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डॉ. भरत झुनझुनवाला
उत्तराखण्ड के पहाड़ों का क्रोध अभी कम नहीं हुआ है। आये दिन पहाड़ दरक रहे हैं। इस वर्ष भी चारधाम यात्रा के हल्का रहने की सम्भावना है। दो वर्ष पूर्व जिन कारणों से आपदा आयी थी वे आज भी वैसे ही खड़े हैंं। 2013 की आपदा प्राकृतिक नहीं थी। केदारनाथ क्षेत्र में वर्षा सामान्य से अधिक थी, परन्तु असामान्य नहीं थी। सामान्य वर्षा से तात्पर्य उस अवधि में पिछले कई वषार्ें में औसत वर्षा से होता है। परन्तु वर्षा कभी भी औसत के अनुसार नहीं बरसती है। केदारनाथ में तब हुई वर्षा को असामान्य कहा जाता यदि पूर्व के 20-25 वषार्ें के अधिकतम से अधिक वर्षा होती।
वास्तव मे आस-पास के अन्य इलाकों की तुलना में यहां वर्षा कम हुई थी। मौसम विभाग के आंकड़ों के अनुसार 16 से 18 जून, 2013 की अवधि में 6 प्रभावित जिलों में वर्षा 59 से 160 मिलीमीटर प्रतिदिन के बीच हुई थी। दूसरे जिलों में इससे बहुत जादा वर्षा हुई थी। कुमाऊं के छह स्थानों एवं गढ़वाल के दो स्थानों पर वर्षा 173 से 237 मिलीमीटर प्रतिदिन हुई थी। ये आंकड़े बताते हैं कि केदारनाथ में वर्षा सामान्यप्राय: थी। तब आपदा से राहत दिलाने में टिहरी बांध की अहम् भूमिका बताई जा रही है। उस समय टिहरी झील का जलस्तर काफी नीचा था। चूंकि यह स्थिति मानसून आने के पहले की थी ऐसे में भागीरथी और भिलंगना नदियों का जल टिहरी में समा गया। सही है कि यदि टिहरी झील खाली न होती तो ऋषिकेश और हरिद्वार में पानी का स्तर ऊंचा होता।
आपदा का मूल कारण था कि हमारी सरकारों ने असंवेदनशील तरीके से सड़क और हाइड्रोपावर योजनायें बनाई हैंं। प्रसिद्ध भूगर्भ वैज्ञानिक के एस. वाल्दिया के अनुसार, इस क्षेत्र की चट्टानें नरम हैंं। इनमें दरारें पड़ी हुई हैं। हल्के से वार से ये दरकने लगती हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ डिजास्टर मैनेजमेंट के अनुसार, पूर्व के भूकम्पों ने इस क्षेत्र के पहाड़ों को हिला दिया था जिससे सामान्यप्राय: वर्षा से ही ये दरकने लगे। उत्तराखण्ड के डिजास्टर मिटिगेशन एण्ड मैनेजमेंट सेंटर के अनुसार सड़क निर्माण के लिये प्रयोग हो रहे विस्फोटकों के कारण पहाड़ ज्यादा गिरे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर स्थापित विशेषज्ञ दल ने कहा है कि ज्यादातर नुकसान अलकनन्दा एवं मंदाकिनी पर बन रही जल विद्युत परियोजनाओं के ऊपर और नीचे हुआ है।
मंदाकिनी पर बन रहीं दो परियोजनाओं में 15 से 20 किलोमीटर की सुरंगें निर्माणाधीन थीं। ये परियोजनायें केदारनाथ के ठीक नीचे हैंं। इन सुरंगों को बनाने के लिये भारी मात्रा में विस्फोटों का प्रयोग किया गया था। उन्होंने पहाड़ों के जोड़ खोल दिये और ये पहाड़ दरक गये। सड़कों और इन परियोजनाओं द्वारा किये गये विस्फोटों से केदारनाथ में तबाही मची थी। पहाड़ हिल गये थे। सामान्य वर्षा में ये दरकने लगे। बड़े पत्थर और पेड़ों के लट्ठे मंदाकिनी में गिरने लगे। परन्तु मंदाकिनी इन्हें बहाकर नीचे नहीं ले जा सकी चूंकि उसका रास्ता फाटा व्यूंग तथा सिंगोली भटवाडरी परियोजनाओं के बांधों ने रोक रखा था। फाटा व्यूंग में बराज के ऊपर से और सिंगोली भटवारी में बराज के किनारे को काटती हुयी मंदाकिनी बहने लगी। नदी का वेग कम होने से ये पत्थर और लट्ठे नदी के पाट में जमा होने लगे। नदी का जलस्तर ऊंचा होने लगा। फाटा के पीछे मंदाकिनी पर बना पुल डूब गया। लोग नदी को पार नहीं कर पाये और दूसरी तरफ वीरगति को प्राप्त हुये। सिंगोली भटवारी के नीचे नदी का स्तर ऊंचा होने से किनारे पर स्थित चंद्रपुरी जैसे गांव नदी में समा गये।
सड़क निर्माताओं तथा हाइड्रोपावर परियोजनाओं के द्वारा भारी मात्रा में मलबे को नदी में डाला जा रहा था। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इन्हें स्वीकृति इसी शर्त पर दी जाती है कि मलबे को नदी के किनारे डालने से पहले पत्थर की पुख्ता दीवार बनाई जायेगी जिसे तार और जाली से कसा जायेगा। परन्तु इन शतार्ें को लागू कराने में मंत्रालय की जरा भी रुचि नहीं दिखी थी। फलस्वरूप दीवारें कमजोर बनाई गईं। इस कारण नदी में किनारे पर भारी मात्रा में पड़ा मलबा बहने लगा। पहाड़ों से दरके पत्थऱों और लट्ठों के साथ इस मलबे ने आग में घी का काम किया।
मलबे को लेकर नदी ऊंची बहने लगी। श्रीनगर के नीचे सैकड़ों घरों में मलबा घुस गया। पाया गया कि इस मलबे में 23 से 46 प्रतिशत मलबा श्रीनगर जलविद्युत परियोजना द्वारा डाला गया था। यदि पर्यावरण मंत्रालय और उत्तराखण्ड सरकार ने मलबे के निस्तारण की सुध ली होती तो निरीह जनता इसका खामियाजा न भुगतती।
हादसे में न्यायपालिका की भी भूमिका दिखी। कई वर्ष पूर्व हमने 'ग्रीन ट्राइब्यूनल' में याचिका दायर करके मंदाकिनी नदी में मलबे के निस्तारण पर रोक लगाने की गुजारिश की थी परन्तु 'ट्राइब्यूनल' ने याचिका सुनने से इनकार कर दिया क्योंकि उसी तरह की याचिका उत्तराखंड उच्च न्यायालय में लंबित थी। बाद में न्यायालय ने उस याचिका को 'ट्राइब्यूनल' को भेज दिया। इस प्रक्रिया में तीन वर्ष लगे। तब तक आपदा आ गई।
इसी प्रकार श्रीनगर परियोजना द्वारा मलबे के निस्तारण हेतु हमने 'ग्रीन ट्राइब्यूनल' में याचिका डाली थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अपने पास स्थानान्तरित कर लिया। फिर एक समिति बनाने का निर्देश दिया और उसकी फर्जी रिपोर्ट के आधार पर श्रीनगर परियोजना के विरुद्धकोई कार्रवाई नहीं की। यही मलबा आपदा में हजारों की जान ले गया। यदि सरकार और न्याय पालिका सजग होती तो यह आपदा नहीं आती।ल्ल
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