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अंक संदर्भ: 5 अप्रैल, 2015
आवरण कथा 'किसकी खिसकी जमीन' अच्छी लगी। ये पंक्तियां बड़ी अच्छी लगीं कि 'संप्रग सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में ऐसे पेच फंसाए थे जिनसे किसानों का हित नहीं सध रहा था, बल्कि 'दामाद जी' जैसों के वारे-न्यारे हो रहे थे।' यह बात तर्क और साक्ष्यों के साथ आम लोगों को बताने की जरूरत है। साधारण किसान वही सच मान लेता है, जो सेकुलर मीडिया के जरिए उस तक पहुंचता है। मोदी सरकार को बहुत ही दमदारी के साथ बताना चाहिए कि उसके द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण विधेयक से किस तरह किसानों को लाभ होगा।
—गोपाल
गांधीग्राम, जिला-गोड्डा (झारखण्ड)
ङ्म केन्द्र में सरकार बदलने के बाद से 'दामाद जी' का जमीन से जुड़ा कारोगार ठप हो गया है। शायद यही कारण है कि पूरी कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक को किसान विरोधी बता कर हो हल्ला मचा रही है। उसके साथ वे विपक्षी दल भी हैं, जो पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी के सामने कहीं नहीं टिक पाए थे।
—वीणा पाठक
दिल्ली छावनी (दिल्ली)
ङ्म कांगेेस के नेता कह रहे हैं कि संप्रग सरकार ने 2013 में भूमि अधिग्रहण के लिए जो कानून बनाया था, वह किसान हितैषी था। जबकि मोदी सरकार कह रही है कि वह कानून किसान विरोधी था और अब जो विधेयक लाया गया है वह किसानों को लाभ देने वाला है। आखिर सच क्या है? नेताओं के शोर-शराबे में आम लोगों को किसी भी चीज की सही जानकारी नहीं मिल पाती है। सच दब जाता है। लोग किसको सही मानें और किसको गलत? लोग भ्रम में ही रह जाते हैं और नेताओं को जो करना होता है वह कर लेते हैं।
—उदय कमल मिश्र
सीधी (म.प्र.)
ङ्म किसान के लिए खेत केवल जमीन का एक टुकड़ा नहीं है। उसकी पूरी गतिविधि खेत के चारों ओर ही रहती है। उसका पूरा जीवन-चक्र खेती से ही जुड़ा रहता है। इसलिए किसान से खेत तभी लिए जाएं जब बहुत ही आवश्यक हो, लेकिन इसके बदले उसको पूरा मुआवजा मिलना चाहिए। एक बात और है कि उद्योग आदि लगाने के लिए सबसे पहले बंजर भूमि का अधिग्रहण क्यों नहीं किया जाता है? इससे लागत तो अवश्य कुछ बढ़ सकती है, लेकिन खेती की जमीन बची रहेगी। इतनी बड़ी आबादी के लिए खेतों को नहीं बचाएंगे तो एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि जब हमें आयातित अन्न पर निर्भर रहना पड़ेगा।
—शंकर तिवारी
लखनऊ (उ.प्र.)
विजय सत्य की ही होती है
इस लेख 'हाशिमपुरा से उघड़े सेकुलर' का सन्देश है कि सत्य कभी हारता नहीं है और झूठ अधिक दिन टिकता नहीं है। उल्लेखनीय है कि हाशिमपुरा मुसलमान-बहुल गांव है और मेरठ के पास है। 22 मई, 1987 को पीएसी की कार्रवाई में हाशिमपुरा के 40 मुसलमान मारे गए थे। आरोप था कि पीएसी ने मुसलमानों को मार कर गंग नहर में फेंक दिया था। न्यायालय ने आरोपी 16 पुलिसकर्मियों को बरी कर दिया है। अदालत के इस निर्णय पर मीडिया के धुरंधरों ने अनेक सवाल उठाए। लेकिन उन लोगों ने उस दौरान हुए मेरठ दंगे में किस प्रकार की बदमाशी हुई थी, उसकी चर्चा कभी नहीं की।
—संजय यादव
आगरा (उ.प्र.)
ङ्म हाशिमपुरा मामले में न्यायालय के फैसले पर सवाल उठाने वालों ने अपने पक्षपाती स्वरूप को ही उजागर किया है। सेकुलरवाद के नाम पर हल्ला मचाने वालों को लोग पहचानने लगे हैं और तथ्यों पर जोर देने लगे हैं। जो लोग हाशिमपुरा की 'माला' जप रहे हैं, वे गोधरा की चर्चा होते ही भागने क्यों लगते हैं? कुछ लोग सम्पूर्ण सनातन संस्कृति को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं। इन्हीं लोगों ने हल्ला करके 'म' से मन्दिर और 'ग' से गणेश पढ़वाना बन्द करवाया है। इन सबसे सावधान रहने की आवश्यकता है।
—मनोहर 'मंजुल'
पिपल्या-बुजुर्ग, पश्चिम निमाड़ (म.प्र.)
ङ्म हाशिमपुरा प्रकरण से एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि कुछ लोगों ने हिन्दुओं के विरुद्ध बोलने और मुसलमानों के साथ डटे रहने को ही सच्चा सेकुलरवाद मान लिया है। इस बात से उन लोगों को कोई मतलब नहीं है कि कौन सही है और कौन गलत। ऐसे लोगों को मेरी सलाह है कि चाहे जो भी गलत हो उसका विरोध करो और जो सही हो उसके साथ खड़े रहो। यही न्याय का तकाजा है।
—वीरेन्द्र जरयाल
शिवपुरी विस्तार, कृष्ण नगर (दिल्ली)
जगा हमारा स्वाभिमान
संस्कार भारती द्वारा दिल्ली के वजीराबाद स्थित यमुना तट पर नववर्ष के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम की रपट 'नववर्ष का अभिनन्दन' बहुत ही प्रेरक रही। इस रपट से हमारा स्वाभिमान जाग गया। हम भारतीय 1 जनवरी को नववर्ष मनाते हैं और एक-दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। अधिकांश भारतीयों को अपने नववर्ष (विक्रमी संवत्) के बारे में जानकारी ही नहीं है कि कब विक्रमी संवत् शुरू होता है और कब समाप्त। ऐसे कार्यक्रमों से भारतीय नववर्ष की प्रसिद्धि बढ़ेगी और लोग इसको मनाने के लिए आगे आएंगे। प्रख्यात नृत्यांगना श्रीमती सोनल मानसिंह का साक्षात्कार 'इस सुबह का संकल्प, संस्कारों को थामे रहें ' हमारे हृदय में नवसंचार और जोश भरने वाला रहा।
—कृष्ण वोहरा
जेल परिसर, सिरसा (हरियाणा)
ङ्म भारतीय नववर्ष (विक्रमी संवत्) के अवसर पर देशव्यापी कार्यक्रम होने चाहिए और इन कार्यक्रमों में ज्यादा से ज्यादा नवयुवकों को लाने का प्रयास करना चाहिए। नई पीढ़ी को बताना चाहिए कि भारतीय नववर्ष पूरी तरह वैज्ञानिक और प्राकृतिक है। भारतीय नववर्ष जिस दिन शुरू होता है उस दिन पूरा सनातन जगत शक्ति की देवी मां दुर्गा की आराधना करता है और यह आराधना पूरे नौ दिन तक चलती है। यानी हम अपने नववर्ष का स्वागत पूजा-पाठ से करते हैं, जबकि ईसाई नववर्ष के प्रारंभ में लोग दारू और मांस का सेवन करते हैं। यही नहीं जब भारतीय नववर्ष शुरू होता है तो पूरा वातावरण बदल जाता है। शीत ऋतु समाप्त होने लगती है और मन्द-मन्द वायु बहने लगती है। पेड़-पौधों में भी नए पत्ते आने लगते हैं। वातावरण सुगंधित हो उठता है। दूसरी ओर जब ईसाई नववर्ष प्रारंभ होता है, तो प्रकृति में कोई बदलाव नहीं दिखता है।
—दुबराज महतो
सिल्ली,रांची (झारखण्ड)
उत्साहवर्द्धक समाचार
गुजरात में भारत और पाकिस्तान की सीमा से लगे एक गांव में आयोजित कार्यक्रम की रपट 'सीमान्त गांव में शाखा का वार्षिकोत्सव' सुखद और उत्सावर्द्धक लगी। यह समाचार संघ के हर स्वयंसेवक के मनोबल को बढ़ाने वाला भी है। कितना अच्छा हो कि सारी सीमाओं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं लगें। इससे नागरिकों में सुरक्षा की भावना बढ़ेगी और भाईचारा भी बढ़ेगा।
—बी.एल. सचदेवा
263, आई.एन.ए. मार्केट (नई दिल्ली)
भगत सिंह कभी वामपंथी नहीं रहे
महान क्रांतिकारी बलिदानी भगत सिंह पर आधारित लेख 'बसंती चोले को लाल रंगने के चक्कर में वामपंथी' में बड़ी तथ्यात्मक जानकारी दी गई है। ऐसे अनेक तथ्य मौजूद हैं, जो चीख-चीख कर कह रहे हैं कि भगत सिंह का कभी भी वामपंथ से सम्पर्क नहीं हुआ था। इसके बावजूद कुछ वामपंथी सदैव यह बताने की कोशिश करते रहते हैं कि भगत सिंह वामपंथ से बड़े प्रभावित थे। तथ्यों से पता चलता है कि भगत सिंह के मानस पर स्वामी दयानन्द सरस्वती, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादियों को गहरा प्रभाव था। एक साधारण आदमी भी अनुमान लगा सकता है कि जिस व्यक्ति पर राष्ट्रवादियों का प्रभाव हो वह कभी भी वामपंथी नहीं बन सकता है।
—ब्रजेश श्रीवास्तव
आर्य समाज रोड, मोतीहारी (बिहार)
ङ्म भगत सिंह के बलिदान दिवस (23 मार्च) पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके जन्मस्थान 'हुसैनीवाला' जाकर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धांजलि देकर अनुकरणीय कार्य किया। आजादी के बाद इन क्रांतिकारियों की बड़ी अनदेखी हुई है। जिन लोगों ने आजादी में कोई भूमिका नहीं निभाई थी, उन्हें भी बड़े-बड़े पुरस्कार और सम्मान से नवाजा गया, लेकिन देश के लिए मर-मिटने वालों को सही से श्रद्धांजलि भी नहीं दी जा रही है।
—कृष्ण कुमार
अनाज मण्डी, कैथल (हरियाणा)
ङ्म जिन क्रांतिकारियों के बलिदान से हम स्वतंत्र हुए उन्हें हमने पूरी तरह बिसरा दिया है। भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों की तो देश के हर शहर में प्रतिमाएं लगनी चाहिए थीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कांग्रेस ने तो अपने कार्यकाल में नेहरू खानदान को ही सबसे अधिक महत्व दिया। सभी योजनाओं, भवनों, सड़कों, पुरस्कारों के नाम नेहरू, इन्दिरा, राजीव के नाम पर रखे गए। क्या इन लोगों ने क्रांतिकारियों से अधिक देश की सेवा की थी?
—सन्तोष भास्कर, सोनीपत (हरियाणा)
भाषाओं को निगलती अंग्रेेजी
29 मार्च के अंक में प्रसिद्ध मराठी लेखक पद्मश्री भालचन्द्र नेमाडे के साक्षात्कार 'हिन्दू कुटुम्ब को जाना, तो देश की जड़ों को जान लिया' का सार है कि अंग्रेजी के बिना भी वैचारिक श्रेष्ठता प्राप्त की जा सकती है। उन्होंने बिल्कुल सही कहा है कि अंग्रेजी सभी भाषाओं को निगलने वाली राक्षसी है। उन्होंने आस्ट्रेलिया का उदाहरण देते हुए कहा है कि कभी वहां लगभग 600 भाषाएं थीं और अब वहां 30-35 भाषाएं ही बची हैं। अनुमान है कि ये भाषाएं भी अगले कुछ वर्ष में लुप्त हो जाएंगी। भारत में भी अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हैं। गांव-गांव में अंग्रेजी पहंुच चुकी है। अंग्रेेजी का ज्ञान होना चाहिए, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है, लेकिन सब कुछ अंगे्रजीमय कर देना उचित नहीं है। कोई भाषा एक दिन में अस्तित्व में नहीं आती है और अपनी भाषा तो मां के समान होती है। इसलिए उसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। हमें विदेशियों से यह प्रेरणा लेने की जरूरत है कि वे कैसी दृढ़ता के साथ अपनी भाषा का सम्मान करते हैं और उसको व्यवहार में लाते हैं। फ्रांस में रहने वाले एक भारतीय के अनुसार पेरिस में भारतीयों को वहां के लोगों से संवाद करने में बड़ी दिक्कत होती है। वहां के लोग फें्रच में ही बोलते हैं। जिन्हें अंग्रेजी आती भी है तो वे अंग्रेजी बोलना पसन्द नहीं करते हैं। उन्हें अपनी भाषा पर इतना अभिमान है। हम भारतीयों को भी ऐसा अभिमान रखना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को विदेशों में हिन्दी में भाषण देते हुए देखकर इतना अच्छा लगता है कि पूछो मत। पूरी दुनिया में हमारी हिन्दी गंूज रही है। कह सकते हैं कि हिन्दी के अच्छे दिन आ गए हैं।
—सुहासिनी किरनी
गोलगुड्डा, हैदराबाद (तेलंगाना)
आंखों में प्यार, दिलों में धोखा
अपने-अपने राज्य में, बनते थे जो शेर
जनता ने ठुकरा दिया, ज्यों मिट्टी का ढेर।
ज्यों मिट्टी का ढेर, होश में अब हैं आये
छह परिवारों ने आगे बढ़ हाथ मिलाए।
है 'प्रशांत' आंखों में प्यार दिलों में धोखा
काटेंगे इक-दूजे को पा करके मौका।
-प्रशान्त
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