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सांस्कृतिक राष्ट्रीयता बनाम मजहबी पहचान

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Apr 18, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 18 Apr 2015 14:09:37

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही संस्कृति को त्याग मजहब के आधार पर कृत्रिम रूप से बना पाकिस्तान जहां आज असफल राज्य है, वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने भारत को न केवल संपन्नता प्रदान की बल्कि मंगल तक अपनी गौरव गाथा लिखी।
डॉ. गुलरेज शेख
उपरोक्त विषय पर चर्चा के पूर्व इस बिन्दु पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा कि राष्ट्र से निर्मित होता है राष्ट्रवाद। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात है राष्ट्रों की निर्माण प्रक्रिया का बोध होना। यदि राष्ट्र निर्माण के मूल कारकों का गहन अध्ययन किया जाए तो सागर मंथन के अमृत की भांति ही जो कारक निकलेगा वह है क्षेत्र विशेष की मूल संस्कृति।
अत: राष्ट्रों का निर्माण संस्कृति के आधार पर होता है तथा जहां दो संस्कृतियों का मेल होता है वहां दोनों के समागम से एक पृथक सांस्कृतिक राष्ट्र का जन्म होता है। इसका सबसे सुलभ तथा सटीक उदाहरण ईरान (फारस) है, जहां हिंदू संस्कृति वाले भारत राष्ट्र का मेल अरब से होता है वहां फारसी संस्कृति वाले ईरान का जन्म होता है। अत: जहां से फारसी संस्कृति वाला ईरान आरंभ होता है वहां तक हिंदू संस्कृति वाला भारत राष्ट्र है तथा जहां ईरान समाप्त होता है वहीं अरब का आरंभ है। यदि इसी प्रकार पश्चिम पर दृष्टि केंद्रित करें तो पश्चिमी यूरोप के इंग्लैंड से लेकर इटली तक जो संस्कृति है वह पश्चिमी संस्कृति है और जहां पश्चिमी यूरोप की इस पश्चिमी संस्कृति का मेल पूर्वी यूरोप की रूसी संस्कृति से होता है वहां जन्म होता है बाल्कन संस्कृति (बाल्कन देशों) का। अत: इंग्लैंड से बाल्कन तक जो कुछ भी है वह पश्चिमी संस्कृति है तथा बाल्कन की सांस्कृतिक सीमा समाप्ति से ईरान की सांस्कृतिक सीमा के आरंभ तक रूसी संस्कृति है।
अब यदि राजनैतिक नक्शों में विभिन्न देशों की भांति प्रतीत होने वाले इन राष्ट्रों के राजनीतिक आचरण पर ध्यान केंद्रित करें तो हम पायेंगे कि समान संस्कृति वाले पृथक देश अधिकांश विषयों में एक समान राजनैतिक तथा वैचारिक आचरण प्रदर्शित करते हैं। यही कारण है कि महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय विषयों पर सांस्कृतिक रूप से पश्चिमी देश एक सुर अलापते हैं। यही स्थिति रूसी तथा बाल्कन देशों की है और अरब देशों का आचरण भी समान ही प्रदर्शित होता है।
अब एक प्रश्न स्वत: ही जन्म लेता है कि समान सांस्कृतिक क्षेत्र में अलग-अलग देश क्यों? इसका एक ही उत्तर है कि इतने सारे देश साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद की अवैध संतानों की तरह हैं तथा इन देशों की ऐतिहासिक आयु मानवीय सांस्कृतिक आयु के समक्ष अत्यल्प ही है। इस तथ्य की प्रामाणिक स्थापना हेतु मात्र एक सदी पीछे मुड़कर देखना ही पर्याप्त है। सदी भर पूर्व के कालखंड में पाकिस्तान, बंगलादेश, ईराक, जॉर्डन, सऊदी अरब, बोस्निया, पूर्वी तिमोर जैसे देश कहां थे? अत: इन देशों का निर्माण ही कृत्रिम है, और यही कारण है कि ये देश सदा समस्याग्रस्त रहते हैं, सुख से वंचित हैं।
परंतु पिछले 4-5 दशकों में इन कृत्रिम रूप से बने देशों के नागरिक जब भी राष्ट्रीयता, जो कि मानवीय स्वभाव का मूल चरित्र है, को व्यवहार में लाते हैं तो इन देशों का कृत्रिम जन्म न केवल अपने ही नागरिकों को दिशाभ्रमित करता है, बल्कि समाज में व्यापक समस्याओं का कारण भी बनता है। ये दिशाभ्रमित जन कभी पंथ में, तो कभी भाषा में, कभी क्षेत्रवाद में, तो कभी परंपराओं में राष्ट्रीयता को ढूंढने की गलती कर मानव समाज को आतंकवाद से लेकर साम्यवाद तक की आग में झोंक रहे हैं। यदि उदाहरण की बात करें तो दूर जाने की आवश्यकता नहीं, पाकिस्तान को देखना ही पर्याप्त है। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही संस्कृति को त्याग मजहब के आधार पर कृत्रिम रूप से बना पाकिस्तान जहां आज असफल राज्य है, वहीं सांस्कृतिक राष्ट्रीयता ने भारत को न केवल संपन्नता प्रदान की बल्कि मंगल तक अपनी गौरव गाथा लिखी।
जहां ईसाई मजहबी पहचान ने बोस्निया तथा सर्बिया को 21वीं सदी में 15वीं सदी के दर्शन करा दिये, वहीं अरब देशों को आईएसआईएस ने 10वीं सदी में पहुंचा दिया। यदि इसी मजहबी पहचान की दृष्टि से अरब देशों पर ध्यान केंद्रित किया जाये तो वर्ष 2010 के अंत में ट्यूनीशिया से प्रारंभ हुई अरब राष्ट्रवादी क्रान्ति मिस्र, लीबिया, यमन, सीरिया, बहरीन तक विस्तृत हुई, परंतु ट्यूनीशिया के अतिरिक्त बाकी सभी देशों में यह क्रान्ति विनाश की क्रान्ति सिद्ध हुई, क्योंकि अपने आरंभ के कुछ ही समय में इस क्रांति ने संस्कृति के स्थान पर मजहब को अपने आधार के रूप में स्थापित किया। केवल ट्यूनीशिया ही एक सीमा तक सफल एवं अहिंसक क्रांति का उदाहरण बन सका, क्योंकि यहां की क्रांति का आधार मजहब नहीं था। यदि ट्यूनीशिया की सांस्कृतिक स्थिति पर दृष्टि केंद्रित करें तो अरबी भाषी, इस्लामपंथी यह ट्यूनीशिया वही स्थान है जहां अरबी तथा अफ्रीकी संस्कृतियों का समागम होता है। अत: यह छोटा सा ट्यूनीशिया कृत्रिम रूप से निर्मित देश न होकर एक सांस्कृतिक राष्ट्र है। यही कारण है कि यह छोटा-सा राष्ट्र गत समय के अस्थिर अरब वातावरण में अपने पड़ोसियों की भांति आत्महत्या करने से बचा हुआ है।
यदि हम भारत के इतिहास तथा वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करें तो हमारी सफलता का मुख्य कारक हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रीयता ही है। ईसा पूर्व का ऐतिहासिक उदाहरण ही लें, जब भारत पर अलक्षेंद्र (सिकंदर) द्वारा आक्रमण हुआ था तब चाणक्य समूचे भारत के लिए चिंतित थे, न कि केवल पाटलिपुत्र तथा तक्षशिला के लिये। जब अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता का युद्ध लड़ा गया तब उसमें सरोजिनी नायडू भी थीं, सरदार पटेल भी, अश्फाक उल्लाह और तिलक भी, गांधी थे और फ्रंटियर पर अहिंसक योद्धा फ्रंटियर गांधी कहलाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान भी थे, जिन्होंने देश के विभाजन को रोकने का हरसंभव प्रयास किया परंतु कांग्रेस ने उनकी एक न चलने दी। अन्तत: उन्होंने क्षुब्ध होकर कांग्रेस पार्टी को लिखा,'आपने हमें भेडि़यों के सामने छोड़ दिया।' जब तक भारत सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की स्वाभाविक प्रवृत्ति का अनुसरण करता रहेगा तब तक इस विशाल राष्ट्र के सभी पंथ, भाषा, क्षेत्र आदि पृथक-पृथक अंगों की भांति एक राष्ट्र रूपी शरीर हेतु सुचारु रूप से अपना दायित्व निर्वाह करते रहेंगे और राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता रहेगा। अत: राष्ट्रीय अखंडता तथा सद्भावना का मूल केवल और केवल राष्ट्रीय संस्कृति है, जिसके शुद्धिकरण का प्रयास निरंतर होना अनिवार्य है। ल्ल

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