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कारनामा-फ्रांसिस जेवियर का सच:औरंगजेब सा काम, दिया संत का नाम

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Apr 28, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Apr 2015 11:40:03

सतीश पेडणेकर
ईसा मसीह के बारे में कहा जाता है कि वे 'मानवता के पाप धोने के लिए' सूली चढ़ गए। लेकिन संतई पाए उनके कई अनुयायी ऐसे हुए जो अपने काम से किसी बर्बर से कम नहीं थे। वे उन लोगों को सूली चढ़ाते रहे जिन्होंने ईसा के रास्ते पर चलने से मना कर दिया था। वे लोगों को जबरन ईसा के रास्ते पर चलाना चाहते थे। वे उन सब पूजा स्थलों को तोड़ते रहे जहां ईसा की मूर्ति नहीं थी, उन मूर्तियों को तोड़ते रहे जो ईसा की नहीं थीं। जो ईसाई नहीं बने या जो ईसाई बनने के बाद कभी-कभी पुरानी उपासना पद्धति की रस्में निभाने की गलती कर बैठे, उनके लिए उन्होंने 'दंड' (इंक्विजीशन) का प्रावधान किया था-यानी घोर यातनाएं, जिनमें सैकड़ांे जानें गईं। ऐसा ही 'संत' के वेष में बर्बर काम करने वाला व्यक्ति पुर्तगाल से भारत के गोवा में प्रकट हुआ था। नाम था 'सेंट' थॉमस। यानी वह जिसके नाम पर सैकड़ों शिक्षण संस्थान भारत में चलाये जा रहे हैं। वही है फ्रांसिस जेवियर। अंग्रेजी कैलेंडर में 3 दिसम्बर का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। इस दिन हजारों लोग पुराने गोवा में स्थित चर्च बेसिलिका ऑफ बर्न जीसस पहुंचते हैं, जहां फ्रांसिस जेवियर समारोह मनाया जाता है। चर्च में जेवियर के अवशेष रखे हुए हैं। एक स्पेनिश मिशनरी ने जेवियर को 'गोवा का संत' मनोनीत किया था। 3 दिसम्बर को यहां सामूहिक भोज होता है, लेकिन जिसने भी गोवा का इतिहास पढ़ा है वह जानता है कि फ्रांसिस जेवियर 'संत' तो कतई नहीं था।
सवाल उठता है कि ऐसे हिन्दू विरोधी और दंड के नाम पर हिन्दुओं और ईसाइयों को प्रताडि़त करने वाले व्यक्ति को 'संत' क्यों कहा जाता है? उसके नाम पर इतना बड़ा समारोह क्यों? उसकी स्मृति में इतने शैक्षणिक संस्थान क्यों चलाए जाते हैं?
कभी-कभी तो उसकी तुलना मुगल आक्रांता औरंगजेब से करने में कुछ गलत नहीं दिखता, जिसका प्रिय शगल था हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ना, कन्वर्जन करना। उसका एक बयान काफी मशहूर है-'जब सभी का कन्वर्जन हो जाए तो मेरा आदेश है कि झूठे भगवान के मंदिर गिरा दिए जाएं और मूर्तियां तोड़ दी जाएं। जो कल तक उनकी पूजा करते थे उन्हीं लोगों द्वारा मंदिर गिराए जाने तथा मूर्तियों को चकनाचूर किये जाने के दृश्य को देखकर मुझे जो प्रसन्नता होती है उसको शब्दों में बयान नहीं कर सकता'।
16वीं-17वीं शताब्दी का कालखण्ड भारत के हिन्दुओं के लिए अत्यंत दुष्कर था जब मुसलमान और ईसाई शासक हिंदुओं पर कहर बरपा रहे थे। एक तरफ उत्तर में औरंगजेब था तो दूसरी तरफ दक्षिण में सेंट फ्रांसिस। सोलहवीं सदी में रोमन कैथोलिक चर्च का पुर्तगाली साम्राज्यवाद के साथ भारत में प्रवेश हुआ। पंथ और राजसत्ता का विचित्र घालमेल हो गया था। गैर ईसाइयों का शोषण, बलात् कन्वर्जन पुण्य कर्म मान लिया गया। आध्यात्मिकता के विकास के बजाय येन-केन-प्रकारेण 'कन्वर्टेड' लोगों की संख्या बढ़ाना ही लक्ष्य बन गया। जो ईसाई बनने को तैयार हो जाता था उसे तरह-तरह के पुरस्कार मिलते, जो नहीं बनता अथवा ईसाई बनने के बाद भी हिन्दू परंपराएं निभाता उसके लिए जेवियर की प्रेरणा से गोवा में 'इंक्विजीशन' की स्थापना हुई जिसमें सैकड़ों लोगों को तरह तरह की यातनाएं दी जाती थीं। इसमें सैकड़ांे की जानें गईं,अनगिनत विकलांग हो गए।
फ्रांसिस जेवियर ने भी भारत आने के बाद एक ईश्वरवादी पंथों के मूर्तिभंजन के जुनून के तहत गैर ईसाइयों के पूजास्थल तोड़ने की परंपरा का पालन किया। अक्तूबर,1542 में जेवियर कोरमंडल के मोती-मछली तट पर उतरे थे, जहां पुर्तगालियों का आधिपत्य था। ़इस तट पर 'परवा' जाति के मछुआरे रहा करते थे जिन्होंने दबाव में आकर ईसाई बनना तो स्वीकार कर लिया था किन्तु व्यवहार में वे हिन्दू ही रहे थे। वे मूर्तियां बनाते थे, उनकी पूजा भी किया करते थे। जेवियर ने उन पर ऐसे-ऐसे जुल्म किये जिसकी मिसाल दिल दहला देती है। ईसाई इतिहासकारों ने जेवियर के अत्याचारों का खुलासा किया है। उनके अनुसार जेवियर को जब भी किसी व्यक्ति के बारे में मूर्तियां बनाने या मूर्ति-पूजन की जानकारी मिलती थी तो वह स्वयं वहां जाकर उन्हें तुड़वा देते थे। यदि उसके बाद भी कोई ईसाई मूर्तियां बनाने का कार्य जारी रखता था तो जेवियर उस व्यक्ति को गांव छोड़कर जाने को बाध्य कर देते थे। एक दिन जेवियर को किसी घर में मूर्ति-पूजा की सूचना मिली तो उनके आदेश से उस झोपड़ी को जला दिया गया ताकि दूसरों को सबक मिल सके।
जेवियर ने कोरामंडल तट पर किये गए अपने अत्याचार की कहानी मालाबार में भी दुहराई। उस अभियान में रोम द्वारा नियुक्त वाइकार जनरल ऑफ इंडिया मिंगुएल वाज भी शामिल था। जेवियर की प्रेरणा से उसने नवम्बर 1945 में पुर्तगाल के राजा को एक पत्र भेजा और ईसाई मत प्रचार और कन्वर्जन को कामयाब बनाने के लिए 41 सूत्रीय कार्यक्रम का प्रस्ताव किया जिसके तहत मूर्तियां बनाने और मूर्ति-पूजा को गैर-कानूनी करार कर दिया गया। इसका उल्लंघन करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान कर दिया गया। इस कानून के तहत हजारों मंदिर गिराए गए। साल्सेट में 230 हिन्दू मंदिर, वार्देज में 300 मंदिर तथा बासीन, बान्द्रा,ठाणे, मुंबई आदि स्थानों पर अनगिनत मन्दिर ध्वस्त किये गए। मिशनरी रिकॉर्ड के अनुसार, बहुत से बड़े मंदिरों को चर्च में परिवर्तित कर दिया गया। यहां तक कि घरों के अन्दर रखी मूर्तियां भी गैर कानूनी घोषित कर दी गई थीं तथा उसके लिए भी कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान था।

जैसी कि कैथोलिक परंपरा रही है, जेवियर ने कन्वर्जन के लिए जबरदस्ती, छल-कपट, लालच देने में कोई परहेज नहीं किया। ब्राह्मणों से उसकी खास दुश्मनी थी, क्योंकि उन पर गोवा की आम जनता बहुत विश्वास करती थी। वे लोगों के ईसाई बनने में सबसे बड़ी बाधा थे। इसलिए जेवियर ने ब्राह्मणों को खास तौर पर निशाना बनाया, उन पर हर तरह के अत्याचार करवाए तथा अनेक को मौत के घाट उतरवा दिया। एक ईसाई इतिहासकार ने लिखा है कि पुर्तगालियों ने भारत में अपने कब्जे के हिस्से में क्या क्या किया। टी. आर. डिसूजा के मुताबिक 1540 के बाद गोवा में सभी हिन्दू मूर्तियों को तोड़ दिया गया था या गायब कर दिया गया था। सभी मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे और उनकी जगह और निर्माण सामग्री नए चर्च या चैपल बनाने के लिए इस्तेमाल की गई। कई शासकीय और चर्च के आदेशों में हिन्दू पुरोहितों के पुर्तगाली क्षेत्र में आने पर रोक लगा दी गई थी। विवाह सहित सभी हिन्दू कर्मकांडों पर पाबंदी थी। हिन्दुओं के अनाथ बच्चों को पालने का दायित्व राज्य ने अपने ऊपर ले लिया था ताकि उनकी परवरिश ईसाई की तरह की जा सके। कई तरह के रोजगारों में हिन्दुओं पर पाबंदी लगा दी गई थी, जबकि ईसाइयों को नौकरियों में प्राथमिकता दी जाती थी।
राज्य द्वारा यह सुनिश्चित किया गया था कि जो ईसाई बने हैं उन्हें कोई परेशान न करे। दूसरी तरफ हिन्दुओं को चर्च में अपने ही धर्म की आलोचना सुनने आना पड़ता था। ईसाई मिशनरियां गोवा में सामूहिक कन्वर्जन करती थीं। इसके लिए सेंट पॉल के कन्वर्जन भोज का आयोजन किया जाता था। उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाने के लिए जेसुइट हिन्दू बस्तियों में अपने नीग्रो गुलामों के साथ जाते थे। इन गुलामों का इस्तेमाल हिन्दुओं को पकड़ने के लिए किया जाता था। ये नीग्रो हिन्दुओं को पकड़कर उनकेमुंह से गाय का मांस छुआ देते थे। इससे वह हिन्दू अपने लोगों के बीच अछूत हो जाता था। तब उसके पास ईसाई मत में कन्वर्ट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता था। नतीजा यह हुआ कि पुर्तगाल के कब्जे वाले क्षेत्रों में कई तरह के हिन्दू विरोधी कानून बने। जैसे, 1. कन्वर्जन से बचने के लिए जो हिन्दू अपने परिवारों को पड़ोस के क्षेत्रों में भेज देते थे, उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली जाती थी। 2. हिन्दू रस्मों और समारोहों पर पाबंदी थी। 3. हिन्दू पुरोहितों और प्रचारकों पर पाबंदी थी। 4. हिन्दुओं के लिए जरूरी था कि चर्च में जाएं और प्रवचन सुनें। 5. अनाथ हिन्दू बच्चों का जबरन बप्तिस्मा किया जाता था। 6. हिन्दुओं के घोड़े पर बैठने और पालकी चढ़ने पर पाबंदी थी। 7. जो हिन्दू पुर्तगाली सीमा के अन्दर तीर्थ-यात्रा पर जाते थे या किसी अन्य प्रदेश में मंदिर-निर्माण हेतु दान आदि दिया करते थे उन्हें भी प्रताडि़त किया जाता था।
ऐसे सारे कानून इस तरह से बनाए गए थे ताकि हिन्दुओं को अपमानित किया जा सके। दूसरी तरफ ईसाइयत कबूल करने वालों को कई तरह की सुविधाएं दी जाती थीं। उदाहरणार्थ, उनका 15 साल के लिए लगान माफ कर दिया जाता था। गैर ईसाइयों के दासों को ईसाई बनते ही स्वतंत्र कर दिया जाता था। पैतृक संपत्ति में बीवी और लड़कियों को अधिकार तब ही मिलता था जब वे चर्च में शामिल हो जाती थीं। जो पुरुष बिना पुत्र के मरता था तो उसका निकटतम संबंधी अगर ईसाई बनता था तब उसे संपत्ति मिलती थी। जो पत्नी ईसाई बनती थी वह पति के जीवित रहते हुए भी संपत्ति के एक हिस्से पर दावा कर सकती थी। जिस आदमी के बेटे और बेटी ईसाई बनते थे तो वह पिता के जीवित रहते हुए भी एक तिहाई संपत्ति के अधिकारी बन सकते थे। ईसाई मत अपनाने वालों को सरकारी रोजगार में प्राथमिकता दी जाती थी।
भारत आने के बाद से ही जेवियर ने देखा था कि कन्वर्जन के बाद भी ये भारतीय, जिनमें हिन्दू, यहूदी, मुसलमान आदि शामिल थे, अपने पूर्व के मतों को ही मानते थे तथा चोरी-छिपे अपने मत के अनुसार ही पूजा या इबादत किया करते थे। जेवियर जानते थे कि चर्च के पास ऐसी स्थिति से निपटने के लिए इंक्विजीशन जैसा हथियार था, जिसके तहत ऐसे ईसाइयों को मौत तक की सजा दी जा सकती थी। अत: जेवियर ने पुर्तगाली राजा को इसके प्रयोग की भी सलाह दी। फ्रांसिस के रहते तो यह यातना दंड लागू नहीं हो पाया, लेकिन 1560 में गोवा में इंक्विजीशन लागू हुआ और 1812 तक जारी रहा फ्रांसीसी यात्री चार्ल्स डेलान इसके तहत 1674 से 1677 तक बंदी रहा था। उसने वहां दी जाने वाली यातनाओं का विस्तृत ब्यौरा दिया है। डॉ. क्लॉडीयस ने क्रिश्चियन रिसर्च में उसकी पुष्टि भी की है। उसे इंक्विजीशन का हाल, कैदियों के जुलूस और वह जगह देखने का मौका मिला था जहां लोगों को जिंदा जलाया जाता था। लेकिन कितने बंदियों को यातना दी गई या दंडित किया गया इसका आंकड़ा पता नहीं चल पाता, क्योंकि इसके दस्तावेज बाद में पुर्तगाल भेज दिए गए। कोई दस्तावेज प्रकाशित नहीं किया गया।
संभवत: यह एक विडम्बना नहीं वरन् चर्च का दर्शन ही है जिसके अनुसार संत या महात्मा वही होता है जो संसार में ईसाइयत का जाल बिछाने में सफल रहा हो, ईसा मसीह की भेड़ों की संख्या बढ़ाने तथा ईसाई साम्राज्यवाद को अधिक से अधिक विस्तृत कर सका हो। इसके बदले फ्रांसिस जेवियर को ईसाई समाज ने 'संत' की उपाधि दी थी और जिस किसी को संत की उपाधि दी जाती है उसके बारे में यह प्रचलित कर दिया जाता है कि उसके नाम की विशेष प्रार्थना करने से रोगी स्वस्थ हो जाते हैं, व्यापार में वृद्धि हो जाती है, कक्षा में छात्रों के अधिक अंक आते हैं, बेरोजगारों को रोजगार मिल जाता है। एक-दो व्यक्तियों के ऐसे चमत्कारी किस्से प्रचलित कर दिए जाते हैं जिससे आस्थावान जनता का विश्वास फ्रांसिस के संत होने पर जम जाये और दुकान चल निकले। लेकिन इस तरह के बर्बर कर्म करने वाले को 'संत' बनाकर वे अपने मत का नाम ही तो बदनाम कर रहे हैं!

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