमुटाव और लड़ाई करने वाले के रूप में चित्रित किया जाता है। इसलिए कई बार ऐसे ही लोग नारद जयन्ती के आयोजनों पर अपनी भौहें तनते हैं। जबकि वास्तविक तथ्य यह है कि नारद एक दार्शनिक, कानून बनाने वाले और एक कुशल सम्प्रेषक हैं। इसीलिए शायद सत्य और धर्म की विजय के प्रतीक नारद को भारत के पहले हिन्दी समाचार पत्र '_उदन्तमार्तण्ड' ने अपने मुखपृष्ठ पर छापा और इसका लोकार्पण नारद जयन्ती के दिन ही किया। नारद आज भी प्रासांगिक हैं, न केवल अपने सार्थक सम्प्रेषण के लिए, बल्कि कुशल शासन और आम व्यक्ति के साथ बंधुत्व भाव के लिए। सीधा अर्थ यह है कि एक व्यक्ति, जो ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहंुच जाए वही नारद है। नारद की उपस्थिति दो इतिहास ग्रंथों के निर्माण में प्रत्यक्षत: दिखाई पड़ती है। रामायण तभी लिखी गई जब नारद राम कथा लिखने के लिए एक परिपूर्ण व्यक्ति की खोज में निकले थे और वाल्मीकि को तमसा नदी के किनारे उन्होंने मर्यादापुरुषोत्तम का चरित्र चित्रित कर रामायण लिखने की प्रेरणा दी। नारद ने वाल्मीकि को कथा पर ध्यान केन्द्रित कर एकाग्र होने का वातावरण उपलब्ध कराया।
महाभारत में भी धर्म का सारा मर्म कहीं न कहीं नारद की पद्धति को उद्घाटित करता है। नारद महाराज युधिष्ठिर की राजसभा में उपस्थित हुए थे और उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर को पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का पूर्ण ज्ञान प्रदान किया था। भारतीय परम्परागत साहित्य में भी कहीं न कहीं किसी अध्याय में नारद द्वारा प्रतिपादित स्वधर्म, तंत्र, विधान, राजस्व प्राप्ति, शिक्षा, उद्योग इत्यादि पर उनके दर्शन का प्रभाव पाते हैं। नारद विशेष रूप से सुराज पर भी युधिष्ठिर से मंत्रणा करते हुए भी दिखाई पड़ते हैं। वे धर्मराज से पूछते हैं कि क्या तुम धर्म के साथ अर्थ-चिन्तन पर भी विचार करते हो? सामाजिक विकास और कृषि की स्थिति क्या है? क्या तुम्हारे साम्राज्य में सभी किसान समृद्ध और सन्तुष्ट हैं? क्या तुमने अभावग्रस्त किसानों के लिए ऋण सुविधा उपलब्ध कराई है? नारद प्रशासनिक ढांचे पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं। वे मंत्रियों और अधिकारियों के चयन की प्रकृति, उनके चरित्र और सामाजिक प्रतिबद्धता के आवश्यक मानकों पर भी चर्चा करते हैं। नारद नागरिकों के रहन-सहन के जीवन स्तर, उनकी भावनाओं और पारिवारिक दायित्वों के विषय को भी उठाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नारद हमेशा धर्म के प्रचार और नागरिकों के कल्याण के लिए तत्पर दिखाई देते हैं। महाभारत के आदि पर्व में नारद के पूर्ण चरित्र को वेदव्यास ने इस श्लोक में व्यक्त
किया है-
अर्थनिर्वाचने नित्यं, संशयचिदा समस्या:।
प्रकृत्याधर्मा कुशलो, नानाधर्मा विशारदा:।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नारद एक महान विचारक और 'नारद स्मृति', 'नारद भक्ति स्तोत्र' आदि की रचना करने वाले ग्रंथकार हैं। नारद तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले, संवाद करने वाले और सारे विवादों को मिटाने वाले संन्यासी हैं। हम सबको नारद के इस विराट स्वरूप को ही स्वीकार करना चाहिए। -जे. नन्द कुमार
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