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युद्ध में फंसे यमन से करीब पांच हजार भारतीयों को सुरक्षित भारत लाने के अभियान आपरेशन राहत की कमान संभालने वाले भारत के केन्द्रीय विदेश राज्य मंत्री जनरल (से.नि.) वी.के. सिंह से पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी की विशेष बातचीत के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं-
आपरेशन राहत की योजना कब बनी?
यमन में गृहयुद्ध की वजह से हालात खराब हो रहे थे, भारत सरकार ने जनवरी में एडवाइजरी की थी, भारतीयों को वहां से निकलने की हिदायत दी थी। वहां के हालात पर चर्चा करने के लिए विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने एक बैठक बुलाई। उन्होंने निर्णय लिया कि वहां पर सरकार की ओर से किसी का होना जरूरी है। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं वहां जाऊं। मैं 27 मार्च को वहां गया।
सबसे पहले आप कहां पहुंचे और क्या कदम उठाया?
मैं सबसे पहले ज्बूती पहुंचा। मेरे दिमाग में मोटे तौर पर एक योजना थी। हमारे एयर इंडिया के दो जहाज मस्कट में थे, हमने सोचा था कि हम सना से लोगों को पहले मस्कट ले जाएंगे और वहां से इन दो जहाजों से भारत ले जाएंगे। मेरे ज्बूती पहुंचने तक हमें सना पर विमान उतारने की अनुमति नहीं मिली थी। 3 अप्रैल को हमें सना के हवाई अड्डे पर उतरने और रवाना होने के लिए सिर्फ 2 घंटे की अनुमति मिली। अब तक हम अपने दोनों जहाजों को ज्बूती हवाई अड्डे पर उतार चुके थे।
वहां समन्वय में क्या कोई दिक्कत आई?
बहुत दिक्कत आई। हमें ज्बूती, वहां के एयर ट्रेफिक कंट्रोल, सना और वहां के एयर ट्रेफिक कंट्रोल से समन्वय करना पड़ता था। वहां का पूरा हवाई क्षेत्र सऊदी नियंत्रण में था। हमें यह भी दिक्कत आई कि जहाज को कहां से कहां ले जाएं, क्योंकि शुरू में वे लोग चाहते थे कि हम एरिटेरिया के ऊपर से जाएं, लेकिन एरिटेरिया और ज्बूती के बीच रिश्ते खराब हैं इसलिए हमें न तो एरिटेरिया अनुमति दे रहा था और न ही ज्बूती। अगर हम लंबी दूरी तय करके जाते तो उन दो घंटों के बीच में रवाना होना और उतरना मुश्किल था। इसलिए हमें सीधे मार्ग के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पड़ी, पर आखिरकार अनुमति मिल गई। हमने विमान उतारा, लोगों को चढ़ाया और हम चाह रहे थे कि जितना वक्त मिला है उसमें विमान दो चक्कर लगा ले। लेकिन वह मुश्किल था क्योंकि आने-जाने में ढाई घंटा लगता था, फिर लोगों को चढ़ाना-उतारना। तो इसमें तीन-सवा तीन घंटे लगने थे। मैं खुद सना गया, रात में रुका ताकि मुझे अंदाजा हो जाए कि मुश्किलें क्या है। उसके बाद मैं वापस लौटा और विदेश मंत्री से एक और जहाज देने को कहा।
हमें वहां इमिग्रेशन (अप्रवासन) की दिक्कतें भी आईं। हमारे बहुत से भारतीय वहां ऐसे थे जिनके पासपोर्ट उनकी कंपनी के मालिकों के पास थे क्योंकि वे ठेके पर काम करने आए थे। इसलिए उनको निकलने के लिए वीसा नहीं मिल सकता था। कई लोग ऐसे भी थे जिनकी अपनी दूसरी तरह की समस्याएं थीं। उदाहरण के लिए, एक सज्जन थे जो यात्रा वीसा पर गए थे पर छह साल से वहीं थे। यमनी भी हैरान थे कि ये जनाब छह साल से यहां कैसे? इन पर तो तो पैनल्टी लगेगी। ज्यादातर के पास यह पैनल्टी चुकाने के लिए पैसे नहीं थे।
ज्बूती में मुश्किलें ज्यादा आईं या और जगह भी अड़चनें थीं?
होता यह था कि एक दिन पहले ज्बूती में मामला सुलझाते तो अगले दिन पता लगता था सना में स्थितियां बिगड़ रही हैं। सना में दिक्कतें सुलझाते थे तो फिर रियाद के साथ अड़चनंे आ जाती थीं। कहीं हवाई अड्डे की दिक्कत थी तो कहीं हवाई अड्डा कर्मी नहीं मिलते थे।
मैं वहां शुक्रवार के दिन पहुंचा था जब वहां छुट्टी रहती है तो हमें ले-देकर एक आदमी अप्रवासन विभाग में मिला। उसकी मदद से जितने ज्यादा से ज्यादा लोगों को हम भेज सकते थे हमने भेजा। थोड़ी देर वह भी बोलने लगा कि छुट्टी के दिन मुझसे इतना काम क्यों करवा रहे हैं। हवाई अड्डा पूरी तरह बियाबान था। वहां तो बस सुरक्षाकर्मी थे या आने जाने वाले भारतीय। आखिरकार हमें कुछ सहायता देने के लिए लोग मिल गए। हमें वहीं रह रहे बोहरा समुदाय के लोग मिल गए। हैं तो वे भी भारतीय पर वे लौटे नहीं, वहीं रह रहे हैं। उन्हीं लोगों ने आने वाले भारतीयों के चाय पानी की चिंता की, खाना दिया, उनके कागज बनवाने में मदद की। हमने तालमेल के लिए ज्बूती में एक कंट्रोल रूम स्थापित किया था। ज्बूती में हम लोगों को ज्यादा देर ठहरा नहीं सकते थे। हमने ऐसा समन्वय किया था कि सना से लोगों को लेकर आने वाले जहाज और भारत से उन लोगों को वापस भारत ले जाने वाले जहाज के पहुंचने में दो घंटे से ज्यादा का अंतर न हो। हम लोगों को एक जहाज से उतार कर सीधे दूसरे जहाज में बैठा देते थे।
ल्ल नौसेना के जहाज भी बचाव कार्य में लगे थे। उन्होंने कहां से लोगों को निकाला?
उन जहाजों ने उन लोगों को मुकल्ला, अदन और हूदेदा बंदरगाहों से निकाला। बंदरगाहों पर सुविधाएं कम होने से दिक्कतें तो आईं पर अदन के अधिकारियों ने हमारी बहुत मदद की। अदन में उस वक्त गोलीबारी चल रही थी। एक दिन पहले ही चीन के जहाज पर गोलियां चली थीं। बंदरगाह के अधिकारियों ने हमसे कहा कि हम अपना जहाज तट से दूर खड़ा करें और छोटी नावों से लोगों को जहाज तक पहुंचाएं। हमने ऐसा ही किया। इसमें संदेह नहीं है कि इतने सारे भारतीयों को सुरक्षित निकालने में हमें कई तरफ से मदद मिली, जिसमें नौसेना, वायुसेना, एयर इंडिया, हमारे विदेश मंत्रालय के अधिकारी और ज्बूती में हमारे दूतावास के अधिकारी शामिल हैं। मैं खासतौर पर ज्बूती में हमारे ऑनरेरी कोंसुलेट नलिन कोठारी की तारीफ करता हूं, उन्होंने बहुत काम किया। हमें सना हवाई अड्डे पर वहां के कर्मियों से बहुत मदद मिली। मेरे वहां जाने से उनको भी अच्छा लगा क्योंकि उन्हें उम्मीद नहीं थी कि वहां कोई मंत्री पहुंचेगा। मुझसे उन्होंने कहा कि आप जो बोलेंगे, हम करेंगे।
भारतीयों के अलावा आपने कई देशों के नागरिकों को भी वहां से सुरक्षित निकाला। इसके बारे में बताएं।
आपरेशन राहत के आखिरी तीन दिनों में हमें सूचना मिली कि कुछ यमनी नागरिक भी फंसे हुए हैं, उन्हें भी निकालना है। यह अनुरोध यमन सरकार ने ही किया था।राहत कार्य के अंतिम दिन तो जब हम सना से आसपास थे तब भीषण हवाई हमले हो रहे थे। हमने उस दिन छह सौ लोगों को सुरक्षित निकाला। हम ही जानते हैं कि कैसे हवाई अड्डे के आसपास बरसते गोलों के बीच हमने उन लोगों को सुरक्षित निकाला था। हमने पूरी कोशिश की कि हम एक भी भारतीय को वहां मुसीबत में न छोड़ें और उनके अलावा भी जो हमारे साथ आना चाहेगा, उसे लेकर आएंगे। उस दिन हमने करीब साढ़े चार सौ भारतीयों को और सौ से ज्यादा विदेशियों को सुरक्षित निकाला। इन्हें हमने बोइंग-777 और सी-17 विमानों से वापस भेजा।
कई देशों ने आपसे अपने नागरिकों को निकालने के लिए अनुरोध किया था। आपने कुल कितने देशों के नागरिकों को सुरक्षित निकाला?
हमने करीब 41 देशों के नागरिकों को वहां से निकाला। हमने उन देशों के अधिकारियों को को बता दिया था कि किन हवाई अड्डों और बंदरगाहों से लोगों को ले जाएंगे इसलिए अपने लोगों को सही वक्त पर उस स्थान पर जरूर भेज दीजिए। हमने साफ बता दिया था कि हमारी प्राथमिकता पर पहले भारतीय हैं, उसके बाद हम आपके नागरिकों को जरूर ले जाएंगे। लेकिन हमसे जिसने मदद मांगी, हमने उसे इनकार नहीं किया।
. क्या उनमें पाकिस्तान के नागरिक भी थे?
पाकिस्तान के नागरिक भी थे, बंगलादेशी भी थे, नेपाल के थे, श्रीलंका के थे, मध्य एशियाई देशों के लोग थे, यूरोपीय थे। करीब 41 देशों के नागरिक हमने बचाए। एक तरह से पूरी दुनिया का प्रतिनिधित्व था। हमने जिस भी देश के नागरिकों को सुरक्षित निकाला, वहां की सरकार ने हमारे काम की सराहना की, धन्यवाद दिया। समृद्ध देशों के बचाव कार्यों का तरीका ऐसा है कि वे अपने लोगों को सुरक्षा के साथ निकटतम सुरक्षित स्थान पर ही छोड़ देते हैं। उसके बाद उस आदमी की जिम्मेदारी है कि अपने देश कैसे पहुंचता है। हम अलग हैं। हमारी सरकार अपने नागरिकों का पूरा ध्यान रखती है। इसलिए हम जहां तक हो उन्हें उनके स्थान के निकट पहुंचाते हैं। चूंकि हमारे द्वारा लाए गए अधिकांश भारतीय केरल के थे तो हमने उन्हें कोच्चि अथवा मुम्बई हवाई अड्डे तक सुरक्षित पहुंचाया। इसे बहुत से लोग नहीं समझ पाते और कहते हैं कि कोच्चि क्यों छोड़ा, हमें तिरुअनंतपुरम तक क्यों नहीं छोड़ा। इसके पीछे बात यह है कि हमें एक-एक पल का ध्यान रखना था। सी-17 विमान कोच्चि साढ़े पांच या छह घंटे में पहुंचता है, मुम्बई चार घंटे में पहुंच जाता है। इन विमानों को लोगों को उतारकर फौरन वापस ज्बूती पहुंचना होता था इसलिए जितना जल्दी हो सके उन्हें खाली करके लौटना होता था। हमें विमान का और उसके कर्मियों का भी ध्यान रखना था। बहरहाल ऐसी गलत टिप्पणी करने वाले कांग्रेस के एक नेता को यह सोचना था कि हम संकट में फंसे सना से लोगों को मुम्बई या कोच्चि तक तो पहुंचा ही रहे हैं। वहां से तो वे अपने घर सुरक्षित जा ही सकते हैं।
. कुल कितने विमान इस राहत कार्य में इस्तेमाल किये गए?
हमने तीन सी-17 विमान लगाए, एक बोइंग-777, तीन एयरबस इस्तेमाल की गईं। मेरी वापसी भी मुम्बई आने वाली आखिरी उड़ान में बचाकर लाए गए भारतीयों के साथ ही हुई। हमने इस आपरेशन में साढ़े पांच हजार से ज्यादा भारतीयों और बारह सौ से ज्यादा विदेशी नाागरिकों को संकटग्रस्त यमन से बाहर निकाला। कई भारतीय हमारे काफी समझाने के बाद भी उस जगह को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो आना चाहते थे उनको हम लेकर आए हैं।
. आपने बहुत बारीक रणनीति बनायी, योजनाबद्ध काम किया। इसमें आपका एक फौजी होना कितना मददगार रहा?
फौजी होने का फायदा निश्चित रूप से मिला। इससे हमारे अंदर हालात को जगह पर जाकर समझने की आदत पड़ जाती है। इसलिए मैं सना में जाकर रहा। मैं इस दौरान पांच बार सना गया क्योंकि मुझे लगता था कि कहीं न कहीं कोई अड़चन आ सकती है जिसे फौरन सुलझाने की आवश्यकता होगी।
. आपरेशन राहत से भारत सरकार की साख बढ़ी है। इस पर आपका क्या कहना है?
इस आपरेशन से दुनिया में भारत की साख बढ़ी है। भारत सरकार ने बचाए गए प्रत्येक भारतीय पर अंदाजन डेढ़ लाख रुपए खर्च किए हैं। हमारे एक युद्धपोत को चलाने में प्रति घंटा 50-60 लाख रुपए खर्च होते हैं। हर हवाई जहाज को उड़ाने में 15-20 लाख रुपए प्रति घंटा खर्च होता है।
इसमें संदेह नहीं है कि आपरेशन राहत में सरकार ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया था, कोई कसर नहीं छोड़ी। इस दौरान मुझे या विदेश मंत्रालय के हमारे अधिकारियों को न नाश्ता नसीब होता था और न दोपहर का खाना। भागदौड़ में ही पेट में कुछ डाल लिया करते थे, वह भी शाम होने पर।
. पाकिस्तान के संदर्भ में एक सवाल। वहां आतंकी जकीउर्रहमान को छोड़ा गया है। भारत सरकार ने उस पर फिर से कार्यवाही करने की मांग की है। भारत-पाकिस्तान संबंध किस दिशा में जा रहे हैं? क्या पाकिस्तान राह पर आता दिखता है?
देखिए, एक तो होती है नीति और फिर होते हैं उसके क्रियान्वयन में आने वाले विभिन्न अवरोध। प्रधानमंत्री जी ने कहा भी है, वातावरण बम और गोलियों का नहीं होना चाहिए।
सद्भाव के माहौल में बातचीत होनी चाहिए। बीच में अड़चनें आती हैं जैसे ये जकीउर्रहमान की बात है। इन चीजों को हल करने के तरीके हैं। हमें दूरदृष्टि रखते हुए कदम बढ़ाना चाहिए।
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